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हाल ही में पोर्न पर प्रतिबंध को लेकर सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया तक एक बहस खड़ी हुई। इस बहस में कई जानकारियां उभर कर आईं। साथ ही तथ्यों का अभाव और पूर्वाग्रहों का प्रभाव भी हावी रहा। इस नीली आंच पर सियासत की रोटियां भी सेंकी गईं। राजनीति के कुछ खिलाडि़यों ने ये भांप लिया था कि मतदाता के अवचेतन मन की प्रवृत्तियों को अस्त्र बनाकर कुछ निशाने साधे जा सकते हैं। कुछ पत्रकार और तथाकथित बुद्धिजीवी (जो निश्चित रूप से बुद्धि के सहारे जीवित नहीं हैं) अपनी कलम लेकर सरकार और उन संगठनों पर पिल पड़े, जिनका इस सारे मामले से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। खजुराहो के अनुपम शिल्प की तुलना पोर्न से करने जैसे हास्यास्पद प्रयास भी हुए , जिससे तुलनाकर्ताओं के 'भयंकर टाइप' के ज्ञान के बारे में पता चला। सामाजिक प्रभावों पर लगभग कोई बातचीत नहीं हुई। कुल मिलाकर 'जिम्मेदार लोग' एक सार्थक चर्चा खड़ी करने के स्थान पर उनके घोषित/अघोषित 'शत्रुओं' को अपनी कलम चुभोने में व्यस्त रहे।
पहले पोर्न संसार के सम्बन्ध में कुछ तथ्य। सबसे पहली बात है कि इंटरनेट एक अंतरराष्ट्रीय माध्यम है और इसलिए पोर्न भी एक वैश्विक घटना है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार आज चार करोड़ पोर्न वेबसाइट मौजूद हैं, जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। मतलब ये कि इनकी सूची बनाने के लिए भी कई साल चाहिए और वो सूची हमेशा अधूरी रहेगी। जिन चंद ठिकानों को आप प्रतिबंधित कर भी देंगे तो भी उत्सुक व्यक्ति के लिए असंख्य मुफ्त प्रॉक्सीज एवं वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क उपलब्ध हैं। सरल भाषा में समझें तो प्रॉक्सी अर्थात मध्यस्थ। आपने 'क' को प्रतिबंधित कर दिया तो मैं 'ख' या 'ग' के माध्यम से 'क' तक पहुंच जाऊंगा। ये बहुत आसान है और प्रॉक्सी, समझ लीजिए कि रक्तबीज है। आधुनिक स्मार्ट फोन के चलते ये पहुंच और भी आसान हो जाती है। स्मार्टफोन पर फ्री वीपीएन एप्स (वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क एप्स) उपलब्ध हैं। वीपीएन एप्स आपको बेहद आसानी से अपने मोबाइल पर दूसरे देश का इंटरनेट संचारतंत्र उपलब्ध करवा देते हैं। ऐसे में भौगोलिक प्रतिबन्ध कोई मायने नहीं रखते, और आपके देश में प्रतिबंधित साइट आपको संबंधित देश के सेवा प्रदाताओं द्वारा सहजता से उपलब्ध हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार द्वारा अपनाया गया रुख तकनीकी तौर पर उचित है कि लोगों को क्या देखना है ये उन्हें स्वयं तय करना है और सरकार का सरोकार सिर्फ चाइल्ड पोर्नोग्राफी को रोकना है। हालांकि इसमें भी कई तकनीकी बाधाएं हैं। इंटरनेट सर्विस देने वाली कंपनियों के पास इस प्रकार की रोकथाम करने के लिए कोई खास विकल्प मौजूद नहीं हैं। उनके पास वेब पतों (यूआरएल) और असीमित सब-लिंक्स के आधार पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी को फिल्टर करने के साधन नहीं हैं। इंटरनेट की महाशक्तियां जैसे फेसबुक, गूगल, ट्विटर, याहू और माइक्रोसॉफ्ट एक औद्योगिक समूह के साथ मिलकर चित्रों की छानबीन के द्वारा चाइल्ड पोर्नोग्राफी की रोकथाम करने जा रही हैं। ये कम्पनियां उन चित्रों को इंटरनेट पर अपलोड (उपलब्ध) होने से रोकेंगी, जिन्हे ब्रिटेन की इंटरनेट वॉच फाउंडेशन (आईडब्ल्यूएफ) नामक अलाभकारी संस्था चिन्हित करेगी। इसके लिए हर कंपनी इस संस्था द्वारा चिन्हित फोटोग्राफ्स का रिकॉर्ड रखेगी और हर अपलोड की जाने वाली फोटो के डिजिटल फिंगरप्रिंट का मिलान इन फोटोग्राफ्स के डिजिटल फिंगरप्रिंट्स से करेगी, लेकिन इसमें समस्या ये है कि इस तकनीक में चाइल्ड पोर्नोग्राफी से सम्बंधित उसी सामग्री को रोका जा सकेगा, जिसके बारे में पहले से जानकारी उपलब्ध है। दरअसल वेब संसार का अत्यंत चलायमान स्वभाव इस कार्य की चुनौती बना हुआ है।
