|
इतिहास में आवश्यक है भूल- सुधारभारत जीवित राष्ट्रपुरुष है। संस्कृति इसका व्यक्तित्व है और इतिहास इसका कृतित्व। इसके कृतित्व की मूल प्रेरणा इसकी संस्कृति में वास करती है। सकारात्मक तथा निर्माणात्मक दृष्टि से समय-समय पर इतिहास के पाठ्यक्रम का नवीनीकरण तथा संशोधन स्वाभाविक शैक्षणिक प्रक्रिया है, परंतु भारत इसका अपवाद रहा। भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात भी ये विदेशी मानसिक गुलामी का शिकार रहा तथा इतिहास का पाठ्यक्रम ध्वंसात्मक तथा नकारात्मक रहा है। इसकी जड़ें अभी भी विदेशी हैं। संक्षेप में पाठ्यक्रम को ऐतिहासिक संदर्भ में देखना तथा इसका विश्लेषण महत्वपूर्ण होगा।
ब्रिटिश नीति
परतंत्रता के युग में ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों, ब्रिटिश प्रशासकों तथा ईसाई मिशनरियों का उद्देश्य इतिहास पाठ्यक्रम के माध्यम से अंग्रेज शासन की स्थापना, इसके स्थायित्व, इसका निरंतर विकास के प्रयास तथा अपनी सफलताओं का गुणगान करना था। वे इसके माध्यम से अंग्रेजी शासन के औचित्य, अंग्रेज चरित्र की उच्चता तथा भारतीयों में ही भावना भरना चाहते थे। ईसाई पादरियों का प्रचार हिन्दू देवी-देवताओं, उनकी संस्कृति तथा धर्म, उनके जीवन-मूल्यों की प्रति घृणा पैदा कर, भारत को एक ईसाई देश बनाना चाहते थे। इनके प्रमुख आयोजकों में ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स मिल तथा लॉर्ड मैकाले थे। जेम्स मिल की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया 19वीं शताब्दी की उच्च कक्षाओं तथा सरकारी नागरिक सेवा की प्रतियोगिता में इतिहास पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बन गई थी। इसके साथ ही भारतीय स्कूलों तथा कॉलेज की विभिन्न कक्षाओं की कुछ प्रसिद्ध इतिहास की पुस्तकें ब्रिटिश लेखकों जे.सी मार्शमैन (1835), माउन्ट स्टुअर्ट एलीफिन्स्टन (1841), जी.यू. पोप (1871), डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्टर (1882), एल्फ्रेड लायल (1893), सी. एफ. डी. ली. फौसी (1903), टेलर मिंडोज (1904), ई. मारडेन (1909), इयल आर. साईक्स (1915), बीए स्मिथ (1904, 1919), पीई राबर्ट्स (1921) तथा एच.एच. डाडवैल (1934) आदि ने लिखी थीं। स्वाभाविक रूप से ये पाठ्यक्रम जहां साम्राज्यवादी भावनाओं से ओतप्रोत थे वहीं अनेक तथ्यहीन, भ्रांतियों, कालक्रम का अभाव, कालगणना के अज्ञान तथा मनमाने निष्कर्षों से भरपूर थे। राष्ट्र की कल्पना, इतिहास का काल विभाजन, आर्यों की स्थिति, इतिहास लेखन आदि अनेक विसंगतियों को जन्म दिया। भारतीयों में अतीत के प्रति अश्रद्धा तथा जो भी अच्छा वह पश्चिम की देन का भाव भरा। 1857 ई. में तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना के साथ इतिहास पाठ्यक्रम से प्राय: प्राचीन भारत का अध्ययन निकाल दिया गया।
कांग्रेसी दृष्टि
भारतीय स्वतंत्रता से स्वराज्य मिला, परंतु भारत के जन समाज को इसकी जरा भी अनुभूति न हुई, स्वतंत्रता मिली पर तंत्र पाश्चात्य अपनाया। स्वाधीन हुए पर स्वावलंबी नहीं। इतिहास का पाठ्यक्रम और विकृत तथा भ्रमित हुआ। इतिहास पाठ्यक्रम नेहरू तथा सोवियत मॉडल पर बना। अंग्रेज सत्ता का हस्तांतरण कर देश को कांग्रेसियों को सौंप गये। पं. नेहरू तथा कांग्रेस की मूलत: दृष्टि राजनीतिक तथा पाश्चात्य रही उसमें संस्कृति तथा संस्कृत को कोई स्थान न था। उनकी राष्ट्र की कल्पना पाश्चात्य दर्शन तथा चिंतन के आधार पर थी। इतिहास पाठ्यक्रम का आधार पं. नेहरू की विश्व इतिहास की झलक तथा भारत की खोज बनी जिसमें 'धर्म को जहर' तथा ईश्वर, आत्मा आदि के विचारों को नकारा गया।
