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1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान की सीमा में घुसकर उनके जेट विमानों को मार गिराने की महारत रखने वाले 'कीलर ब्रदर्स' की वीरता को भारतीय वायुसेना और देश कभी भुला नहीं पाएगा। डेन्जिल और ट्रेवर दोनों भाइयों को पहली बार एक साथ एक अपूर्व साहसपूर्ण कार्य के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 1965 के युद्ध पर एयर मार्शल (से.नि.) डेन्जिल कीलर से पाञ्चजन्य संवाददाता राहुल शर्मा की बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं –
1965 के युद्ध में आप दोनों भाई 'कीलर ब्रदर्स' के नाम से कैसे मशहूर हुए?
मैं और छोटा भाई टे्रवर दोनों एक ही दिन स्क्वाड्रन लीडर के पद पर 6 नवम्बर, 1954 को वायुसेना में भर्ती हुए थे। टे्रवर 1965 के युद्ध में वायुसेना के 23 स्क्वाड्रन पठानकोट बेस पर तैनात था। 3 सितम्बर की सुबह 7:30 बजे उसे रडार से सूचना मिली कि पाकिस्तानी लड़ाकू विमान 'एफ-86 साबरे जेट' भारतीय सीमा के छम्ब क्षेत्र में घुसकर भारतीय सेना की गतिविधियों की जासूसी कर रहा है। इसके ठीक बाद टे्रवर ने 'स्क्वाड्रन लीडर' जॉनी ग्रीन और दो अन्य के साथ पठानकोट बेस से दो समूह में चार 'जीनेट्स' लड़ाकू विमानों के साथ उड़ान भर दी। ट्रेवर जेट का पीछा कर पाकिस्तान की सीमा में जा घुसा और कुछ समय बाद उसने जेट को गिरा दिया और वापस सुरक्षित अपने बेस पर लौट आया। भारत की आजादी के बाद दुश्मन के लड़ाकू विमान को गिराने वाला टे्रवर पहला भारतीय वायु सैनिक था। इसके लिए उसे वीर चक्र मिला और मैंने भी उसे 'वेल डन ब्रो' कहकर बधाई दी थी। युद्ध के दौरान इसी तरह मुझे भी 19 सितम्बर को पाकिस्तानी जेट को मार गिराने का अवसर मिला और मुझे भी वीर चक्र दिया गया। इसी दिन से हम दोनों भाई 'कीलर ब्रदर्स' के नाम से मशहूर हो गए। टे्रवर को आपातकाल में सुरक्षित विमान उतारने पर वायु सेवा मेडल भी दिया गया था।
-19 सितम्बर को पाकिस्तान की सीमा में जाकर दुश्मन के विमान को मार गिराने वाली घटना को याद कर कैसा लगता है?
मैं 9 स्क्वाड्रन में फ्लाइट कमांडर के रूप में तैनात था और उस समय पठानकोट, आदमपुर और हलवारा में वायुसेना के बेस थे। उस दिन सियालकोट में भारत-पाकिस्तान की सेना के बीच जबरदस्त युद्ध जारी था और पाकिस्तानी जेट भारतीय सेना को निशाना बना रहे थे जिस समय भारतीय सेना रावलपिंडी, लाहौर और गुजरांवाला की ओर बढ़ रही थी। दोपहर करीब 3 बजे ऑपरेशन रूम में मुझे बुलाकर सेना को सुरक्षा प्रदान करने का जिम्मा सौंपा गया। चार-चार 'जीनेट्स' दो समूह में लेकर मैं, मुन्ना राय, कपिला और मयदेव आदि ने, जे. पी. सिंह के नेतृत्व में उड़ान भर दी। उस समय पाकिस्तानी लड़ाकू विमान काफी सक्रिय हो चुके थे और वे भारतीय सेना को नुकसान पहंुचा रहे थे।
करीब 4:30 बजे हम लोग दुश्मन की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। आसमान में सिवाय गोला-बारूद के धुएं के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। मैंने नीचे देखा कि पाकिस्तानी टैंक बड़ी तेजी से पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ रहे हैं, मैंने तुरंत जे. पी. सिंह से संपर्क कर पाकिस्तानी जेट विमान के हमारे करीब होने के बारे में बताया। फि र हम सभी ने अपना-अपना काम बखूबी संभाल लिया। दो जेट मेरी तरफ तेजी