इस कार्य की जटिलता का अंदाजा इस बात से लगाइये कि आईडब्ल्यूएफ के प्रयासों से प्रतिदिन चाइल्ड पोर्न से सम्बंधित 500 वेब पते नष्ट होते हैं। दक्षिण सूडान, जिम्बाब्वे, इ़क्वेडोर,अल गिनी और गिनी बिसाउ को छोड़कर सारी दुनिया में इस पर सख्त प्रतिबन्ध है। वयस्क वेबसाइट्स की कठोर निगरानी होती रहती है। फिर भी चाइल्ड पोर्न का सालाना 20 बिलियन डॉलर का काला कारोबार है। इसका कारण ये है कि ये कारोबार 'डीप वेब' के माध्यम से होता है। डीप वेब, इंटरनेट की वह सामग्री है जिसे सामान्य इंटरनेट सर्च से नहीं ढूंढा जा सकता। इसके लिए 'एन्क्रप्टिेड ईमेल और एन्क्रप्टिेड फाइल्स' का उपयोग किया जाता है। फिलहाल तो सारा जोर इस जहर को 'पॉपुलर प्लेटफॉर्म्स' पर पहुंचने से रोकने पर है। फिर यौन हिंसा से संबंधित पोर्न, पशु हिंसा पोर्न एवं एनानिमस अपलोडर्स को रोकना अगली चुनौती है। एनानिमस अपलोडर्स (पोर्न साइट्स पर सामग्री डालने वाले गुमनाम लोग) के कारण बलात्कारियों और यौन अपराधियों द्वारा अश्लील सामग्री इंटरनेट के माध्यम से बांट दी जाती है। यह चलन बढ़ता जा रहा है। लड़ाई बहुत लम्बी खिंचने वाली है। परन्तु इन बुराइयों से लड़ना तो होगा ही।
अब बात उस तथाकथित 'कल्चर ऑफ इनटॉलरेंस' की, जिस पर तथाकथित बुद्धिजीवी तबके ने आसमान सर पर उठाया और भारतीय संस्कृति की मनमानी व्याख्याएं कर डालीं।
उन्होंने कामसूत्र और खजुराहो के मंदिरों को प्राचीन भारत की पोर्नोग्राफी निरूपित किया। ऐसे लोग शायद फ्रायड या जंग को पोर्न फिल्मों के प्रथम पटकथा लेखक निरुपित कर डालें। शायद ये लोग स्त्री रोगों के निदान पर लिखी गई किताब और अश्लील साहित्य में भी फर्क न कर पाएं। बुद्धिजीविता का ये स्तर बेहद शोचनीय है। वात्स्यान का कामसूत्र समाज में स्वस्थ यौन जीवन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर लिखा गया ग्रन्थ है।
खजुराहो के अनुपम शिल्प काम से राम तक की आध्यात्मिक यात्रा करवाने वाले तीर्थ हैं। हमारी नजर खजुराहो की काममुद्राओं तक जाकर ठहर जाती है लेकिन उन मूर्तियों के चेहरे नहीं देख पाती। उन मूर्तियों के मुख पर एक आध्यात्मिक शांति छिटकी हुई है। फिर जब आप मंदिर के अंदर प्रवेश करते हैं तो वहां पर पाते हैं शिव और शक्ति का प्रतीक। बनाने वालों का हेतु साफ है कि काम रचनात्मक होकर आत्मबल में परिवर्तित हो जाए। क्या इस भारतीय दृष्टि की तुलना पोर्न से की जा सकती है? वातस्यायन का कामसूत्र सृजनात्मक काम और संतुष्ट समाज की देन है जबकि पोर्न समाज की यौन कुंठाओं की अभिव्यक्ति है। पोर्न की तुलना उस भूखे व्यक्ति से की जा सकती है जो अपने कम्प्यूटर पर भोजन के चित्र देख रहा है।