पं. नेहरू नास्तिक थे (देखें रस्किन डाकिन्स, द गॉड डिलुजन, पृ. 66) अत: उन्होंने भारत जैसे आस्तिकों के देश पर मार्क्सवाद एवं सोवियत संघ चिंतन का मुलम्मा चढ़ाया। अंग्रेजों की भांति उन्होंने भी राष्ट्र की एकता तथा सुदृढ़ता की सबसे बड़ी बाधा 'हिन्दू-मुस्लिम टकराव' बतलाया। अत: भारतीय इतिहास के पाठ्यक्रम को इस प्रकार से लिखवाया गया कि दोनों में एकता दिखे। ये प्रयास कांग्रेस द्वारा स्वतंत्रता से पूर्व ही होने लगे थे। कांग्रेस द्वारा यह प्रयास हुए कि तथाकथित मध्यकाल में हिन्दुओं की स्थिति 'गुलामों' जैसी नहीं या 'द्वितीय श्रेणी के नागरिकों' जैसी नहीं, बल्कि 'छोटे भाई' की तरह से थी। इसीलिए इतिहास में मिश्रित संस्कृति, मिलाजुला राष्ट्र, हिन्दुस्तानी भाषा आदि भ्रामक तथा तथ्यहीन विचारों को आश्रय मिला।
आर. सी. मजूमदार जैसे विश्वविख्यात इतिहासकार से सरकारी रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास लेखन छीनकर डॉ. ताराचंद को दिया गया जिन्हें लोग 'मियां ताराचंद' भी कहते थे। इन्होंने बहुत पहले अपना शोध भारतीय संस्कृति का इस्लाम पर प्रभाव की बजाय इस्लाम का भारतीय संस्कृति पर प्रस्तुत किया था जो विवादास्पद रहा।
मार्क्सवादी घुसपैठ
स्वतंत्र भारत में इतिहास का पाठ्यक्रम पं. नेहरू के विकृत चिंतन तथा कार्ल मार्क्स के भारत के बारे में अधूरे, अधकचरे ज्ञान के आधार पर बना। दोनों ही मूलत: इतिहासकार नहीं थे। दोनों का चिंतन भारतीय मार्क्सवादी लेखकों के लिए मार्गदर्शक बना। कार्ल मार्क्स ने 22 जुलाई 1853 को एक लेख में भारतीय इतिहास के बारे में लिखा, भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं है। कम से कम ज्ञात इतिहास नहीं है। बल्कि यह उन लोगों का इतिहास है जिन लोगों ने कभी विदेशी आक्रमणों का प्रतिरोध नहीं किया, जो बिल्कुल निष्क्रिय बैठे रहे हैं और जो भी आया, भारत को पराभूत कर चला गया। संयोगवश ब्रिटेन का अधिकार हो गया। यह तो तुर्कों, ईरानियों या रूस के अधिकार में हो सकता था। (देखें, कार्ल मार्क्स का लेख 'द फ्यूचर रिजल्ट्स ऑफ द ब्रिटिश रूल इन इंडिया' द न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, 22 जुलाई 1853 पृ. 21) उसने पुन: लिखा, जो भी भारत का इतिहास है, वह सतत् आक्रमणों का है। (वही, पृ.29) मार्क्स की उपरोक्त अज्ञानता भारतीय मार्क्सवादी चिंतकों के लिए एक आदर्श विचार बन गई तथा इसी आधार पर इतिहास पाठ्यक्रम की रचनाए की गई।
1962 ई. के चीन के आक्रमण तथा तत्पश्चात 1965 ई. में भारत-पाकिस्तान आक्रमण के समय मार्क्सवादी इतिहासकारों की भूमिका निष्क्रिय रही, परंतु श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनते ही, राजसत्ता में सहयोग देने से, पुरस्कारस्वरूप भारतीय कम्युनिस्टों ने देश की बौद्धिक सत्ता संभाली। आपातकाल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई थी। कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर डॉ. नुरुल हसन को भारत का शिक्षामंत्री बनाया गया। सोवियत संघ ने भी इन घटनाओं तथा अवसर को समयानुकूल बताया (देखें इंटरनेशनल अफेयर्स, मास्को, नवम्बर 1975 का अंक) उसने मनमाने ढंग से नियुक्तियां कीं। कई इतिहासकारों की नियुक्ति बिना किसी साक्षात्कार के कर दी गईं। संक्षेप में स्टालिन तथा माओत्से तुंग की तर्ज पर भारतीय इतिहास विवेचन पर उन्होंने एकाधिकार करना चाहा।
