इतिहास दृष्टि - भटकाव के 68 वर्ष : कुछ मुद्दे
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इतिहास दृष्टि – भटकाव के 68 वर्ष : कुछ मुद्दे

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Aug 14, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 14 Aug 2015 12:44:19

15 अगस्त 1947 ई. को क्रांतिकारियों के एक लंबे संघर्ष के पश्चात, मजहबी आधार पर पाकिस्तान का निर्माण कर भारत को अधूरी स्वतंत्रता मिली। इससे भारत की सामान्य जनता तथा विशेषकर देश के नवयुवकों को न 'स्व' का बोध हुआ न स्वाभिमान का जागरण और न ही स्वतंत्रता की अनुभूति ही। देश के प्रमुख नेताओं डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. बी.आर. आम्बेडकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, वीर सावरकर, पुरुषोत्तमदास टण्डन तथा प्रसिद्ध इतिहासकार राधाकुमुद मुखर्जी ने अपने ग्रंथों तथा भाषणों में विभाजन से संभावित दुष्परिणामों से सावधान तथा गंभीर परिणामों की चेतावनियां दीं। देश की दुर्दशा उससे भी कई गुना अधिक हुई। देश का नेतृत्व पंगु, थका, बूढ़ा तथा ठहरा सा था, परंतु राजनेता सत्ता की दौड़ में छह महीने भी प्रतीक्षा करने को तैयार न थे। यह आंशिक स्वतंत्रता ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों की बांटो और राज करो की नीति, मोहम्मद अली जिन्ना की मजहब के आधार पर पाकिस्तान मांग की जिद तथा पं. जवाहरलाल नेहरू की राजसत्ता प्राप्त कर विश्व नेता बनने की महत्वाकांक्षा की सफलता थी। 68 वर्षों (1947-2015 ई.) के इस लंबे शासनकाल में कुछ वर्षों के अपवाद के अतिरिक्त भारत में कांग्रेस का राज रहा। राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अनिश्चितता अकर्मण्यता, अलगाव तथा अराजकता तीव्रता से बढ़ती गई। अधकचरी स्वतंत्रता के साथ शुरू  हुआ अमानुषिक खूनी उत्तराधिकार का युद्ध, पाश्चात्य मॉडल पर संविधान की रचना, स्थायित्व तथा स्वावलंबन के स्थान पर घिनौनी मुस्लिम तुष्टीकरण तथा वोट बैंक की क्षुद्र राजनीति, शिक्षा, साहित्य, भाषा की घोर उपेक्षा तथा देश की आंतरिक तथा बाहरी असुरक्षा इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
विभाजन की पीड़ा
विभाजन के साथ कठिनाइयों तथा कष्टों की त्रासदी प्रारंभ हुई। तत्कालीन राजनेताओं की आशाओं और कोरी कल्पनाओं के विपरीत प्रारंभ हुआ भयंकर तथा वीभत्स साम्प्रदायिक दंगों का दौर, विस्थापितों के आवास तथा रोजगार की विकट समस्या, जर्जरित तथा असंतुलित अर्थव्यवस्था, सतत् असुरक्षा, राजनीतिक अस्थिरता, पाकिस्तान से स्थायी दुश्मनी, विभाजन की अनेक पीड़ाएं जिनसे भारत पिछले 68 वर्षों से आज भी जूझ रहा है। विश्व के इतिहास में इतनी विशाल जनसंख्या की अदला-बदली एक कल्पनातीत तथा वीभत्स प्रयोग था। विश्व में इससे पूर्व कहीं भी, कभी भी इतनी बड़ी अदला-बदली जनसंख्या की न हुई थी (होरेक अलक्जैण्डर, न्यू सिटीजन ऑफ इंडिया, पृ. 4) लावसाने की 1923 की संधि में प्रथम बार ग्रीक, बल्गेरिया तथा टर्की में जनसंख्या की अदला-बदली हुई थी जो अधिक से अधिक एक लाख पच्चीस हजार थी तथा उसे अट्ठारह महीने की अवधि दी गई थी। भारत में यह जनसंख्या एक करोड़ बीस लाख से अधिक थी जिसे केवल तीन महीने (अगस्त-अक्तूबर) की अवधि में पूरा करना था। प्रसिद्ध इतिहासकार माइकेल ब्रीचर ने इसे उत्तराधिकार का युद्ध (देखें नेहरू: ए पॉलिटिकल बायोग्राफी पृ. 318-19) तथा इयान स्टीफन ने इसे गृहयुद्ध माना है (देखें, पाकिस्तान, पृ. 80)
