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वार्ता की मेज पर ताकत ही तौली जाती है। इसमें लंबा समय लगेगा, क्योंकि पाकिस्तान जिया और हामिद गुल के रास्ते पर बहुत आगे जा चुका है और भारत नए रास्ते पर शुरुआत कर रहा है।
रोचक बात ये है कि अफगानिस्तान में अमरीका को सहायता सम्बंधी सारे फैसले पाक फौज के जनरल लेते हैं, लेकिन दिफा-ए-पाकिस्तान की रैलियों में और टीवी में होने वाली चर्चाओं में (आई.एस.आई. के लोगों द्वारा) इस सहायता के लिए सारी गालियां पाकिस्तान की सरकार को दी जाती हैं। फिर चाहे वह आसिफ अली जरदारी की सरकार हो या नवाज शरीफ की। वे चुपचाप गालियां खाने को विवश होते हैं।
23 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगााहें नई दिल्ली पर टिकी होंगी। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल आतंक और उसके पैरोकारों से बखूबी परिचित हैं। वार्ता के बिन्दुओं में क्या क्या शामिल होगा, कहने की दरकार नहीं। अजीज के सूत्र क्या होंगे, वह पूर्व के अनुभव से आसानी से समझ आता है।
भारत जिस पशुता को, जिस मजहबी उन्माद को, जिस आतंकवाद को दशकों से झेलता आ रहा है, उसकी वीभत्सता किसी से छिपी नहीं है। छिपे वे भी नहीं हैं जो इस वीभत्सता का जश्न मनाते हैं। बात करने की बात निकली है तो जाहिर है दूर तक जाएगी। वह दो टूक होगी, होनी ही चाहिए।
प्रशांत बाजपेई
कम लोग होते हैं जिनकी जिन्दगी किसी देश की कहानी बयान कर सके। फिर पाकिस्तान की कहानी तो बेहद नाटकीय है। चंद नाम, जो दुनिया में इस्लाम के नाम पर बनाए गए इस इकलौते देश की कहानी कहते हैं, उनमें से एक हैं बैरिस्टर जिन्ना, उस दुर्घटना के गवाह और उस एकतरफा मुकदमे के वकील, जिसकी बदौलत पाकिस्तान बना। जिन्ना ने वकील की तरह पाकिस्तान का केस लड़ा। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि केस जीतने के बाद मुवक्किल का क्या होगा। फिर हैं जनरल अयूब खान, जो उस फौजी तानाशाह परम्परा के संस्थापक, जो पाकिस्तान की पहचान बनी। जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान की इस्लाम, जातिवाद और अवसरवाद के बीच झूलती उस राजनीति के कहानीकार हैं, जिसकी पनाह में सिर्फ भ्रष्टाचार पनप सका। जिया उल हक ने पाकिस्तान के समाज को शरिया की धार पर रखकर पाकिस्तान को जिहादी समाज की पहचान दिलाई। अफगान जिहाद के नाम पर जिया ने पाकिस्तान को भाड़े का हत्यारा बनाया और लोकतंत्र की मांग को दबाने के लिए इस्लाम की आड़ ली। आखिरकार, जिया के सपने को हकीकत में बदलकर पाकिस्तान को वैश्विक जिहाद की धुरी बनाया हामिद गुल ने। हालांकि इस काम को हामिद गुल ने अकेले अंजाम नहीं दिया था। लेकिन यह वह आदमी था जिसने जिहादी आतंक के लिए मुजाहिदीन और विचार दोनों गढ़े। जो पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति और आतंक निर्यात, दोनों जगह निर्णायक दखल देता रहा। आई.एस.आई. से आधिकारिक रूप से अलग होने के दो दशक बाद भी अफगान जिहाद पर पाकिस्तान के खुफिया दिमाग जिसका लोहा मानते रहे और उसकी सलाहों पर अमल करते रहे। आई.एस.आई. का पूर्व प्रमुख, जो आतंक को पोषित करने वाली इस संस्था से कभी रिटायर नहीं हुआ। 15 अगस्त की देर रात हामिद गुल की शिरोघात से मौत हो गई। दुनियाभर में जानकारों ने इसे आतंक के आका की मौत के रूप में देखा तो पाकिस्तान में मिश्रित प्रतिक्रियाएं थीं। कुछ खुले दिमाग पाकिस्तानियों के लिए ये उस खुरापाती का अंत था जो पाकिस्तान को तबाही के रास्ते ले गया। तो ज्यादातर पाकिस्तानियों की नजर में ये उनके 'मुल्क का दिफा' (सुरक्षा) करने वाले बहादुर फौजी की विदाई थी।