इतिहास पाठ्यक्रम की स्कूलों की पुस्तकें लिखने के लिए एनसीईआरटी के माध्यम से देश के प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकारों- रोमिला थापर, आरएस शर्मा, सतीश चन्द्र, विपिन चन्द, इरफान हबीब आदि को लगाया गया। 1969 ई. से 2006 तक स्कूलों के इतिहास पाठ्यक्रम में चार बार मुख्य रूप से विचार हुआ जो क्रमश: 1969, 1991, 2001 तथा 2006 में हुआ। इसी दौरान 2001 ई. में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में केवल कुछ तथ्यात्मक परिवर्तन हुए क्योंकि सभी पुस्तकों के उपशीर्षक पहले की भांति ही रखे गए। अत: परिवर्तन की बहुत कम गंुजाइश रही।
कार्ल मार्क्स के दिशा निर्देश के अनुसार, भारत के सही इतिहास को छोड़कर, भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों का इतिहास पाठ्यक्रम बनाया गया। मोटे रूप से इतिहास पाठ्यक्रम से हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का बहिष्कार, मुस्लिम आक्रमणकारियों को महिमामंडित तथा मार्क्स के विचारों के अनुसार इतिहास की व्याख्या की गई। संक्षेप में इतिहास पाठ्यक्रम के माध्यम से राजनीतिक 'प्रोपेगेंडा' को निम्न स्तर के प्रचार का प्रपंच रचा गया। उदाहरणत: हिन्दू धर्म, संस्कृति, दर्शन, वैदिक साहित्य पर तीखे प्रहार किये। आर्य, वैदिक संस्कृति, रामायण महाभारत को पाठ्यक्रम से निकाल दिया। अंग्रेजों के अनुसार भारत में आर्य बाहर से आये, कालगणना, भारतीय इतिहास लेखन पर भ्रामक धारणाओं को स्थान मिला। इतिहास से राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा, महाराणा प्रताप, हेमचन्द्र विक्रमादित्य आदि को निष्कासित कर दिया। भारत में मुस्लिम आक्रमण का उद्देश्य व्यक्तिगत धन प्राप्ति की इच्छा या राजनीतिक बताया, पर मजहबी नहीं। उनके द्वारा पैन इस्लामाबाद, जिहाद या जबरदस्ती धर्म परिवर्तन का नाम तक नहीं लिया। 1857 को अब भी विद्रोह बताया तथा उसका प्रभाव तथ्यों के विपरीत बहुत सीमित बतलाया। इसी भांति भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान को गांधी नेहरू तक सीमित कर दिया। क्रांतिकारियों का वर्णन नाममात्र का किया गया।
सरकारी पाठ्यक्रम
एनसीईआरटी के अलावा भारतीय कम्युनिस्टों तथा कांग्रेस शासित प्रांतों में इतिहास पाठ्यक्रम ने अनेक नई-नई भ्रांतियों को जन्म दिया। एक प्रकार से तथ्यों को एक ओर रख, हिन्दू मुस्लिम एकता, मिलीजुली संस्कृति, अतीत के प्रति उदासीनता तथा उपेक्षा, हिन्दुत्व के विरोध आदि की होड़ सी लग गई। कुछ उदाहरण देना उचित होगा। हरियाणा की चौथी कक्षा में पढ़ाया गया, तुगलक काल में अबोहर की बालिका बीबी नैला ने अपना अपूर्व त्याग दिखाकर, सारे प्रदेश को यवनों के आक्रमण से बचा लिया। उसने यवन सेनापति रंग्जब से शादी कर ली। इसी के पुत्र फिरोजशाह तुगलक ने बाद में दिल्ली में राज किया। छठी कक्षा में पढ़ाया, भारत के मूल निवासी द्रविड़ थे तथा आर्य एक जाति थी जिनका मूल स्थान मध्य एशिया था। सातवीं कक्षा में समय रेखा 100 ई. पूर्व से 800 ई. तक का वर्णन करते हुए केवल दो घटनाएं प्रसिद्ध बताईं- ईसा का जन्म तथा हजरत मोहम्मद की मृत्यु। बाबर की गणना संसार के योग्यतम पराक्रमी शासकों में की तथा मुगलकाल को सांस्कृतिक विकास का स्वर्णयुग बताया गया। आठवीं कक्षा में सफल शासन की एकमात्र कसौटी हिन्दू-मुस्लिम एकता को दर्शाया। शिवाजी का वर्णन नाममात्र का तथा मराठों को लालची लुटेरा बताया। इसके साथ मैसूर के हैदरअली को अत्यधिक योग्य सेनापति, सफल प्रशासक तथा भारतीय वीरत्व का दीपक बताया। इसी प्रकार बिहार के पाठ्यक्रम में कक्षा छह के इतिहास में पढ़ाया जाता रहा है कि चन्द्रगुप्त, सिकंदर के पास मगध पर चढ़ाई करने हेतु गया।
