|
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
लगता था उस रात का कोई अंत ही नहीं होगा। अंतहीन कानूनी दांवपेंच और सीमातीत जोर आजमाइश। सुनवाई, फिर सुनवाई, फिर फिर सुनवाई, फिर फिर फिर सुनवाई!!! क्या-क्या उस रात ने नहीं देखा था। पर उस रात की बदनसीबी इतने पर भी नहीं समाप्त हुई। सुनवाइयों के बाद चला दया याचनाओं का क्रम। पहले ही सोच विचार कर ठुकराई हुई दया याचना के बाद पुनर्याचना, पुन:पुनर्याचना, पुन:पुनर्पुनर्याचना। फिर उन याचनाओं के ठुकराए जाने के संवैधानिक और न्यायिक औचित्य पर सुनवाई का एक नया सिलसिला। अंत में जो कुछ सुनना समझना था वह भी समाप्त हुआ पर बाईस साल लग गए इस कहने सुनने के बीच लोगों के कैसे-कैसे चेहरे दिखाई पड़े। कुछ ने मुखौटे उतार डाले तो कुछ ने नए मुखौटे पहन लिए। सबसे विचित्र कहानी तो उन सज्जन की थी, जो आजतक देश की न्यायिक व्यवस्था में गहरी आस्था का नाटक करते आये थे। उनके सगे भाई ने खुली चुनौती देकर कहा था कि बस थोड़ी देर के लिए सुरक्षा कर्मचारियों को हटा दो तो वे दिखा देंगे कि देश के बीस प्रतिशत से भी कम लोग बाकियों की क्या बनाते हैं। सार्वजनिक सभाओं में धर्मान्धताजन्य वैमनस्य का विषवृक्ष बोने वाले इन महाशय के विषय में कोई भी सवाल पूछे जाने पर बड़े भाई साहेब देश की न्याय व्यवस्था में असीम आस्था दिखाते हुए कहते थे कि मामला न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में है अत: उनका टिप्पणी करना अनुचित होगा। वही सज्जन पलक झपकते ही न्यायपालिका में सारी आस्था और विश्वास भुला बैठे। सैकड़ों लोगों के कत्ल से रंगे हाथों वाले आतंकवादी को टाडा अदालत से लेकर देश के सवार्ेच्च न्यायालय ने बाईस साल तक घिसटने वाली प्रक्रिया में हर बार हर स्तर पर अपराधी घोषित किया था पर इनके गीत की टेक केवल एक थी कि इस खूंखार आतंकवादी का असली अपराध था उसका मुसलमान होना। वे लगातार चीखते रहे पर न्यायपालिका ने बेहद धीरज के साथ हर विवादी स्वर को सुना और अपना संतुलन खोकर बेबुनियाद आरोप न्यायिक प्रक्रिया पर ही लगाने वाले 'ओवैसी' को 'ओ वह शी' कहने की जरूरत नहीं समझी। सैकड़ों निदार्ेषों के खून बहानेवाले एक क्रूर आतंकवादी के जीवन का अंत जिस सुबह हुआ उससे क्या शिकायत हो सकती थी। पर उसी सुबह भारत माता का एक रत्न पूरे देश को शोकाकुल छोड़कर मातृभूमि की धूल में विलीन हो गया। ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जैसे राष्ट्रपति के ऊपर किस भारतवासी को गर्व नहीं होगा। एक विलक्षण प्रतिभाशाली वैज्ञानिक, चिन्तक और अध्यापक ही नहीं थे वे-सादगी, ईमानदारी और सरलता की मूर्ति भी थे। भला उनमे भी कोई खामियां ढूंढ सकता है पर मनीषियों ने कुछ सोच कर ही कहा होगा 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्न:'।
स्थानीय नेता जी से कलाम साहब के विषय में चर्चा हुई तो मुखौटा हट गया और नेता जी का असली चेहरा सामने आ गया। कलाम साहब के व्यक्तित्व में खोट निकालने का काम बहुत निर्लज्जता से नहीं किया जा सकता था। अत: थोड़ी देर तक तो नेता जी उनकी प्रशंसा करते रहे पर धीरे धीरे अपने असली रंग में आ गए। बोले 'शिलांग में आई. आई. एम् के छात्रों के साथ वे संसद में चल रहे प्रतिरोध को समाप्त करके उसकी कार्यवाही कैसे सुचारु रूप से चल सके इस पर चर्चा करना चाहते थे। अरे भाई, संसद में विरोध प्रदर्शन करने का इससे बेहतर क्या तरीका हो सकता है कि उसे चलने ही नहीं दिया जाए।' मैंने आपत्ति की 'जिस मंत्री के कार्यकलाप को लेकर पदत्याग की मांग की जा रही हो, उसे अपनी सफाई में वक्तव्य देने का मौका तो मिलना ही चाहिए। क्या यह उचित होता कि याकूब 'मेमनों' को पहले फांसी पर लटका दिया जाता और उसके बाद चर्चा की जाती कि वह वास्तव में अपराधी था कि नहीं।'
नेता जी बोले 'अरे आप भी कलाम साहेब जैसी भाषा न बोलिए, जमीन पर रहिये। जिस संसद में विरोधी दल की संख्या एक चौथाई भी न हो उसमे यदि सब संवैधानिक गतिविधियां ढंग से चलने दी जाएं तो जनतंत्र का अर्थ ही क्या होगा वह तो बहुमत की मनमानी होगी'। मैंने पूछा 'मुम्बई बम विस्फोटों के पीछे भी तो आतंकियों की यही दलील थी कि अल्पसंख्यकों को अपनी बात सुनवाने के लिए रक्तपात और आतंकवाद पर ही भरोसा करना चाहिए। फिर संसद में हंगामा मचाकर सब कार्यवाही रोक देने में और मुम्बई बम विस्फोटों में अंतर ही क्या रहा'।
नेता जी झुंझलाकर बोले 'हर बात तर्क से नहीं समझी जा सकती है। न्याय और तर्क को मारिये गोली। आखिर भावनाओं की भी तो कद्र होनी चाहिए।' मैं चुप हो गया। याकूब मेमना बिना समझे मर गया, कलाम साहेब समझाने से पहले ही अल्लाह को प्यारे हो गए। अब शायद इस देश में न्यायपालिका ही सब कुछ समझा सकेगी, भले इस काम में बाईस बाईस साल लग जाएं। तब तक शायद जनतंत्र 'में' जनतंत्र 'का' खूनखराबा चलता ही रहेगा। ल्ल
टिप्पणियाँ