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खेल-परंपरागत खेलों को प्रोत्साहन दें

by
Aug 10, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 Aug 2015 12:04:34

 

सतपाल
पद्मभूषण व द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित महाबली सतपाल नाम से विख्यात कुश्ती प्रशिक्षक सतपाल ने  1982 के एशियाई ख्लों में स्वर्णपदक जीता। वर्तमान में और खिलाड़ी के रूप में सतपाल दो बार के ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार के प्रशिक्षक के रूप में प्रसिद्ध है। 

भारत में चिरकाल से खेलों की एक समृद्घ परंपरा रही है। कुश्ती, तीरंदाजी, कबड्डी और मल्लखंभ जैसे खेलों के महाभारत काल से भी पहले अस्तित्व में आने के कई प्रमाण मिलते हैं, जबकि अन्य प्राचीन खेल जैसे गिल्ली डंडा, कंचा, पिट्ठू, खो-खो और तैराकी भारतीय समाज में रचे-बसे रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश इनमें से ज्यादा खेल विलुप्त होते जा रहे हैं। आजकल के युवाओं के लिए ये खेल किताबों में छपी कहानियों से ज्यादा कुछ नहीं रह गए हैं। प्राचीन खेलों की जगह अंग्रेजीदां और यूरोपीय खेलों ने ले ली है, जबकि रोमांच की जगह फूहड़ता और व्यक्तित्व के सवांर्गीण विकास की जगह कथित आधुनिक जिम व आधुनिक गैजेट्स ने ले ली है। आधुनिकता के नाम पर भारत को इंडिया बनाने के क्रम में यह एक सुडौल, स्वस्थ और संस्कार के धनी देश को खोखला बनाने का प्रयास भर है, और कुछ नहीं।
प्राचीन काल को याद करें तो आपको हर जगह प्रमाण मिलेंगे कि पहले राजाओं की हार-जीत में युद्घ के अलावा कुश्ती, मल्लखंभ और कबड्डी जैसे खेल अहम भूमिका निभाते थे। जिस राजा के पास महाबली होते थे उसका सिक्का चलता था। बलिष्ठ लोगों की दिनचर्या की शुरुआत अखाड़ों से होती थी जहां दंड बैठक, मुद्गर, योग और रस्साकसी का सहारा लिया जाता था। खाने के नाम पर कुदरती चीजों पर ध्यान दिया जाता था। लेकिन समय बीतने के साथ-साथ अंग्रेजों के खेलों ने प्राचीन खेलों को दबाना शुरू कर दिया। आज स्थिति यह है कि अखाड़े की जगह कसरत के लिए जिम ने जगह ले ली है। फल, दूध, घी और मेवे की जगह प्रोटीन के पाउडर और शक्तिवर्द्धक दवाइयों ने ले ली है। इससे भारतीय खेल जगत का कतई भला होने वाला नहीं है। इन प्रोटीन और दवाइयों से कुछ समय के लिए ताकत तो आ जाती है, लेकिन लंबे समय तक ताकत हासिल नहीं की जा सकती है। यह भारतीय खेल जगत को ताकतवर नहीं, बल्कि खोखला कर रहा है। भारतीय कुश्ती में हमारी सैकड़ों प्रतिभाओं ने इतिहास रचे हैं, लेकिन भारतीय खेल की बदलती तस्वीर से हम न केवल आहत हैं, बल्कि इसके गौरवमय इतिहास को भूलते समाज के प्रति चिंतित भी हैं।
प्राचीन खेलों में ही छिपा है आधार