विकीलीक्स ने पाकिस्तान से सम्बंधित जो खुलासे किए हैं, उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण खुलासा हामिद गुल के बारे में है। ये खुलासे अमरीका और नाटो देशों के लिए तो महत्वपूर्ण हैं ही, भारत के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण हैं, जो पाकिस्तान की जमीन से चलाए जा रहे आतंकी अभियान का शिकार है। ये भारत के उन तथाकथित बुद्धिजीवियों और अमन-पसंदों के लिए भी सबक हो सकते हैं, जो चाहते हैं कि भारत-पाकिस्तान सम्बंधों में भारत को हर हाल में नरम रवैया अपनाए रखना चाहिए। ये खुलासे पाकिस्तान के उस आंतरिक शक्ति संतुलन के बारे में बताते हैं जिसके आधार पर पाकिस्तान की विदेश नीति तय होती है। ये खुलासे पाकिस्तानी वार्ताकारों के कानों में गुनगुनाए जाने वाले असली सुरों और उन्हें नचाने वाली ऊंगलियों की लिखावट की पहचान करवाते हैं। 2010 के विकिलीक्स के इस दस्तावेज में हामिद गुल की पाकिस्तान के भूमिगत फौजी नेटवर्क के ऐसे चेहरे के रूप में शिनाख्त की गई थी, जो अफगानिस्तान को जिहाद की लपटों में झोंक रहा था। गौरतलब है कि गुल 1989 में आई.एस.आई. से हट चुके थे, और 1991 में फौज से भी सेवानिवृत्त हो चुके थे। लेकिन अमरीकी खुफिया रपट के अनुसार गुल अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा नाटो सेनाओं पर किए जा रहे हमलों में सीधे तौर पर शामिल थे। दिसंबर, 2006 में पाकिस्तान के नौशेरा में गुल की तालिबान के शीर्ष नेताओं के साथ बैठक हुई। इस मुलाकात में गुल ने तालिबान से कहा कि उन्होंने तीन जिहादियों को ईद के दौरान बम धमाके करने के लिए काबुल भेजा है। उन्होंने दो आतंकियों को उन सड़कों पर आईईडी लगाने का काम सौंपा था, जिन सड़कों का इस्तेमाल अफगानी सुरक्षा बल अक्सर करते हैं। तीसरा हमलावर अफगान सैनिकों और नाटो बलों के विरुद्ध आत्मघाती धमाका करने के लिए तैयार किया गया था। हामिद गुल का निर्देश था -'काबुल में बर्फ को गर्म बनाए रखो।' दरअसल, गुल पाक के उस खाकी 'एस्टब्लिशमेंट' के दिमाग का हिस्सा थे, जो किसी भी हालत में पाकिस्तान पर अपनी पकड़ ढीली करने को तैयार नहीं है।
यह तंत्र पाकिस्तान की विदेश नीति, विशेष रूप से भारत और अफगानिस्तान नीति पर सारे महत्वपूर्ण निर्णय लेता है। अमरीकी रणनीतिकार पाकिस्तान से बात करते समय इस तंत्र से अलग से बात करते हैं और पाकिस्तान सरकार से ज्यादा वजन भी देते हैं। इसी तंत्र के आजीवन प्रतिनिधि थे लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल।
गुल के कार्यकलाप पाकिस्तान के सर्वशक्तिमान सैन्य संस्थान के दिमाग की कार्यप्रणाली की झलक देते हैं।
जनवरी, 2008 में गुल ने तालिबान को उच्च स्तरीय संयुक्त राष्ट्र अधिकारियों के अपहरण का आदेश दिया था, ताकि बदले में 'अपने लोगों' की रिहाई करवाई जा सके। नकीबुल्लाह नामक तालिबानी गिरोह की कमान उनके हाथों में थी। यह तंजीम उन वाहनों को निशाना बनाती थी जिनमें संयुक्त राष्ट्र दल के महत्वपूर्ण लोग हुआ करते थे। तालिबान द्वारा हामिद गुल से आदेश लेकर हमले करने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। हामिद गुल ने ही आई.एस.आई. के डी.जी. रहते हुए तालिबान को खड़ा किया था। तालिबान आई.एस.आई. के भाड़े के लड़ाके थे, जिनको अफगानिस्तान पर पाकिस्तान की मजबूत पकड़ बनाने के लिए तैयार किया गया था। अंतिम सांस तक गुल उनके मार्गदर्शक थे और तालिबान उनके आज्ञाकारी चेले। खुफिया जानकारी के अनुसार 5 जनवरी, 2009 को अमरीकी ड्रोन हमलों में मारे जा रहे तालिबानियों का बदला लेने की रणनीति बनाने के लिए एक बैठक हुई। इस जमावड़े में आई.एस.आई. की तरफ से हामिद गुल मौजूद थे। उनके अलावा 'तीन अधेड़ अरब, जिनके साथ 20 सशस्त्र अंगरक्षक थे' मौजूद थे।
