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भारत में नफरत की राजनीति कर मजहब के नाम पर देश के दो फाड़ कराने वाले जिन्ना की महत्वाकांक्षा के चलते ही पाकिस्तान के भी दो हिस्से हुए। जिन्ना की नीतियों के चलते ही बंगलादेश की नींव पड़ी। पाकिस्तान के लिए तीन तारीखें महत्वपूर्ण हैं- 24 मार्च, 1940, 21 मार्च,1948 और 14 अगस्त, 1947। 24 मार्च,1940 को पाकिस्तान की स्थापना की बुनियाद रखी गई थी। 14 अगस्त,1947 को पाकिस्तान दुनिया के मानचित्र पर आया और 21 मार्च,1948 को उसी पाकिस्तान को दो भागों में बांटने की जमीन तैयार की गई। संयोग देखिए कि इन सब तारीखों से जुड़े हैं मोहम्मद अली जिन्ना।
दरअसल 24 मार्च, 1940 को लाहौर की बादशाही मस्जिद के ठीक आगे बने मिन्टो पार्क (अब इकबाल पार्क) में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने लाहौर में पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग करते हुए प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव प्रसिद्ध हुआ पाकिस्तान प्रस्ताव के नाम से। इसमें कहा गया था कि वे (मुस्लिम लीग) मुसलमानों के लिए पृथक राष्ट्र का ख्वाब देखते हैं और इसे निश्चित तौर पर पूरा किया जाएगा। प्रस्ताव पारित होने से पहले जिन्ना ने अपने दो घंटे लंबे भाषण में कहा था 'हिन्दू और मुसलमान दो अलग मजहब हैं। दो अलग विचार हैं। दोनों की परम्पराएं और इतिहास अलग हैं। दोनों के नायक अलग हैं। इसलिए दोनों कतई साथ नहीं रह सकते।' भाषण में जिन्ना ने लाला लाजपत राय से लेकर चितरंजन दास को कोसा। उनके भाषण के दौरान एक प्रतिनिधि मलिक बरकत अली ने 'लाला लाजपत राय को राष्ट्रवादी हिन्दू कहा।' जवाब में जिन्ना ने कहा, 'कोई हिन्दू नेता राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। वह पहले और अंत में हिन्दू ही है।'
बहरहाल,14 अगस्त, 1947 को भारत का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान अलग देश बन गया। उसके कुछ महीनों के बाद जिन्ना देश के पहले गवर्नर जनरल के रूप में ढाका पहुंचे। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को उम्मीद थी कि वे उनके हक में कुछ अहम घोषणाएं करेंगे। जिन्ना ने 21 मार्च, 1948 को ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक सार्वजिनक सभा को संबोधित किया। जिन्ना ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी। हालांकि वे खुद उर्दू नहीं जानते थे। उन्होंने बेहद कठोर अंदाज में कहा कि 'सिर्फ उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा रहेगी। जो इससे अलग सोचते हैं वे मुसलमानों के लिए बने मुल्क के शत्रु हैं।' पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में उर्दू को थोपे जाने का विरोध हो ही रहा था, इस घोषणा से तो जनता में गुस्से की लहर दौड़ गई। जिनकी मातृभाषा बंगला थी, वे जिन्ना के आदेश को मानने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने पृथक मुस्लिम राष्ट्र का हिस्सा बनने का तो फैसला किया था, पर वे अपनी बंगला संस्कृति से दूर जाने के लिए तैयार नहीं थे। पूर्वी पाकिस्तान बंगाल के बंटने के चलते सामने आया था। पहले तो वह बंगाल का ही भाग था। पाकिस्तान की कुल आबादी का 56 फीसद पूर्वी पाकिस्तान से आता था। वहां की जनता बंगला को उर्दू के बराबर दर्जा ना दिए जाने से नाराज थी। पूर्वी पाकिस्तान बंगला को उर्दू वाला दर्जा देने की ही मांग कर रहा था। इससे कम उसे कुछ भी नामंजूर ही था।