ज्यादातर आधुनिक खेलों पर गौर करें तो आपको उसके पीछे प्राचीन भारतीय खेल के आधार नजर आएंगे। मल्लखंभ ने जहां कुश्ती और जिम्नास्टिक को जन्म दिया तो खो-खो व कबड्डी ने फुटबॉल व हॉकी जैसे खेलों में चपलता, तेजी, ताकत और डॉज देने की तकनीक सिखाई। इसी तरह आप गौर करें तो पाएंगे कि गोल्फ में जिस एकाग्रता व अचूक निशाने की जरूरत पड़ती है कमोबेश वही शैली कंचे में भी अपनाई जाती है। गिल्ली डंडे की तकनीक क्रिकेट व बेसबॉल में काम आती है तो रग्बी जैसे खेल आज भी नागालैंड और उत्तराखंड के गांवों में खेले जाते हैं। इसके अलावा मुक्केबाजी भी भारत की ही देन मानी जाती है, जबकि प्राचीनकाल में इलाके ग्रामीण होते थे जहां आत्मरक्षा के लिए तीरंदाजी काफी महत्वपूर्ण मानी जाती थी। उसी तीरंदाजी और योग का नतीजा बाद में निशानेबाजी के रूप में निकला।
इन तमाम खेलों की महत्ता के अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे माननीय प्रधानमंत्री जो सवांर्गीण विकास पर जोर देने की बात करते हैं तो यह प्राचीन खेलों को अपनाने से ही संभव है। उनके विचार बेहद सरल और व्यावहारिक हैं। मैं उनके विचारों का बहुत बड़ा समर्थक हूं क्योंकि मुझे पता है कि शरीर और व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण परिपाटी और ग्रामीण खेलों को अपनाते हुए ही संभव है। मुझे पूरा भरोसा है कि ग्रामीण इलाकों में यदि जमीनी स्तर पर खेलों को बढ़ावा दिया जाए तो हम ओलंपिक खेलों के शीर्ष पांच देशों में आ सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में सफल होने के लिए पारंपरिक खेलों व तकनीकों को आधुनिक रूप देने की जरूरत है। आज हमारे पास अपने पहलवानों को सिखाने के लिए कोई 800 दांव हैं जिनमें से 700 दांव तो विशुद्घ भारतीय हैं। हमने अगर यूरोपीय व रूसी पहलवानों को मात देने के लिए 100 दांवों को आधुनिक रूप दिया तो विदेशियों को तो हमारे 700 दांवों को मात देने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। इस स्थिति में हम अपनी पारंपरिक ताकत को बढ़ाने पर जोर क्यों न दें। कुश्ती, कबड्डी और मुक्केबाजी में आज भारत की गिनती एक बड़ी ताकत के रूप में की जाती है, जबकि प्राचीन खेलों से निकले क्रिकेट और गोल्फ में भी देश के खिलाड़ी तेजी से तरक्की कर रहे हैं। जाहिर है, सरकार और खेलों को बढ़ावा देने वाले औद्योगिक घराने आज कंचे और गिल्ली डंडे जैसे लुप्त होते खेलों पर ध्यान दें तो भारत खेल की एक महाशक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हो जाएगा।
गांवों में छिपी हैं प्रतिभाएं
इसी क्रम में जंगल व पहाड़ों से भरे इलाकों से उन प्राकृतिक धनुर्धरों को निकाला जाए जिनकी प्रतिभा आज भी दुनिया के सामने नहीं आ पाती है। बचपन से जूझते हुए तीरंदाजी करने वाले खिलाड़ी अगर लक्ष्य पर निशाने साधेंगे तो उनके सामने अमरीका, आस्ट्रेलिया या कोरियाई खिलाडि़यों का दबाव नहीं रहेगा। उन्हें तेज हवा और शूटिंग रेंज के पीछे के घने वृक्ष परेशान नहीं करेंगे क्योंकि वे आदतन अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना जानते हैं। अब अगर रग्बी में हमें अच्छा करना है तो उत्तराखंड और नागालैंड की पहाडि़यों से उन खिलाडि़यों की खोज की जाए जो आज भी रबड़ की एक बड़ी गेंद के साथ घंटों जोर-आजमाइश करते हैं। यही नहीं, मल्लखंभ के जरिये मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दक्षिणी राज्यों के गांवों से ऐसे खिलाडि़यों को निकाला जा सकता है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर के जिम्नास्टों की तरह हैरतअंगेज