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पं. दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति के वैचारिक पुरोधा पुरुष हैं। एकात्म मानववाद के प्रवर्तक दीनदयालजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक व्रती स्वयंसेवक और भारतीय जनसंघ के राजर्षि नायक के रूप में समाज और देश के सम्मुख श्रेष्ठ चिंतन प्रस्तुत किया।
देशभर में इस वर्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रवर्तित एकात्म मानववाद के अर्द्धशताब्दी उत्सव चल रहे हैं। ऐसे समय में दीनदयालजी पर समग्र शोध करने वाले अध्येता डॉ. महेशचन्द्र शर्मा के शोधप्रबंध को पुनर्प्रकाशित कर प्रभात प्रकाशन ने देश की युवापीढ़ी के लिए विशिष्ट एवं संग्रहणीय विचार सामग्री परोसने का कार्य किया है। पं. दीनदयाल उपाध्याय कर्तृत्व एवं विचार' नामक शीर्षक से प्रकाशित 424 पृष्ठों की इस पुस्तक में निहित 12 अध्यायों में पं. दीनदयाल उपाध्याय के प्रारंभिक जीवन से लेकर रा.स्व.संघ से संबंध, जनसंघ में भूमिका और इसी प्रकार राजनीतिक सक्रियता, सामाजिक, आर्थिक विचारों के साथ भारतीय चिंतन एवं दर्शन परंपराओं की विस्तृत विवेचना सहित ग्यारहवें अध्याय में एकात्म मानववाद पर एक पूरा अध्याय प्रस्तुत कियाा है। दीनदयालजी के एकात्म मानववाद को कालजयी अवधारणा बताते हुए पुस्तक के प्राक्कथन में डॉ. विनय सहस्रबुद्धे कहते हैं-''एकात्म मानववाद का आकलन सक्षमों को संवेदनशील बनाते हुए अभावग्रस्तों का पीड़ाहरण करने में सफल हो पाएगा।'' लेखक ने दीनदयालजी के बाल्यकाल के कष्टों, अभावों और संकटों को बखूबी चित्रित किया है- ''ढाई साल की अवस्था में पितृगृह छूटने के बाद दीनदयाल वापस वहां रहने के लिए कभी नहीं लौटे। उनका पालन-पोषण व विकास एक प्रकार से असामान्य स्थिति में हुआ।' दीनदयाल ने उसी परिवेश से ऊर्जाग्रहण कर अपने व्यक्तित्व का विकास किया।'' लेखक ने स्नेह वात्सल्य से वंचित शिशु की मर्मातक पीड़ा का चित्रण किया है-'मां के देहांत को दो वर्ष ही हुए थे कि वृद्ध व स्नेही पालक, जो अपनी बेटी की अमानत को पाल रहे थे, नाना चुन्नीलाल भी स्वर्ग सिधार गए। पिता-माता व नाना के वात्सल्य से वंचित होकर वे अपने मामा के आश्रय में पलने लगे।' राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में दीनदयालजी स्नातक की पढ़ाई करते समय 1937 में आए जहां संघ से जुड़ने के बाद उनकी भेंट संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार से हुई। कई वरिष्ठ संघ प्रचारकों के उनके छात्रावास में ठहरने के विवरण के साथ पुस्तक में यह भी उल्लेख है कि दीनदयालजी के निमंत्रण पर स्वातत्र्य समर के अमर बलिदानी वीर सावरकर संघ स्थान पर बौद्धिक देने पहुंचे थे। 1939 में दीनदयालजी ने संघ शिक्षा वर्ग प्रथम वर्ष, 1942 में द्वितीय वर्ष प्रशिक्षण प्राप्त किया। जहां उनके बौद्धिक कौशल एवं कुशल नेतृत्व क्षमता का परिचय प्राप्त होता है- ''वे आजीवन संघ के प्रचारक ही रहे। संघ के माध्यम से ही वे राजनीति में गए, भारतीय जनसंघ के महामंत्री बने, अध्यक्ष रहे तथा एक संपूर्ण राजनीतिक विचार के प्रणेता बने।''यह भी उल्लेखनीय है कि देश की आजादी से पूर्व 1937 से 1947 की कालावधि तक दीनदयालजी प्रत्यक्षत: संघ कार्य में संलग्न रहे और 1951 तक उन्होंने सभी कार्य दायित्वों का बखूबी निर्वहन किया-'आजादी एवं विभाजन का आगमन, महात्मा गांधी की हत्या, संघ पर प्रतिबंध, संघ द्वारा सत्याग्रह और प्रतिबंध से मुक्ति, संविधान निर्माण-इस दौरान दीनदयाल की भूमिका संघ के स्वयंसेवक एवं प्रचारक की रही।''