इस बात पर शोरशराबा मचाने की जगह समस्या के निदान की बात सोची गई होती तो इस तथ्य पर विचार किया गया होता कि पोर्न साइट्स के माध्यम से बच्चों और किशोरों तक काम विकृतियां पहुंच रही हैं। नयी उम्र में जब, विपरीत लिंग को जानने की चाह उठती है, तब पोर्न उनकी जानकारियों का स्रोत बनता है। और जो तस्वीर उस माध्यम से मन में खिंचती है वह प्राय: वास्तविकता के परे और विकृत होती है। तब शायद हमने शिक्षा में योग-प्राणायाम और ध्यान को जोड़ने के विषय में सोचा होता, ताकि किशोरावस्था में शरीर में होने वाले परिवर्तनों तथा उठती हुई ऊर्जा का सृजनात्मक उपयोग किया जा सके। तब हमने शिक्षा के नाम पर रोबोट तैयार करने की दौड़ को कैसे रोका जाए इस पर विचार किया होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एक महत्वपूर्ण मौके को गंवा दिया गया। हर बात पर राजनीति और स्वार्थों की चिंता करने की प्रवृत्ति ने कुछ कलमनवीसों, तथाकथित बुद्धिमानो और हर जगह वोटर ढूंढने वालों को तमाशा करने पर मजबूर कर दिया। बवाल मचाया गया । 'बैन कल्चर' का प्रेत खड़ा करके उसे निर्भया पर आधारित बीबीसी के वृतचित्त और 'बीफ बैन' तक ले जाया गया। इस सारे हो-हंगामे में मूलभूत विषय खो गया।
सरकार ने न्यायालय में कहा कि वह नागरिकों के निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। ये बात सही है। प्रतिबन्ध न तो समस्या का इलाज है और न ही तकनीकी रूप से संभव है। समस्या का सकारात्मक निदान प्रवाह को रोकने के स्थान पर प्रवाह को मोड़ने में है। सरकार ने इस दिशा में एक कदम बढ़ाया भी है। हमारी दृष्टि में वह कदम विश्व योग दिवस है। शिक्षा को योग-ध्यान और सृजन की तरफ मोड़ना इसका अगला कदम हो सकता है।
प्रशांत बाजपेई
विकृत भाव की अभिव्यक्ति है पोर्न
मनुष्य की प्रवृत्ति है कि उसे जितना दमन सिखाया जाता है वह उसके प्रति उतना ही आकर्षित होता है। पोर्न वासना का एक विकृत रूप है। पोर्न की वकालत करने वाले कथित बुद्धिजीवी इसे सिर्फ स्वतंत्रता के अधिकार से जोड़कर देख रहे हैं। इसे अपनी कुंठाओं से जोड़कर भी देखना चाहिए । 'पोर्न' एक विकृति है। यदि इसे बढ़ावा मिलेगा तो समाज में निश्चित ही अपराधों में वृद्धि होगी। बच्चों की युवाओं की सबकी जिज्ञासा इसको लेकर बढ़ती रहेगी। यदि खजुराहो की बात करें तो खजुराहो एक विशेष तरीके से सौन्दर्य के प्रति दृष्टि देता है उस समय देश में इस तरह की शिक्षा थी। सिखाया जाता था कि कैसे 'यौवन' को सकारात्मक दिशा में बदला जाए। ऊर्जा हमेशा निष्पक्ष होती है, हमेशा तटस्थ होती है। भारत का आध्यात्मिक विज्ञान कहता है कि इस ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाना है। ओशो कहते हैं कि प्राण के विस्तार से ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होती है। यही तो प्राणायाम का उद्देश्य है। ध्यान आपको सहज मानवीय प्रवृत्तियों के दमन के स्थान पर ऊर्जा के रूपांतरण की राह दिखाता है। अपरिपक्वता से सारी गड़बडि़यां उत्पन्न होती हैं। इसके लिए इन सब बातों की 'सम्यक शिक्षा' देनी चाहिए। यदि हमें 'यौन शिक्षा' के बारे में समाज को जागृत करना है तो इसके लिए एक शिक्षण का प्रारूप बनाना चाहिए न कि उसे पोर्न के रूप में परोसकर समाज के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। आप पोर्न की वकालत करेंगे तो आप व्यभिचार की वकालत करेंगे। ऐसी परिस्थिति में हमें एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। पोर्न की वकालत करना गलत चीजों की वकालत करना है क्योंकि वह 'सम्यक दर्शन नहीं है। वह विकृति है। यदि पोर्न को इस तरह से महिमामंडित किया जाएगा तो समाज में अपराध ही बढ़ेगा। आवश्यकता है कि हम अपने प्राचीन दर्शन और शिक्षा पद्धति को समझें। अपनी नई पीढ़ी को सकारात्मक बनाना हमारी जिम्मेदारी है।
स्वामी चैतन्य कीर्ति, संपादक ओशो वर्ल्ड
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