गुल ने तालिबानियों को प्रोत्साहित करते हुए कहा कि पाकिस्तान के सुरक्षा बल पाकिस्तान में मौजूद तालिबानी लड़ाकों को कोई चोट नहीं पहुंचाने वाले, इसलिए उन्हें अफगानिस्तान पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। गुल ने अल-कायदा के लड़ाकों को दक्षिण वजीरिस्तान के उन ठिकानों के बारे में भी बताया जहां से ड्रोन उड़ान भर रहे थे।
वर्ष 2008 के आखिर में अमरीका ने जिन चार आई.एस.आई. अधिकारियों को आतंकी घोषित करने के लिए कदम बढ़ाया था, हामिद गुल उनमें से एक थे। बाद में गुल पर बेनजीर भुट्टो की हत्या करवाने का आरोप भी लगा। विकिलीक्स के इस खुलासे में गौर करने की बात यह है कि 2001 के बाद से पाकिस्तान अमरीका द्वारा अफगानिस्तान एवं उत्तरी-पश्चिमी पाकिस्तान के इलाकों में चलाए जा रहे 'वॉर ऑन टेरर' का सहयोगी रहा है। अमरीकियों की खुफिया निशानदेही पर पाक फौज तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ तथाकथित कार्रवाई भी करती रही है, लेकिन हामिद गुल पर ये खुलासे पाकिस्तान की आतंकवाद के विरुद्ध 'प्रतिबद्धता' की कलई खोलते हैं।
आई.एस.आई. के ये सेवानिवृत्त प्रमुख जिन्दगीभर भारत को भी छलनी करते रहे। पहले आई.एस.आई. प्रमुख की वर्दी में और बाद में बिना वर्दी के। कश्मीरी आतंकियों और हाफिज सईद से उनकी दांत-काटी दोस्ती थी। हाफिज सईद उसका एहसानमंद था। जकीउर रहमान लखवी और मौलाना अजहर मसूद उनके सामने पानी भरते थे। लश्कर-ए-तोयबा के गिरफ्तार आतंकी अब्दुल करीम टुंडा ने पूछताछ में बताया था कि पाकिस्तान से हामिद गुल उसके 'हैंडलर' थे। टुंडा भारत के शीर्ष बीस वांछित आतंकवादियों में से एक था। वह 1993 के मुंबई बम धमाकों में शामिल था, जिहादियों को बम बनाने का प्रशिक्षण देता था। 1994 के छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस बम धमाके, जिसमें 19 जानें गई थीं, में उसका नाम सामने आया था। 1997 में पंजाबी बाग, दिल्ली के बम धमाके को अंजाम देने के अलावा उसने 2010 में राष्ट्रमण्डल खेलों के ठीक पहले दिल्ली में सिलसिलेवार बम धमाके करवाने की भी कोशिश की थी। कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद को भड़काने में भी हामिद गुल का बेहद महत्वपूर्ण किरदार था। कहा जाता है कि एक बार पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने जब हामिद गुल से खालिस्तानी आतंकियों को आई.एस.आई. द्वारा सहायता दिए जाने के बारे में चर्चा की तो गुल ने कहा कि खालिस्तान में आतंकियों को मदद करना पाकिस्तानी फौज की एक अतिरिक्त टुकड़ी खड़ी करने जैसा है, वह भी बिना किसी खर्चे के।