इस खूनी तथा भयंकर उत्तराधिकार की लड़ाई में दोनों ओर से दस लाख व्यक्ति मारे गये। लगभग एक लाख महिलाओं का अपहरण हुआ। लॉर्ड माउंटबेटन ने इन आंकड़ों को छिपाते हुए कुल दो लाख व्यक्तियों के मारे जाने की बात की तथा अहंकार तथा साम्राज्यवादी भाषा में भारत की तत्कालीन 40 करोड़ की आबादी में इसे केवल 0.001 प्रतिशत अर्थात नगण्य बतलाया। परंतु देश विदेश के अनेक विद्वानों ने इसका आंखों देखा वर्णन किया है।
भयंकर हिंसा, लूटमार, जबरन कन्वर्जन तथा महिलाओं से बलात्कारों ने सभ्यता की निम्नतम हदें भी पार कर दीं। (देखें, सत्या एम राय, पार्टिशन ऑफ पंजाब, पृ. 27) हिंसा पाकिस्तान के निर्माण का एक आवश्यक कारण मानी जाने लगी। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार उपरोक्त तीन महीनों में 673 रेस्क्यू रेलों से 28 लाख भारतीय पहुंचे। सामान्यत: इन रेलों में 3000-4000 व्यक्ति होते थे जिसमें लगभग 300 लाशें तथा 1000 घायल होते थे। (ल्योनर्ड मोसले, द लास्ट डेज ऑफ द ब्रिटिश रूल, पृ. 243) इन दिनों में रेलों में यौन शोषण तथा बलात्कार की घटनाएं होती रहीं (जी.डी. खोसला, स्टर्न रेककोनिंग पृ. 164-169) यह एक प्रकार से लाशों से भरी ट्रेन भेजने की पागलपन की प्रतिद्वन्द्विता थी। लाखों लोग काफिलों में पैदल, बैलगाडि़यों, ट्रकों पर, लूटते पिटते, सतत् मौत के साये में आगे बढ़े।
वस्तुत: देश का नेतृत्व भटका हुआ तथा दिशाहीन था। गांधीजी मजबूर थे तथा उन्होंने कहा था देश भयभीत है, भारत का भविष्य अंधकारमय है और प्रार्थना सभा में यह भी इच्छा व्यक्त की कि मेरे जीवित रहते मुझे उसका साक्षी न बनायें (देखें, कलैक्टेड वर्क्स, भाग छश्ककक, पृ. 50-51) पं. नेहरू के सभी अनुमान गलत साबित हुए, न खूनखराबा कम हुआ न गृहयुद्ध से बच सके। जनरल करिअप्पा को एक पत्र में उन्होंने लिखा आज बंटे हैं कल मिलने के लिए। एन.डी. गाडगिल ने लिखा, पंडित नेहरू स्वयं थका हुआ मान रहे थे, बूढ़े हो गये पर सत्ता की भूख बढ़ गई थी। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा मौलाना आजाद पहले ही विभाजन के विरोधी थे।' अनेक नेताओं ने अब राजनीति को अपना व्यवसाय बना लिया। भटकाव की राजनीति बढ़ी, क्योंकि राजनीति में सेवा, त्याग, समर्पण के स्थान पर अपराधीकरण, भ्रष्टाचार तथा अवसरवादिता बढ़ी। विभाजन के विरोधी प्रभावहीन हो गये तथा राजसत्ता के भूखे देश के मार्गदर्शक बन गए।
संस्कृतिविहीन संविधान
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में लॉर्ड माउंटबेटन पहले गवर्नर जनरल के रूप में लगभग दस महीनों (19 अगस्त 1947 से 30 जून 1948) तक रहे उसकी उपस्थिति भारत विरोधी रही। 14 अगस्त को ही पाकिस्तान बनने पर माउंटबेटन को सर्वदा के लिए विदाई दे दी गई। ब्रिटिश सरकार ने भारत को दी गई स्वतंत्रता को 'सत्ता का हस्तांतरण' कहा तथा एक सोने की थाली में भारत को दिया गया एक सुंदर तोहफा कहा। बिना किसी देशव्यापी चुनाव या जनमत संग्रह के वे भारत की राजसत्ता मनमाने ढंग से कांग्रेस को सौंप गये। पं. नेहरू ने भी माउंटबेटन के वक्तव्यों, आदेशों का श्रद्धापूर्वक पालन किया। नि:संदेह यदि माउंटबेटन को भारत का गवर्नर जनरल स्वीकार न किया जाता तो भारत की स्थिति भिन्न होती।