कारनामे करते हुए दिन गुजार देते हैं। कुछ इसी तरह के कारनामे भारतीय समुद्री इलाके में गरीब तबके के मछुआरे और स्थानीय बच्चे करते दिख जाते हैं जो खेल-खेल में लहरों की विपरीत दिशा में तैराकी कर साथी तैराकों पर रौब झाड़ते नजर आते हैं। कुछ तो ऐसे बच्चे होते हें जो सैलानियों से पैसे कमाने के लिए घंटों समुद्री लहरों के बीच से सीप निकालने का प्रयास करते रहते हैं। उनकी कला और लंबे समय तक तैराकी करने की क्षमता को हम अंतरराष्ट्रीय स्तर के तैराक के रूप में तैयार करने में बखूबी इस्तेमाल कर सकते हैं। केरल में बैंकवाटर में स्नेक बोट रेस में शानदार प्रदर्शन करने वाले खिलाडि़यों को कैनोइंग व कयाकिंग जैसी स्पर्द्धाओं के लिए बखूबी तैयार किया जा सकता है। भारतीय एथलेटिक्स जगत के इतिहास पुरुष उड़न सिख मिल्खा सिंह का भी मानना है कि पहाड़ी इलाकों के बच्चों में भार अपने कंधों पर डालकर ऊंचाई पर चढ़ने की जो आदत सी बन जाती है, उन्हें एक अच्छे एथलीट या मैराथन धावक के रूप में विकसित किया जा सकता है। ऐसे युवा धावक देश के कोने-कोने में मिल सकते हैं, जरूरत है सरकार व खेल प्रशासकों को उन्हें तलाशने व तराशने की इच्छाशक्ति दिखाने की। 

प्राचीन खेलों का प्रचार-प्रसार जरूरी
भारतीय खेल को एक नई ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए युवाओं में प्राचीन खेलों के प्रति जागरूकता बढ़ाना ही एकमात्र जरिया है। भारतीय खेल जगत को एक आयाम प्रदान करने के लिए प्राचीन खेलों का प्रचार-प्रसार भी काफी जरूरी है। कोई 48 वर्ष पहले बचपन में मैं एक पतला-दुबला बालक था। राजधानी से लगे बवाना गांव में अपने साथियों के साथ गली में कंचे, लट्टू, गिल्ली डंडे और कबड्डी खेलने में लगा रहता था। एक दिन पिताजी मुझे बवाना स्टेडियम ले गए जहां कुश्ती, कबड्डी व खो-खो खिलाने के अलावा शाखा भी नियमित रूप से लगती थी। वहां पिताजी को मनोरंजन के साथ चरित्र निर्माण का जरिया भी दिखा और उन्होंने मुझे हर दिन स्टेडियम ले जाना शुरू कर दिया। इसके बाद एक खिलाड़ी के रूप में अपने जीवन की शुरुआत करते हुए मैं पहली बार मई, 1968 में राजधानी दिल्ली के गुरु हनुमान अखाड़े में आ गया। अखाड़े में ज्यादा पहलवान नहीं थे इसलिए गुरूजी से कुश्ती के गुर सीखने के अलावा मैंने बिरला मिल के बच्चों के साथ कंचे, लट्टू और कबड्डी खेलना जारी रखा। अन्य खेलों से मिलने वाली सीख कुश्ती के दांव-पेंच आजमाने में भी मददगार साबित हुई, जबकि मुकाबले के दौरान अपनी रणनीति बनाने में भी अन्य खेलों की जानकारी लाभदायक साबित हुई। मेरे साथ एक रोचक तथ्य जुड़ा हुआ है कि हिंद केसरी बनने तक मैं लट्टू और कंचों के प्रति अपना मोह त्याग नहीं पाया। मेरे पास आज भी यादगार के तौर पर सैकड़ों कंचे रखे हुए हैं। बहरहाल, मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि तमाम प्राचीन खेलों के जरिये ही सवांर्गीण विकास संभव है जिसका मुझे कुश्ती के दौरान पूरे करियर में फायदा मिला। इसके अलावा एक सशक्त और संपूर्ण खिलाड़ी बनने के लिए त्याग की भावना, जबरदस्त संघर्ष क्षमता और कुदरती खाने-पीने के जरिये ताकतवर बनना जरूरी है। ग्रामीण इलाकों में इन सभी खूबियों को पाया जाता है इसलिए मैं ग्रामीण इलाकों से खिलाडि़यों को तलाशने पर जोर देता रहता हूं।