लेखक डा. महेशचंद्र शर्मा ने इसके साथ ही दीनदयालजी द्वारा प्रतिपादित डॉ. हेडगेवार की राजनीतिक दृष्टि, गोलवलकर की सांस्कृतिक दृष्टि पर प्रकाश डालने के साथ उनके सृजनधर्मी व्यक्तित्व का भी उद्घाटन किया है। उनके द्वारा रचित प्रथम साहित्यिक कृति 'सम्राट चन्द्रगुप्त' और द्वितीय औपन्यासिक कृति जगद्गुुरु शंकराचार्य पर विस्तार से लिखा है। पाञ्चजन्य साप्ताहिक और राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशन की चर्चा के साथ भारतीय इतिहास पुरुषों-भगवान कृष्ण, शंकराचार्य, तुलसीदास,छत्रपति शिवाजी, लोकमान्य तिलक आदि के विषय में दीनदयालजी के भावों का विशद् वर्णन किया है। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने दीनदयालजी को जनसंघ के महामंत्री का दायित्व उनकी बेजोड़ प्रतिभा, कार्य कौशल और नेतृत्व क्षमता के ही कारण दिया था। स्वयं दीनदयालजी मानते थे कि जनसंघ कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि एक व्यापक आंदोलन है। यह सत्ता लालसा रखने वाले लोगों का झुंड नहीं बल्कि संस्कृतिवादी संगठन है। सहज सरल दिखने वाले दीनदयालजी ने अपने से बड़े व्यक्तित्वों को भी प्रभावित किया था चाहे वे डॉ. हेडगेवार हों, श्री गुरुजी, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, वीर सावरकर हों अथवा स्वामी करपात्री जी। डॉ. मुखर्जी की मृत्यु के बाद जब जनसंघ के नेतृत्व का सवाल खड़ा हुआ तो उन्होंने तल्खी के साथ कहा- 'हमारे लिए नेता कोई अलग व्यक्ति न होकर संगठन शरीर का अभिन्न अंग होता है।'
दीनदयालजी ने एकात्म मानववाद को देश की आवश्यकता और समय की मांग के रूप में प्रवर्तित किया। वे स्वयं तर्क देते हैं-'विश्व का ज्ञान हमारी थाती है। मानव जाति का अनुभव हमारी संपत्ति है। विज्ञान किसी देश विशेष की बपौती नहीं। वह हमारे भी अभ्युदय का साधन बनेगा।' दीनदयालजी समन्वय के पक्षधर थे। वे मनुष्य के ज्ञान और उपलब्धियों को प्रतिष्ठापित करने के विचार के समर्थक थे-'उनकी भारतीय प्रकृति समन्वय दृष्टिवाली थी, अत: न वे किसी विदेशी विचार को एकदम हेय मानते थे तथा न ही हर स्वदेशी चीज को वरेण्य।' वास्तव में यह दृढ़ता एकात्मा मानववाद में परिलक्षित दिखाई पड़ती है-'एकात्म मानववाद का विचार प्रचलित वादों में न्यूनताओं को दूर कर उन्हें परिपूर्ण बनाने के लिए किया गया है।' दीनदयालजी सनातन परम्परा का संबल लेनेे, हुए अधुनातन नितनवीन ज्ञान के लिए प्रयत्न करने की सीख देते हुए वह स्पष्ट करते हैं-हम भारतीय चिन्तन परम्परा का ऐसा विकास करें कि वह अधुनातन विश्व विचार परम्परा का एक सार्थक हिस्सा बन जाए।'
कुल मिलाकर यह आशा की जानी चाहिए कि एकात्म मानववाद के अर्द्धशताब्दी महोत्सव के अवसर पर दीनदयालजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के अनुसंधाता एवं अधिकारी विद्वान डॉ. महेश चन्द्र शर्मा द्वारा रचित 'पं. दीनदयाल उपाध्याय कर्तृत्व एवं विचार' पुस्तक वर्तमान आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवनचर्या के लिए उपयोगी एवं श्रेष्ठ उपहार सिद्ध होगी।
ल्ल सूर्य प्रकाश सेमवाल
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