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इंटरनेट पर अश्लील सामग्री परोसने वाली साइट्स पर प्रतिबंध लगाने की मांग एक बार फिर जोर पकड़ने लगी है। इस विषय पर प्रस्तुत हैं महिला समन्वय, रा. स्व. संघ की राष्ट्रीय संयोजिका गीताताई गुंडे से पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी की बातचीत के प्रमुख अंश।
केन्द्र सरकार ने हाल ही में 'पोर्न साइट्स' पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन फौरन ही उसे सिर्फ बच्चों के अश्लील चित्रण करने वाली साइट्स तक सीमित कर दिया। आपका क्या कहना है, प्रतिबंध ऐसी सभी साइट्स पर लगाना चाहिए या बच्चों के अश्लील चित्रण करने वाली साइट्स पर?
हमारा कहना है कि बच्चों के अश्लील चित्रण करने वाली साइट्स के साथ ही ऐसी सभी अश्लील साइट्स पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। क्योंकि कुछ भी देखने, बोलने की आजादी के नाम पर अगर ये सब चल रहा है तो हम मांग करते हैं इस पर तुरंत प्रतिबंध लगे। अढश्लीलता फैलाने वाली साइट्स के वीडियो दृश्य तो आम साइट्स के होमपेज पर प्रचार के तौर पर दिखाए जाते हैं, उनसे बच्चों को कैसे दूर रखेंगे? इसलिए तुरंत और पूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए। पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि समाज में बढ़ते अपराध के पीछे इस तरह की चीजों का बड़ा हाथ है। चाहे चोरी-डकैती हो या महिलाओं के प्रति अपराध, इस तरह की सामग्री देखने वाले किशोरों या युवाओं में अपराध प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
समाज में, सामाजिक मूल्यों में बहुत बदलाव आया है। इस पर आपका क्या कहना है?
इसमें संदेह नहीं है कि समाज में बदलाव आया है। समय के साथ हर चीज में बदलाव आता है। उसी तरह समाज में भी बदलाव आया ही है। मेरा मानना है कि पश्चिम के प्रभाव, विशेषकर बाजारवाद, उपभोक्तावाद का इसमें बहुत बड़ा हाथ है। और समाज ही क्यों, परिवारों में हमें देखना चाहिए कि क्या हम अपने बच्चों को सही संस्कार दे रहे हैं। एक उदाहरण देती हूं। मैं ट्रेन से कहीं जा रही थी। बगल में एक वृद्ध महिला अपनी बहू और उसके डेढ़-एक साल के बच्चे के साथ बैठी थीं। मैंने देखा वे महिला उसे कोका कोला पिला रही थीं। इतना ही नहीं, वह बच्चा उसे पीते हुए मुंह बना रहा था तो वे खुश हो रही थीं। बताइए, आप साल भर के बच्चे को ऐसा पेय पिलाएंगे तो आगे चलकर वह क्या सीखेगा? इसी तरह लोग छोटे बच्चों को मोबाइल फोन दिखाकर खुश होते हैं। अरे, वह बच्चा उसकी लाइट की चमक से चौंकेगा ही, उसमें आश्चर्य करने जैसा क्या है? हमें देखना चाहिए कि कहीं बच्चे कोई गलत चीज तो नहीं सीख रहे हैं। दुख की बात है कि लोग इन चीजों को हल्के में लेते हैं।
ल्ल सिनेमा और टेलीविजन कार्यक्रमों का इसमें कितना हाथ है?
सिनेमा और टेलीविजन कार्यक्रमों में मद्यपान और धूम्रपान दिखाने से युवाओं में गलत संदेश तो जाता ही है। हालांकि अब टेलीविजन पर ऐसे दृश्यों के साथ चेतावनी की पट्टी चलाते हैं, पर कार्यक्रम तो चलता रहता है। दूरदर्शन ने एक नियामक बोर्ड बनाया है जो कार्यक्रमों में कुछ आपत्तिजनक लगने की शिकायत सुनता है पर वह शिकायत तो बाद में होती है, कार्यक्रम पहले दिखा दिया जाता है। चैनलों में कार्यक्रम के प्रस्तुतिकरण का स्तर बहुत गिर गया है।
क्या इन्हीं सब वजहों से इंटरनेट पर अश्लीलता परोसने का चलन बढ़ा है?
इंटरनेट पर कहीं कोई रोक नहीं है। बदलते वक्त में इंटरनेट घर-घर पहुंच गया है और बच्चों की पहंुच में वे सब चीजें आ गई हैं जो उनके लिए किसी भी तरह उचित नहीं हैं। पर क्यों कि जैसा पहले कहा, कोई रोक नहीं है इसलिए सब गड़बड़ हो रही है। इस पर रोक लगाने की मांग उठ रही है जो सही ही है। दुनिया में अनेक देशों ने अश्लीलता दिखाने वाली साइट्स या साहित्य पर प्रतिबंध लगाया है। कई लोकतांत्रिक देशों, जैसे अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया में ऐसी अश्लीलता बच्चों की पहंुच से दूर है। वहां वयस्कों के कार्यक्रम देर रात में दिखाए जाते हैं जब बच्चे सो जाएं।
परिवारों में बच्चों को सही संस्कार दिए जाएं, इसके लिए क्या आपने परिवार प्रबोधन के अंतर्गत कोई अभियान लिया है?