ढाका क्यों नहीं बनी राजधानी
पाकिस्तान के डिप्लोमेट और इतिहासकार डा. नजर अब्बास कहते हैं कि बंगला की अनदेखी के सवाल के बाद तो पूर्वी पाकिस्तान की जनता का पाकिस्तान से मोहभंग होने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कराची को ढाका से छोटा होने के बाद भी देश की राजधानी क्यों बनाया गया। सेना और सरकारी नौकरियों में पूर्वी पाकिस्तान की कम भागीदारी भी अहम असंतोष के कारण थे। इस बीच, जिन्ना का इंतकाल हो चुका था। पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू को थोपने का विरोध जारी था। 21 फरवरी,1952 को 'ढाका विश्वविद्यालय' के विद्यार्थी प्रदर्शन कर रहे थे। तभी पाकिस्तानी पुलिस ने उन पर अंधाधुंध गोलीबारी करनी शुरू कर दी। इस घटना में दर्जनों छात्र मारे गए। इसके बाद तो पूर्वी पाकिस्तान कभी मन से पाकिस्तान का हिस्सा नहीं रहा। छात्रों पर गोलीबारी की घटना ने मुस्लिम लीग की 'टू नेशन थ्योरी' को धूल में मिलाकर रख दिया। साथ ही इस्लाम के नाम पर बने मुल्क को दो फाड़ करने की मजबूत नींव रख दी गई। इसके बाद पूर्वी पाकिस्तान के लोग दूसरे बहुत से सवालों पर अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़े होने लगे। 1954 में ढाका में बेहद हिंसक मजदूर आंदोलन चला। स्थानीय बंगला भाषी मजदूरों को शिकायत थी कि सरकारी कंपनियां नौकरी देने में उर्दू भाषियों को पसंद कर रही हैं।भाषा और दूसरे सवालों पर समूचा पूर्वी पाकिस्तान बागी हो ही गया।
पूर्वी पाकिस्तान के अवाम के अंसतोष को नेतृत्व मिला अवामी लीग पार्टी से। उस दौर में इसका नेतृत्व कर रहे थे शेख मुजीबुर्रहमान। वे बंगलादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री हसीना जिया के पिता थे। बता दें कि उन्होंने अपने छात्र जीवन में पाकिस्तान आंदोलन का कलकत्ता में तगड़ा समर्थन किया था। अवामी लीग ने पाकिस्तान सरकार के सामने सन 1968 में पाइंट का मांग पत्र रखा। इसमें बंगला को उर्दू के बराबर दर्जा देने के साथ-साथ कुछ और मांगें भी थीं। एक मांग यह भी थी कि पाकिस्तान सरकार विदेश और रक्षा के अलावा बाकी सारे अधिकार पूर्वी पाकिस्तान की सूबाई सरकार को दे। जाहिर तौर पर ये मांगें पाकिस्तानी सरकार को नामंजूर थीं। शेख की जुबान बंद करने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर भारत के साथ मिलकर पाकिस्तान को अस्थिर करने के आरोप लगे। न्यायालय में केस चला। पर वे बरी हो गए। हद तो तब हो गई जब 1970 के पाकिस्तान में हुए आम चुनाव में अवामी लीग को बहुमत मिलने के बाद भी शेख मुजीबुर्रहमान को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया। वे अयूब खान के सैन्य शासन का भी विरोध कर रहे थे। उन्हें 26 मार्च, 1971 को पाकिस्तानी सेना ने गिरफ्तार कर लिया। उनके जेल प्रवास के दौरान पाकिस्तानी सेना और बंगाली राष्ट्रवादियों के बीच खूनी गुरिल्ला जंग चली। उसके बाद पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध हुआ। बंगलादेश की मुक्तिवाहिनी ने भारतीय सेनाओं का साथ दिया। उस जंग में पाकिस्तान हारा। बंगलादेश का नए राष्ट्र के रूप में उदय हुआ।