26 जनवरी 1950 ई. को भारत का संविधान लागू हुआ। इससे पूर्व संविधान सभा का गठन तथा निर्माण प्रक्रिया 16 मई 1946 से ब्रिटिश कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत की गई थी (मैनसर एवं निकोलसन, द ट्रांसफर ऑफ पावर, भाग सात, पृ. 582-91) भारतीय संविधान सभा की कार्यवाही 9 दिसम्बर 1946 से 26 नवम्बर 1949 तक चली। संविधान सभा के सदस्यों के लिए न कोई चुनाव हुए और न ही नेहरू इसके पक्ष में थे। अत: यह 13 प्रतिशत मतदाताओं के प्रतिनिधित्व से बनी थी। इसे ब्रिटिश सरकार के 1935 के अधिनियमों तथा विश्व के प्रमुख देशों के संविधानों- आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमरीका, आयरलैण्ड तथा कनाडा के अध्ययन के आधार पर बनाया गया था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीशों तथा विद्वानों का मत है कि भारतीय संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भारत के अतीत, भारतीय संस्कृति तथा परंपरा के अनुकूल हो। मुख्य न्यायाधीश बी.पी. सिन्हा ने इसे दासत्व की प्रति कहा (देखें, द ट्रिब्यून, 15 अगस्त 1966) भारतीय संविधान सभा में श्री अनंत शयनम आयंगर ने इसे पेचवर्क श्री हनुमंतथैय्या ने वीणा या सितार की बजाय इंग्लैण्ड का बैंड संगीत, एच वी कामथ ने कहा, हमने अतीत से कुछ भी नहीं लिया। श्री दीनदयाल उपाध्याय ने कहा, इस संविधान का पुरस्कार करें या तिरस्कार या बहिष्कार। श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे हड़बड़ी में बना संविधान कहा था, अमरीका के एक विद्वान ने कहा था, यह संविधान उपनिषदों, रामायण तथा महाभारत के देश में सोचा नहीं जा सकता (देखें, सर थियोडोर, द लीगेसी ऑफ लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक)। माइकल ब्रीचर ने इस संविधान में भारतीय चिंतन का पूर्ण अभाव माना है सामान्यत: इसे पाश्चात्य संविधानों की नकल मात्र माना जाता है जिसकी जड़ें भारत की संस्कृति, इतिहास, दर्शन तथा परंपरा में नहीं है। भारतीय संविधान को 'इंडिया दैट इज भारत' का नाम दिया। संविधान में उद्देशिका, इसके नामकरण, नागरिकता, मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निदेशक तत्व आदि पर गहरे मतभेद तथा विवाद उभर कर सामने आये। ग्रामीण समुदाय तथा ग्रामीण पंचायतों पर गंभीर प्रश्न उठाये गये। राष्ट्रभाषा, राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रीय गीत पर विशद् चर्चा हुई, संविधान की धारा 570 के अविवेकपूर्ण अनुच्छेद को विघटनकारी कहा गया पर उसे पूर्णत: अस्थायी कहकर पारित किया गया। इस काल में संविधान में संशोधन, परिवर्तन तथा नवीन अनुच्छेदों के लिए समय-समय पर सात आयोग या समितियां बनाई गई तथा 100 से अधिक संशोधन परिवर्तन भी किये। विद्वानों ने तथा संविधान विशेषज्ञों ने इसकी कटु आलोचना करते हुए इसे न ही गांधीवादी, न आंबेडकरवादी बल्कि नेहरूवादी बताया तथा सांस्कृतिक आधार पर समूल ढांचे में परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया।
दिशा भ्रमित शिक्षा नीति

शैक्षणिक जगत में विश्व में भारत का प्राचीन काल से वर्चस्व रहा है। भारतीय शिक्षण चिंतन का आधार धर्म, आध्यात्मिक, संस्कृति अथवा नैतिक जीवन मूल्यों का संरक्षण तथा संवर्द्धन रहा है। पठानों तथा मुगलों से अनेक संघर्षों तथा कष्टों के बाद भी भारतीय विद्यालयों तथा विद्या केन्द्रों में जीवन मूल्यपरक शिक्षा अक्षुण्ण बनी रही। ब्रिटिश परतंत्रता के काल में भी स्वामी श्रद्धानंद, मदनमोहन मालवीय, स्वामी विवेकानंद तथा भगिनी निवेदिता, महर्षि अरविंद तथा महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा महात्मा गांधी द्वारा जीवन मूल्यपरक शिक्षा के अद्भुत प्रयास चलते रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात शिक्षा का स्वरूप पाश्चात्य अथवा यूरोपीय मॉडल पर आधारित रहा। शिक्षा में भटकाव व दुर्लक्ष्य हुआ तथा आत्मविस्मृति को स्थान मिला। शिक्षा में भौतिकवाद तथा पाश्चात्य अंधानुकरण को बढ़ावा मिला। शिक्षा राजनीति की दासी हो गई। यह औपनिवेशिक परंपरा की अनुगामी हो गई। शिक्षा का व्यापारीकरण, व्यावसायीकरण तथा बाजारीकरण हुआ। परिणामस्वरूप अनेक कुरीतियों, नैतिकहीनता, चारित्रिक पतन तथा सांस्कृतिक ह्रास तेजी से हुआ।