सिकन्दर द्वारा मार दिये जाने की आज्ञा से वह भाग गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय (370-414 ई. शक शासक को समाप्त करके विक्रमादित्य का पद धारण कर प्रथम भारतीय सम्राट था। एक ने लिखा इस्लामी मजहब लोकतांत्रिक है अत: निम्न जाति के लोगों ने इसे सरलता से अपनाया। उत्तर प्रदेश में प्रचलित इतिहास की पाठ्यपुस्तकें सर्वसाधारण रूप से विस्तृत चर्चा का विषय बनी रही हैं। बंगाल, त्रिपुरा तथा केरल में भारतीय कम्युानिस्टों को पहले सरकार बनाने का मौका मिला था। प्रांतीय सरकार के आदेशानुसार भारत से राष्ट्रीय गौरव, धर्म तथा संस्कृति को भुलाकर साम्यवाद के प्रचार को प्रमुखता दी। रामकृष्ण मिशन के स्कूलों को इसमें सहायता न देने पर अनेक जुल्म सहने पड़े। ग्यारहवीं के छात्रों को बोल्शेविक क्रांति पर तीस पृष्ठों को पढ़ने के लिए विवश किया गया।
चीन के बारे में 18 पृष्ठ पढ़ने अनिवार्य थे, आठवीं कक्षा में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक एमएन राय को स्वतंत्रता के क्रांतिकारियों से जोड़ दिया। मोहम्मद साहब का एक महान जनरक्षक तथा पंडितों द्वारा शूद्रों पर अत्याचारों को बढ़ा-चढ़ाकर दिया। 1917 की क्रांति को शोषण से मुक्ति की त्राता बतलाया। 1989 ई. में एक सरकारी आदेश दिया गया कि किसी भी पुस्तक में इस्लामी क्रूरता का कोई भी वर्णन नहीं होना चाहिए। साथ ही जबरदस्ती कन्वर्जन तथा हिन्दू मंदिरों के ध्वंस का वर्णन न हो। केरल तथा त्रिपुरा में भी इतिहास पाठ्यक्रम को लाल रंग से रचने का प्रयास हुए। हिन्दू धर्म को बचाने के लिए ईसाई पंथ का प्रवेश आवश्यक बताया गया। इस्लाम तथा ईसाई समुदायों की सराहना की गई तथा हिन्दू परम्पराओं पर कुठाराघात किये। इतना ही नहीं पार्टी लाईन के आधार पर न लिखने से दो इतिहास लेखकों एमजीएस नारायण तथा ए श्रीधरन मेनन ने त्यागपत्र दिये। स्वाभाविक है कि उपरोक्त कपोल कल्पित, तथ्यहीन, राजनीति प्रेरित तथा भ्रमित इतिहास पाठ्यक्रमों के विरुद्ध समय-समय पर जन प्रदर्शन, हस्ताक्षर अभियान विचार गोष्ठियां, न्यायालयों में सुनवाई तथा भारतीय संसद में अनेक प्रश्न हुए। कहीं-कहीं सरकार को झुकना पड़ा। न्यायालय द्वारा एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से 75 अनुच्छेद हटाये गए, कुछ सरकारों ने मामूली संशोधन भी किये। कुल मिलाकर बात वही रही ढाक के तीन पात।
एक अंग्रेजी कहावत है भ्रष्टाचार ऊपर से समाप्त होता है तो शिक्षा नीचे से प्रारंभ होती है। गत एक वर्ष में श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में कहावत का पहला अंश तो पूरा हो गया पर दूसरा भाग शेष रहता है। यह सत्य है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं, परंतु भारतीय जन समाज पिछले सड़सठ वर्षों (1947-2014) से इतिहास पाठ्यक्रम में बदलाव की बड़ी सात्विक भाव से वैचैनी से प्रतीक्षा कर रहा है। सही इतिहास के अभाव में प्रत्येक वर्ष दसवीं की परीक्षा पास करते ही छात्र-छात्राओं में ही तीव्रता से वैचारिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। अत: शिक्षा के क्षेत्र में इतिहास पाठ्यक्रम में तीव्रता के साथ आमूलचूल परिवर्तन शिक्षा को प्राथमिकता में आना चाहिए।
डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल
अध्यक्ष, अ.भा. इतिहास संकलन योजना
इतिहास में आवश्यक है भूल- सुधार
टिप्पणियाँ