हालांकि ये भी सच है कि मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग में उनके नंबर दो लियाकत अली खान को लगता है कि भरोसा नहीं था कि देश का बंटवारा अपने आप में स्थायी होगा। शायद उन्हें लगता था कि जिस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वे संघर्षरत हैं,वह अधूरा ही रहेगा। अगर ये बात नहीं होती तो जिन्ना देश के विभाजन से कुछ महीने पहले तक एयर इंडिया के शेयरों की खरीद में व्यस्त नहीं होते। उधर, लियाकत अली खान अपने नई दिल्ली के पॉशहार्डिग लेन (अब तिलक लेन) के बंगले को बेच देते। यही नहीं, उनकी पत्नी और मुस्लिम लीग की महिला इकाई की नेता गुल-ए-राना देश के बंटवारे से कुछ सप्ताह पहले तक राजधानी के आई पी कालेज में कुछ दिनों के अवकाश की अर्जी नहीं दे रही होती। वह वहां पर अंग्रेजी पढ़ाती थीं।
दरअसल मार्च, 1947 तक देश के बंटवारे की बात साफ हो गई थी। कांग्रेस और मुस्लिम लीग देश के बंटवारे के लिए राजी हो गए थे। इसके बावजूद जिन्ना निवेश के विकल्प तलाश रहे थे। वे पैसे के पीर तो थे। बेहतर तरीके से जिंदगी जीते थे। अब जरा बताइये कि कोई इंसान जो एक पृथक राष्ट्र के लिए लड़ रहा हो और उसका सपना पूरा भी हो रहा हो,वह अपने निवेश को लेकर इतना गंभीर क्यों होगा? इसके साथ ही जिन्ना मुंबई के पॉशइलाके में 18 एकड़ जमीन भी खरीदना चाह रहे थे। ये समुद्र के करीब थी। इसकी तब कीमत पांच लाख रुपये थी। ये खुलासा होता है 'जिन्नापेपर्स- स्ट्रगल फार सरवाईवल में।' इसके प्रधान संपादक जेड.एच.जैदी हैं। इसे पाकिस्तान सरकार ने कायदे आजम पेपर्स प्रोजेक्ट्स नाम से छापा था। वितरित किया था आक्सफोर्ड प्रेस, पाकिस्तान ने।
उधर, दिल्ली के 7, हार्डिंग लेन (अब तिलक मार्ग) के उस भव्य बंगले में उन दिनों बड़ी दुविधा की स्थिति बनी हुई थी। देश का बंटना तय हो चुका था। घर के स्वामी साहिबजादा लियाकत अली खान की पत्नी गुल-ए-राना को समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। वह राजधानी के पुराने और प्रतिष्ठित आईपी कालेज में अंग्रेजी पढ़ाती थीं। यहां के सामाजिक जीवन में सक्रिय थीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि नौकरी को छोड़ा जाए या कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पाकिस्तान जाया जाए।
आखिरकार गुले-ए-राना, जिनका रिश्ता अल्मोड़ा के कुलीन ब्राह्मण परिवार से था, जुलाई,1947 के पहले हफ्ते में कराची के लिए रवाना हो गईं। जाने से पहले कॉलेज की प्रधानाचार्य वीणा दास को दो माह के अवकाश की अर्जी देकर गईं। उन्होंने अपनी प्रधानाचार्य को आश्वासन दिया कि वे सितम्बर के दूसरे या अंतिम हफ्ते तक लौट आएंगी। वापस आने पर छात्राओं की अलग कक्षा लेकर उनकी पढ़ाई को हुए नुकसान की भरपाई कर लेंगी। प्रधानाचार्य ने उनके आश्वासन पर गुल-ए-राना को अवकाश दे दिया। उन्हें इतना लम्बा अवकाश इसलिए मिल गया क्योंकि उनकी कॉलेज में शिक्षक के रूप में बढि़या छवि बन चुकी थी। वे दो साल से कॉलेज में पढ़ा रही थीं। कालेज की तमाम गतिविधियों में खासी सक्रिय रहती थीं। उन्होंने इधर कश्मीरी गेट और चांदनी चौक इलाकों में शराब की दुकानों को बंद करवाने के लिए चले आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया था। आई.पी कालेज की प्रबंध समिति के वयोवृद्ध प्रमुख लाला नारायण प्रसाद बताते हैं कि गुल ए-राना ने कराची जाने के बाद भी एक पत्र लिखा कि वे लौट आएंगी। उनके पति लियाकत अली खान पाकिस्तान के पहले वजीरे आजम बने। उनकी रावलपिंडी में 16 अक्तूबर,1951 में उसी स्थान पर हत्या कर दी गई थी जिधर हाल के दौर में बेनजीर भुट्टो की हत्या की गई थी। -विवेक शुक्ला
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