पाकिस्तान की राजनीति को आई.एस.आई. परदे के पीछे से संचालित करती आई है। 1988 में आई.एस.आई. प्रमुख हामिद गुल ने प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के पर कतरने के लिए पाकिस्तान की मजहबी और सियासी दलों को इकट्ठा कर 'इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद' नामक गठबंधन बनाया। इस गठबंधन में पाकिस्तान मुस्लिम लीग, नेशनल पीपल्स पार्टी और जमात-ए-इस्लामी भी शामिल थी। गठबंधन के नेता थे पंजाब के नवाज शरीफ। इस तरह फौज के इशारे पर हामिद गुल ने पाकिस्तान की राजनीति में सिंध के एकतरफा दबदबे को खत्म किया। वर्दी उतारने के बाद हामिद गुल ने एक बार फिर फौज की जरूरतों के हिसाब से पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति और इस्लामिक संस्थाओं को साधना शुरू किया। साथ ही उस समय के अफगानिस्तान के तालिबानी शासन का हमराज और हमनिवाला भी बना रहा। शाहिद हुसैन की किताब 'फ्रंटलाइन पाकिस्तान' के अनुसार 9 जनवरी, 2001 को पेशावर में दारुल उलूम हक्कानिया नाम से इस्लामिक कान्फ्रेंस हुई, जिसमें विभिन्न इस्लामी संस्थाओं के 300 प्रतिनिधियों समेत हामिद गुल और पूर्व सेना प्रमुख मिर्जा असलम बेग ने भी हिस्सा लिया था। घोषणा की गई कि 'अफगानिस्तान के इस्लामिक अमीरात' (तालिबानी शासन) और महान इस्लामी योद्धा ओसामा बिन लादेन की हिफाजत करना सारी दुनिया के मुसलमानों का मजहबी फर्ज है। जब अमरीका में ट्विन टावर्स पर हमला हुआ तो उस हमले को 'मुसलमानों को बदनाम कर मुस्लिम जगत पर हमला करने के लिए सी.आई.ए. द्वारा रची गई साजिश' बताया। आने वाले वर्षों में हामिद गुल की कोशिशों से चालीस मजहबी और सियासी संगठनों का गठबंधन 'दिफा-ए-पाकिस्तान काउन्सिल' अस्तित्व में आया। इन चालीस संगठनों में हाफिज सईद का जमात-उद -दावा, शियाओं की हत्या करने वाला आतंकी संगठन सिपह-ए-सहाबा, हरकत-उल-मुजाहिदीन, तहरीक-ए-आजादी कश्मीर, पाकिस्तान वॉटर मूवमेंट वगैरह शामिल थे।
दिफा-ए-पाकिस्तान की मांगों में अफगानिस्तान में लड़ रही नाटो सेनाओं की रसद आपूर्ति बंद करने, आतंकी ठिकानों पर ड्रोन हमलों को रोकने और पाकिस्तान सरकार द्वारा भारत को दिए गए 'मोस्ट फेवर्ड नेशन' के दर्जे को वापस लिए जाना शामिल है।
9/11 के हमले के तार आकर पाकिस्तान से जुड़े। सी.आई.ए. को पता लगा कि कोलकाता के एक हीरा व्यापारी का अपहरण किया गया था और फिरौती में करोड़ों रुपए वसूले गए थे। इस राशि में से 90 लाख रुपए तत्कालीन आई.एस.आई. प्रमुख के कहने पर अपहृत विमानों को ट्विन टावर्स से टकराने वालों में से एक मुहम्मद अट्टा तक पहुंचाए गए थे। दूसरे और कई सबूत पाकिस्तान के शामिल होने की पुष्टि कर रहे थे। प्रकट रूप से अमरीका ने कुछ नहीं कहा, लेकिन अकेले में तानाशाह और सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ समेत पाक फौज के शीर्ष अधिकारियों को धमकाया कि या तो वे तालिबान और लादेन के सफाया करने में अमरीका का साथ दें अन्यथा पाकिस्तान को पाषाण युग में ले जाने के लिए तैयार हो जाएं। खाकी वालों को मजबूरी में हामी भरनी पड़ी। लेकिन जैसा कि बाद में रहस्योद्घाटन हुआ कि अफगानिस्तान में हमले शुरू होने के पहले ही पाक फौज ने तालिबानियों को सुरक्षित पाकिस्तान पहुंचाना शुरू कर दिया था। मुजाहिदीनों की इस भीड़ को साधने वालों में हामिद गुल का नाम भी प्रमुख था।