शिक्षा को पुन: जीवन मूल्यपरक बनाने के प्रयास भी हुए। महात्मा गांधी तथा प्रो. डी.एस. कोठारी के प्रयास स्तुत्य हैं। शिक्षा संबंधी अनेक आयोग भी नियुक्त हुए पर इन आयोगों के सुझावों की ओर किंचित भी ध्यान न दिया गया। प्राथमिक शिक्षा से विश्वविद्यालयी शिक्षा में संख्यात्मक बढ़ोतरी हुई, परंतु गुणात्मक दृष्टि से शिक्षा का स्तर तेजी से गिरा। विदेशी विश्वविद्यालयों के द्वारा शिक्षा को आयतित करने तथा शिक्षा के अधिकार का नियम भी बना। परंतु क्रियान्वयन गति के कारण शिक्षा अपने उद्देश्य में सफल न हुई। तुलनात्मक दृष्टि से भारतीय विद्यालय तथा विश्वविद्यालय, विश्व के समक्ष अभी तक ठहरने में असफल रहे हैं।
भाषा की दृष्टि से भारत की स्थिति भटकाव की बनी रही। विश्व की जननी संस्कृत भाषा की घोर उपेक्षा की गई तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद की भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व पुन: स्थापित हुआ। लार्ड मैकाले के समय से संस्कृत की जो उपेक्षा तथा भ्रर्त्सना की गई वह आज भी बनी हुई है। 1960 ई. से संस्कृत का निष्कासन तेजी से हुआ। यही दुर्गति हिन्दी तथा भारत की प्रादेशिक भाषाओं की हुई। भारतीय संविधान में हिन्दी को उचित स्थान नहीं दिया गया। स्वतंत्रता के पश्चात निर्धारित पाठ्यक्रमों में आमूलचूल परिवर्तन किये गये। इसे सोवियत-नेहरू मॉडल पर गढ़ा गया। विशेषकर भाषा तथा इतिहास की पुस्तकें सरकारी सोच के अनुरूप लिखी गईं।
सुरक्षा युद्ध
सामरिक दृष्टि से भारत की वीर सेनाएं सदैव ही गौरवशाली वीरता, शौर्य तथा पराक्रम के लिए प्रसिद्ध रही हैं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी भारतीय सेनाओं का विशेष योगदान रहा है। सेना के भारतीयकरण की मांग, आजाद हिन्द फौज के अदभुत प्रयास, वायुसेना तथा नौसेना की भूमिका इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत ने अपनी वीर परंपरा को सतत् बनाये रखा। नि:संदेह प्रत्येक युद्ध में भारत की सेनाओं ने अदभुत सैनिक कौशल दिखलाया है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद कश्मीर के प्रति भारत सरकार की उदासीनता तथा अक्षम्य भूलों के पश्चात भी भारतीय सेनाओं ने पाकिस्तान के आक्रमण के पश्चात भी, शीध्र ही उनकी सेनाओं को बारामूला तक खदेड़ दिया था, परंतु भारत सरकार के अचानक युद्ध विराम की घोषणा से युद्ध रोकना पड़ा तथा परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग भारत सरकार की मूर्खता तथा अदूरदर्शिता के कारण पाकिस्तान के कब्जे में रह गया। 1962 ई. में भारत को साम्यवादी चीन की विस्तारवादी नीति का शिकार होना पड़ा, भारतीय राजनेताओं ने बिना किसी तैयारी के सेना को युद्ध में झोंक दिया। आखिर 20 अक्तूबर से 21 नवम्बर 1962 के दौरान चीन से युद्ध हुआ। नेताओं की खोखली राजनीति के कारण भारत की अपमानजनक पराजय हुई।