से बढ़े, लेकिन ऊंचाई और अधिक गति होने के कारण मुझे उसका लाभ मिला। आखिर में मुझे नीचे की ओर आना पड़ा और मैंने एयर गन से एक जेट को क्षतिग्रस्त कर दिया और उसका ईंधन रिसने लगा। इसी बीच कपिला ने भी मेरे साथ मोर्चा संभाल लिया, लेकिन उनके विमान की गन जाम हो गई और मैंने उन्हें तुरंत 'बिंगो'(ईंधन खत्म होने का संकेत) बोलते हुए बेस पर लौटने को कहा। तभी मैंने काफी नीचे पेड़ों तक जाकर पाकिस्तानी विमान ध्वस्त कर दिया और मैं सुरक्षित अपने बेस पर पहंुच गया। वहां मैंने पाया कि मेरे विमान में बायीं तरफ का पहिया क्षतिग्रस्त हो चुका था, लेकिन मैं विमान को सुरक्षित उतारने में सफल रहा। उस रनवे को बंद कर दिया गया जिस कारण कपिला को भी दूसरे बेस पर भेज दिया गया। बेस पर मालूम हुआ कि मयदेव नहीं पहंुचा है और एयर ट्रैफिक कंट्रोल से पता लगा कि केवल मुन्ना राय ही सुरक्षित बेस पर पहुंचे हैं। देर शाम को पाकिस्तानी रेडियो से सूचना मिली कि भारतीय वायुसेना का विमान उनकी सीमा में गिर गया और मयदेव को बंधक बना लिया गया। उसे कुछ माह बाद दूसरे भारतीय बंधक सैनिकों के साथ रिहा किया गया। उसी रात सरकार द्वारा मुझे और कपिला को वीर च्रक देने की घोषणा की गई।
1965 के युद्ध को लेकर कुछ रोचक बातें बताएं जिन्हें आप कभी नहीं भुला पाते हैं।
मैं 1954 में वायुसेना में भर्ती हुआ था और 1965 का युद्ध मेरे लिए पहला अनुभव था। खास बात यह रही कि युद्ध विराम की घोषणा होने तक मुझे 25 बार पाकिस्तान की सीमा में घुसने का अवसर मिला। साथ ही हम दोनों भाई एक दिन वासुसेना में भर्ती हुए और दोनों को इसी युद्ध में वीर चक्र मिला, यह बात मैं कभी नहीं भूल पाता हूं। युद्ध से पूर्व 1964-65 के दौरान मुझे और मेरे साथियों को स्क्वाड्रन लीडर जॉनी ग्रीन, जो कि तभी ब्रिटेन से लौटे थे, की निगरानी में 'फाइटर कॉमबेट लीडर कोर्स' करने का अवसर मिला था।
क्या 1965 के अलावा भी आपको किसी अन्य युद्ध में शामिल होने का अवसर मिला?
जी हां,1965 के बाद मुझे 1971 में दोबारा से पठानकोट बेस से भारत-पाकिस्तान युद्ध में हिस्सा लेने का अवसर मिला। उस दौरान मेरे साथ एक हादसा भी हुआ। 8 दिसम्बर, 1971 को मैं मिग-21 से उड़ान भरकर पाकिस्तान की सीमा में दुश्मनों की गतिविधियों पर नजर बनाए हुए था। तभी मेरे मिग विमान में गोली मार दी गई जिससे विमान मैं आग लग गई। मैंने जब पैराशूट निकाला तो उसमें पांव फंस गया और इससे पहले मैं संभल पाता कि जमीन पर जा गिरा। इससे मेरी कमर और रीढ़ की हड्डी में काफी चोट आ गई। जिस जगह गिरा वहां भारत-पाकिस्तान दोनों की सीमा लगती थी। तभी 7 कुमाऊं रेजीमेंट का एक जवान आया और मुझे सुरक्षित स्थान पर ले गया। स्ट्रेचर नहीं मिला तो एक खाट उलट कर मुझे उस पर लिटा कर जीप में ले जाया गया। फिर मुझे छम्ब में एक झोपड़ी में छिपा दिया गया और बाद में अखनूर होते हुए जम्मू अस्पताल में भर्ती कराया गया। इसके बाद मुझे 1987 में श्रीलंका के ऑपरेशन पवन का नेतृत्व करने का अवसर मिला। उसका मैंने दिल्ली स्थित मुख्यालय से संचालन किया था। 1954 में स्क्वाड्रन लीडर के पद से भर्ती हुए और 1991 में वायुसेना महानिरीक्षक के पद से सेवानिृवत्त होने तक मुझे वीर चक्र, परम विशिष्ट सेवा मेडल, कीर्ति चक्र और अति विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया गया।
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