हामिद गुल द्वारा समय-समय पर बनाए गए मजहबी जमावड़ों और 'दिफा-ए-पाकिस्तान' जैसे संगठनों का पाक फौज और आई.एस.आई. की रणनीति में बहुत तगड़ा महत्व है। ये संगठन अफगानिस्तान में लड़ रहे अमरीका को, पाकिस्तान जिसका 'गठबंधन सहयोगी' है, ब्लैकमेल करने के काम आते रहे हैं। इन्हीं संगठनों के माध्यम से पाक फौज और आई.एस.आई. ने अमरीकी दबावों और अपनी मांगों के बीच संतुलन बिठाया है। जब फौज को अमरीकियों पर कोई दबाव बनाना होता है या पैसे ऐंठने होते हैं, तो ये संगठन पाकिस्तान में तूफान खड़ा करने लगते हैं कि ड्रोन हमले बंद किए जाएं, काफिर अमरीकियों से सम्बंध तोड़ लिए जाएं। ऐसे समय हामिद गुल को भी कहते सुना जा सकता था कि 'अमरीकियों के महंगे हथियार और इंस्ट्रूमेंट अफगानिस्तान में पड़े हुए हैं, पाकिस्तान के रास्ते ही यदि वे इन्हें बाहर ले जाते हैं, तो उन्हें 6़5 अरब डॉलर का खर्चा आने वाला है, और इनके पास और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इसलिए इनकी कोई मांग नहीं माननी चाहिए।' जब पाकिस्तान में ये तमाशा शुरू होता है, अमरीकी समझ जाते हैं कि पाकिस्तान को रिश्वत की नई खेप देने का समय आ गया है। पाकिस्तानी फौज और अमरीकी रणनीतिकारों के बीच ये खेल पिछले 15 वर्षों से जारी है।
हामिद गुल ने आई.एस.आई. प्रेरित जिहाद की एक व्याख्या तैयार की। इस व्याख्या के अनुसार 'अफगानिस्तान में विश्व की एक महान शक्ति सोवियत रूस द्वारा मुसलमानों पर जुल्म किया जा रहा था। उस समय आई.एस.आई. ने अफगान प्रतिरोध खड़ा करके सोवियत रूस को इस बुरी तरह पराजित किया कि वह अफगानिस्तान में तो हारा ही, उसके स्वयं के भी टुकड़े-टुकड़े हो गए। अब अमरीका उम्मा के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने के लिए अफगानिस्तान में घुसा है और इस लड़ाई में परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान के साथ गद्दारी करके अमरीका का साथ दिया था, लेकिन अमरीकियों को सबक सीखा दिया जाएगा।' आपको यह कपोल-कल्पित और हास्यास्पद प्रलाप लग सकता है, लेकिन पाकिस्तान के अंदर यह व्याख्या अमरीका समेत सभी काफिरों के खिलाफ जबरदस्त उन्माद पैदा करती है। रोचक बात यह है कि अफगानिस्तान में अमरीका को सहायता सम्बंधी सारे फैसले पाक फौज के जनरल लेते हैं, लेकिन 'दिफा-ए-पाकिस्तान' की रैलियों में और टी.वी. में होने वाली चर्चाओं में (आई.एस.आई. के लोगों द्वारा) इस सहायता के लिए सारी गालियां पाकिस्तान की सरकार को दी जाती हैं। फिर वह चाहे आसिफ अली जरदारी की सरकार हो या नवाज शरीफ की। वे चुपचाप गालियां खाने को विवश होते हैं। यह रणनीति अमरीका जैसे बेहद शक्तिशाली सैन्य 'विरोधी' और मोटे आसामी के साथ काफी असरदार रही है। भारत के सम्बंध में सेना इतनी कसरत नहीं करती। पाकिस्तानी राजनयिक और राजनेता अपनी सीमाएं जानते हैं। वे खींची गईं लकीरों से आगे नहीं जाते। हामिद गुल का जाना आई.एस.आई. और फौज के लिए बड़ी क्षति है, लेकिन इससे पाकिस्तानी नीतियों के खाकी रंग में कोई बदलाव नहीं आने वाला। कूटनीतिक वार्ताओं के माध्यम से या उन वार्ताओं को रोककर सन्देश दिए जा सकते हैं, दिए जाने चाहिए, परन्तु परिणाम निर्भर करेंगे कि हम दक्षेस में किस प्रकार आगे बढ़ते हैं और 'शंघाई कॉपरेशन अर्गनाइजेशन' में कैसी भूमिका निभाते हैं। परिणाम निर्भर करेंगे इस बात पर, कि हम पाकिस्तान के पिछले द्वारों पर किस प्रकार दस्तक देते हैं। अपनी सभी विदेश यात्राओं में प्रधानमंत्री ने आतंकवाद के मुद्दे को जिस प्रमुखता से उठाया है, आने वाले समय में उसके सुपरिणाम की आशा की जा सकती है। तैयारी हर प्रकार की चाहिए। आखिरकार वार्ता की मेज पर ताकत ही तौली जाती है। इसमें लंबा समय लगेगा, क्योंकि पाकिस्तान जिया और हामिद गुल के रास्ते पर बहुत आगे जा चुका है और भारत नए रास्ते पर शुरुआत कर रहा है।
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