बिल्कुल, हम परिवारों में यह जागृति पैदा करने के काम में लगे हैं कि बच्चों को, भावी पीढ़ी को सही और गलत का भेद बताएं। पारिवारिक मूल्य सुदृढ़ हों। लेकिन अन्य स्तरों पर भी ऐसे प्रयास चलने चाहिए। सही और गलत के, परिवार में साथ रहने के संस्कार दिए जाने जरूरी हैं।
आज लिव-इन संबंधों का चलन दिखता है। इन पर क्या कहेंगी?
यह कोई आज शुरू हुआ चलन नहीं है, पर आज इसका परिमाण बहुत बढ़ गया है। मैंने तो ऐसे उदाहरण देखे हैं जहां महिला और पुरुष वर्षों से साथ रह रहे हैं, उनके बच्चे भी हैं। लेकिन वे विवाह बंधन में नहीं बंधे हैं। आज मीडिया के सक्रिय होने से ऐसी चीजें ज्यादा सामने आ रही हैं। अमरीका में तो बहुत से लोग इसलिए लिव-इन संबंध बनाकर रह रहे हैं क्यों कि शादी की जिम्मेदारी और बंधन से बच जाते हैं। उन्हें पता है कि तलाक लेने पर बहुत भारी रकम चुकानी पड़ेगी इसलिए न शादी करो, न उस झंझट में फंसो। मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हम इस लिव-इन संबंध का समर्थन करते हैं। जो गलत है वह गलत है। पाश्चात्य देशों में भी अब लिव-इन की बजाय शादी की प्रथा पर लौटने के बड़े अभियान चल रहे हैं। चर्च भी अब लोगों से शादी करने पर जोर डाल रहा है। हमारे यहां अगर विवाह की प्रथा है तो उसके पीछे कोई वजह तो होगी ही। मुझे मराठी का एक सीरियल ध्यान आ रहा है-'दिल दोस्ती दुनियादारी', जो इन दिनों दिखाया जा रहा है। उसमें कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुके तीन लड़के और तीन लड़कियां मुम्बई में एक घर में पी.जी. के तौर पर रहते हैं। वे मध्यमवर्गीय परिवारों के युवा साथ में रहते हुए दोस्तों की तरह व्यवहार करते हैं। लड़कियां अंदर शयन कक्ष में तो लड़के बाहर हॉल में सोते हैं। उनके बीच किसी तरह की गलतफहमी नहीं है। सब आपस में मित्रवत् व्यवहार करते हैं, मकान मालिक को रहने का किराया देते हैं। उनके बीच मधुर और साफ-सुथरे संबंध हैं। कहने का मतलब है कि अगर संस्कार हैं तो किसी तरह का गलत ख्याल मन में आ ही नहीं सकता। सब संस्कारों की बात है।
हमारे समाज में एक वर्ग इन लिव-इन संबंधों की पैरवी करने में बहुत मुखर है। वह अदालत का दरवाजा खटखटाने की बात करता है। उसके विषय में आप क्या कहेंगी?
वह बहुत छोटा वर्ग है। अब भी अधिकांश समाज ऐसे संबंधों की पैरवी नहीं करता।
आज संयुक्त परिवारों की जगह एकाकी परिवारों ने ले ली है। ऐसे परिवार दिखते ही कहां हैं जहां 15-20 लोग एक रसोई से खाना खाते हों। क्या सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों में कमी आने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण नहीं है?
यह सही है कि संयुक्त परिवार आज बहुत कम दिखते हैं। पहले के दौर में जरूर घर में 15-20 या अधिक लोग होते थे जो साथ साथ रहते थे। उनमें भी वे ही परिवार अधिकांशत: संयुक्त रहते थे जो कृषि या व्यवसाय में लगे होते थे। उसके पीछे मुख्य वजह थी सबका एक ही काम में लगे होना। लेकिन धीरे-धीरे परिवारों में महिलाओं में मन-मुटाव, संपत्ति को लेकर भाइयों में झगड़े आदि के चलते बिखराव हुआ। अब परिवार में एक या दो ही बेटा-बेटी होते हैं। उनको पढ़ाई या काम-रोजगार के सिलसिले में दूसरे शहर में रहना पड़ता है तो कोई क्या करे। आज संयुक्त परिवार के मायने माता-पिता, बेटा-बहू और उनके बच्चे हो गए हैं। इन परिवारों में भी महत्वपूर्ण बात है आपस का प्यार और सम्मान। बड़ों की चिंता। जरूरी बात है कि आप अपने बड़ों को कितना सम्मान देते हैं। उदाहरण के लिए, अगर बेटा-बहू नौकरी के कारण विदेश में रहते हैं और अगर बेटा भारत में रह रही अपनी मां को वहां आकर साथ रहने को कहता है तो उससे उसका प्यार और सम्मान झलकता है। मां भले वहां न जाए, पर उसे समझ आ जाता है कि बेटा उसे चाहता है। अगर साथ रहकर भी आपस में प्यार न हो तो वह गलत है। समय की जरूरत के हिसाब से परिवारों में बदलाव आ रहा है। इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं है।
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