मैं एशियाई खेलों में स्वर्ण, रजत और कांस्य सहित तीन पदक और राष्ट्रमंडल खेलों में तीन रजत पदक जीत चुका हूं, जबकि ओलंपिक में भी देश का प्रतिनिधित्व किया है। एक खिलाड़ी के तौर पर या फिर एक प्रशिक्षक के तौर पर मुझे जितने भी सम्मान या पुरस्कार मिले, उसके पीछे कुश्ती के अलावा अन्य प्राचीन खेलों की जानकारी का खासा योगदान था। प्राचीन खेलों को भूलना एक दुर्भाग्य है। मुझे याद है, हम सभी भारतीय पहलवान मिट्टी पर कुश्ती लड़ते हुए बड़े हुए। लेकिन रूसी व यूरोपीय पहलवानों की देखादेखी मिट्टी की जगह मैट पर कुश्तियां लड़ी जाने लगीं। इसी तरह पहले चित व पट के जरिये मुकाबलों का फैसला होता था, लेकिन बाद में अंक प्रणाली अपना ली गई और अब 'पैसिविटी' (समय बर्बाद करने पर मिलने वाली चेतावनी) के जरिये हम पर अंकुश लगाने की कोशिश की गई। लेकिन हर मौके पर वही भारतीय पहलवान खुद को ढालने में सफल रहा जो कुश्ती के अलावा ग्रिप बनाने, दांव लगाने या चपलता दिखाने में सफल रहा जो कुश्ती के अलावा अन्य खेलों का जानकार था। समय के साथ बदलना हर खिलाड़ी के लिए जरूरी है, लेकिन मैं 'शॉर्टकट' के जरिये सफलता हासिल करने के सख्त खिलाफ हूं। मेरे जमाने में दाव-पेच के अलावा देसी खाने को खासी तरजीह दी जाती थी। दूध, घी, फल और मेवे के अलावा ताकत बढ़ाने के लिए हमें सरसों का कच्चा तेल भी पिलाया जाता था, जबकि कुश्ती के अलावा प्रतिद्वंद्वी पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए रस्सी पर चढ़ना भी सिखाया जाता था। आज किसी भी युवा खिलाड़ी को यदि उसका प्रशिक्षक कच्चा सरसों तेल पीने को कह दे तो उसकी हंसी उड़ाई जाने लगेगी। मुझे चीनी प्रशिक्षक मा जुनरेन की याद आती है जिसके कई एथलीटों ने 90 के दशक में जड़ी-बूटियों का सेवन करते हुए विश्व एथलेटिक्स में तहलका मचा दिया था। मैं हमेशा से मानता आया हूं कि अथक परिश्रम और प्राकृतिक पदाथोंर् के सेवन के द्वारा सफलता हासिल की जा सकती है। सफल होने के लिए कोई छोटा रास्ता काम नहीं आता और न ही सफलता हासिल करने के लिए पारंपरिक विधा को नकारा जा सकता है।
तमाशा बनते जा रहे हैं खेल
क्रिकेट में इंडियन प्रीमियर लीग को रातोंरात मिली सफलता के बाद हॉकी, बैडमिंटन और मुक्केबाजी के भी लीग शुरू कर दिए गए। अब तो कुश्ती की भी लीग शुरू करने की योजना बन रही है। लेकिन इन लीगों की सफलता पर गौर करें तो पाएंगे कि इनके सुर्खियों में आने के पीछे खेल और उसका रोमांच कम, जबकि अन्य कारण ज्यादा बड़े कारक थे। आईपीएल में मैच के बाद लेट-नाइट पार्टियां, शराबखोरी और नाच-गाने ज्यादा सुर्खियों में आए तो दर्शकों ने मैदान पर क्रिकेटरों की अच्छी गेंदबाजी या बल्लेबाजी की जगह चीयर गर्ल्स की तरफ ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया। कई खिलाड़ी सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग जैसे घृणित कायोंर् में लिप्त पाए गए तो अधिकारी भी काजल की कोठरी में धंसने से बाज नहीं आए। कुछ ऐसी ही स्थिति भारतीय हॉकी के साथ है। पैसे कमाने और रातोंरात शोहरत हासिल करने के प्रयास में खिलाड़ी कुछ ऐसे फंसे कि आज दोनों ही राष्ट्रीय टीमों के सामने अपनी प्रतिष्ठा को बचाए रखने की चुनौती सामने खड़ी हो गई है।