चीन ने लद्दाख, नेफा तथा असम के बाहरी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। 1965 ई. में पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल अयूब खां ने भारत पर आक्रमण किया। पहले कश्मीर में घुसपैठ, छापामार युद्ध नीति, अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं का बार-बार उल्लंघन हुआ। भारतीय सेनाओं ने सफलता प्राप्त की। निश्चय ही इस युद्ध में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री एक विजेता के रूप में उभरकर आये। अन्तरराष्ट्रीय दबाव के कारण ताशकंद में युद्ध विराम हुआ। भारत को कुछ जीते हुए भाग छोड़ने पड़े। इसी भांति 1971 में पश्चिमी तथा पूर्वी (वर्तमान बंगलादेश) पाकिस्तान में खूनी गृह युद्ध तथा भयंकर हत्याकांड हुआ। पश्चिमी पाकिस्तानी द्वारा भारतीय ठिकानों पर अनेक हमले हुए। भारतीय सेनाओं ने निर्णायक भूमिका अपनाई। पाकिस्तानी सेना ने भारत के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह के सम्म्ुख 90,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया। इसी भांति पाकिस्तान से चौथा युद्ध कश्मीर के कारगिल जिले तथा भारत पाक की वास्तविक नियंत्रण रेखा के निकट हुआ। धोखे से जनरल मुशर्रफ ने भारी सेना के साथ आक्रमण किया पर मुंह की खायी। कारगिल में पाकिस्तान की भारी पराजय हुई। कुल मिलाकर इन संघर्षों में भारत की सेनाओं ने हर परिस्थिति में विदेशी आक्रमणों की चुनौतियों का डटकर सामना किया परंतु भारतीय राजनीतिज्ञों ने न ही सतर्कता दिखलाई और न ही तैयारी। अत: बिखरे तथा भटके राजनीतिक नेतृत्व के कारण जहां 1962 में भारत को शर्मनाक हार देखनी पड़ी वहां भारतीय सेनाओं ने पाकिस्तान के विरुद्ध चारों युद्धों में भारी सफलता प्राप्त की।
राजनीति का इस्लामीकरण
राजनीतिक दृष्टि से भारत विश्व में कोई स्थान न बना सका। मुख्यत: गत 68 वर्षों में कांग्रेस सरकार का वर्चस्व रहा। मुसलमानों को रिझाने, लुभाने तथा अपने चुनावी वोट बैंक में मुख्य भागीदार बनाने के लिए सेकुलरिज्म, अल्पसंख्यकवाद, मिश्रित संस्कृति, मुस्लिम घुसपैठ, समान आचार संहिता का विरोध, अनेक सुविधाएं तथा आश्वासन देने से राष्ट्रहित को भुला दिया। वे न ही संविधान की मूल भावना का पालन कर सके, न ही हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव और न ही मुसलमानों के जीवन का विकास। पिछली 15 भारतीय संसदों में कांग्रेस ने अपनी राजसत्ता बनाये रखने के लिए अनेक कानूनों का मुख्य मसौदा मुसलमान नेताओं, मुल्ला मौलवियों को प्रसन्न करने का रहा। उन्होंने प्रयत्नपूर्वक भारत के मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग रखने का प्रयत्न किया।
गंभीर विचारणीय विषय है कि आखिर भारत कब चेतेगा? आशा है कि गत 68 वर्षों के राजनीतिक नेतृत्व के भटकाव, ठहराव, बिखराव तथा अलगाव के इतिहास से भारत सबक लेगा। भारतीय संविधान में संास्कृतिक आधार पर संशोधन होंगे। शिक्षा, भाषा तथा पाठ्यक्रम, राष्ट्रहित तथा मानव कल्याण के अनुरूप होंगे। भारत के राजनेता चीन की निरंतर विस्तारवादी नीति तथा पाकिस्तान के नित्य नये-नये कुचक्रों तथा षड्यंत्रों के प्रति चेतेंगे। भारत की सुरक्षा तथा विदेश नीति, विदेशों की मोहताज न होगी। मुसलमानों को मुख्यधारा से जोड़ने के प्रभावी प्रयत्न होंगे। स्वमी विवेकानंद के वाक्य स्मरण रहेंगे- हमेशा याद रखो कि प्रत्येक राष्ट्र को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी… दूसरों की सहायता की आशा न रखो।                        ल्ल

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