हालांकि मेरा मानना है कि देर से ही सही, यदि कुश्ती और मुक्केबाजी में लीग की शुरुआत की जा रही है तो भारतीय खिलाडि़यों के लिए यह एक अच्छी खबर है। देर आयद दुरुस्त आयद। अंतरराष्ट्रीय स्तर और ओलंपिक खेलों में धूम मचाने के बाद अंतत: पहलवानों और मुक्केबाजों को अपना जीवन स्तर ऊपर उठाने का मौका मिलेगा। हर खिलाड़ी को ईमानदारी से पैसे कमाने का हक है। कुश्ती लीग की शुरुआत की घोषणा के लिए भारतीय कुश्ती महासंघ बधाई का पात्र है। इससे भारतीय खेल जिंदा रहेंगे। हम प्राचीन खेलों को राष्ट्रीय स्कूली खेलों में शामिल करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस बार 67 हजार बच्चों की स्कूली खेलों के लिए आधिकारिक तौर पर ऑनलाइन प्रविष्टियां आई थीं। सबसे अच्छी बात यह थी कि जितने बालकों ने राष्ट्रीय स्कूली खेलों में भाग लिया, उससे कहीं ज्यादा बालिकाओं ने इसमें रुचि दिखाई। अब समय आ गया है कि ग्रामीण बच्चों को उन्हीं के क्षेत्रों में जाकर उच्चस्तरीय प्रशिक्षण दिया जाए। प्राचीन खेलों को अपनाने वाले खिलाडि़यों को भी क्रिकेटरों, फुटबाल या हॉकी खिलाडि़यों की तरह नौकरी दिए जाने से हम युवाओं को इस खेल की ओर आकर्षित कर सकते हैं। कोई तीन-चार दशक पहले खिलाडि़यों को नौकरी के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। लेकिन जैसे-जैसे खिलाडि़यों को नौकरियां मिलने लगीं, उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ीं। अब जरूरत है कि प्राचीन खेलों से खिलाडि़यों को जोड़ते हुए उन्हें हर वे सुविधाएं उपलब्ध कराई जायें जो अन्य स्टार खिलाडि़यों को मिलती हैं। प्राचीन खेलों को जनजातीय इलाकों में विकसित करने की विभिन्न योजनाएं तैयार की जानी चाहिए ताकि वहां की नैसर्गिक प्रतिभाओं को तराशा जा सके।
अंत में मैं बस यही कहना चाहूंगा कि खेल चाहे कोई भी हो, उसे पूरी ईमानदारी से मेहनत से स्वीकारना चाहिए। कोई भी खेल बड़ा या छोटा नहीं होता। हर खेल में सफलता हासिल करने के लिए मेहनत करनी होती है, रणनीति बनानी होती है और अपनी प्रतिभा का शत-प्रतिशत प्रदर्शन करना होता है।
ग्रामीण खेलों के जरिये यदि आधुनिक खेलों में विकास किया जा सकता है तो उन्हें जरूर अपनाना चाहिए। साथ ही, हर वक्त जीत की जिजीविषा के साथ मैदान पर उतरना चाहिए क्योंकि जब आप अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई उपलब्धि हासिल करते हैं तो जीत हमारे देश की होती है। ओलंपिक, एशियाई खेल, राष्ट्रमंडल खेल या किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में जीत के बाद जब तिरंगा लहरा रहा होता है और राष्ट्रगान की धुन बज रही होती है तो वह आपके जीवन का सबसे सुनहरा, सबसे सुंदर और सबसे ज्यादा गौरवदायी क्षण होता है। यह मौका विरले लोगों को ही मिलता है। इन मौकों को हासिल करने के लिए जी-जान से खेलों से जुड़ जाएं।     
प्रस्तुति : प्रवीण सिन्हा

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