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प्रशांत बाजपेई
22 जुलाई को पंजाब के गुरदासपुर में तड़के साढ़े पांच बजे हुआ जिहादी हमला सारे देश को हिला गया। हमले के बाद सुरक्षा बलों ने मोर्चा संभाला। इस बीच अमृतसर-पठानकोट रेल लाइन पर लगाए गए 5 बम बरामद हुए। 11 घंटे बाद तीनों आतंकी मार गिराये गए। शवों की जांच से पता चला कि तीनों आतंकी मुस्लिम थे। उन्होंने अपने शरीर के सारे बाल साफ कर रखे थे जैसा कि फिदायीन करते हैं। उनके पास से गोला-बारूद और कंधे पर रखकर चलाया जाने वाला राकेट लॉन्चर बरामद हुआ। लेकिन हथियारों पर से उनको बनाने वाली आर्डनेंस फैक्ट्री के चिन्ह हटा दिए गए थे। गृहमंत्रालय के अनुसार ये लश्कर ए तैय्यबा के आतंकी थे, जो पाकिस्तान से हमारी सीमा में दाखिल हुए थे। इस आतंकी हमले से देश में एक बार फिर गुस्से की लहर दौड़ गयी। कुछ ही दिन पहले रूस के उफा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच बातचीत हुई थी। शरीफ ने आतंकवाद के विरुद्घ अपनी प्रतिबद्घता दोहराई थी। तो क्या नवाज शरीफ झूठ बोल रहे थे? या वे सच बोल नहीं सकते थे? दोषी कौन है? नवाज या राहिल शरीफ? या उन्माद और बारूद के इस हमाम में सभी नंगे हैं? और सबसे बड़ा सवाल। अब भारत के पास क्या विकल्प हैं?
पिछले कुछ हफ्तों में भारत की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में पाकिस्तानी पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के साक्षात्कार और लेख छपे हैं। उनमें ज्यादातर में कहा गया है कि अगर नवाज और मोदी आपसी सहयोग के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो पाक फौज उसमें अड़ंगा नहीं लगाएगी। भारत को बातचीत में अडि़यल रुख नहीं अपनाना चाहिए, वगैरह। किसी पाकिस्तानी पत्रकार से आप और क्या लिखने की उम्मीद करते हैं? लेकिन ऐसी ही बातों को आधार बनाकर भारत के कई स्तम्भ लेखकों ने प्रधानमंत्री मोदी पर 'जल्दबाजी'और 'लोचरहित रवैये'जैसे आरोप लगा डाले। मुशर्रफ के कश्मीर फार्मूले की भी तारीफ में कसीदे पढ़े और पढ़वाए गए। ये भी कहा गया है कि पाकिस्तान के आकाओं यानी खाकी वालों की सोच बदल रही है। कई बार लगता है कि हम सामने वाले की अच्छाई पर भरोसा करने के लिए बेचैन रहते हैं। क्या रूमानी फन्तासियां अमन की आशा में तब्दील हो सकती हैं? हो सकता है कि ये बातें कुछ तीखी लग रही हों लेकिन आगे आने वाले विवरण संभवत: आपकी सोच बदल दें।
एक बात को शुरुआत में ही समझ लेना अच्छा होगा कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार की फौज के सामने हैसियत उस अर्दली की है जो अपने साहब के कहने पर मालिक की भूमिका निभा रहा है। इससे फौज को जिम्मेदारियां उठाये बिना असीमित और निर्द्वंद्व सत्ता का सुख प्राप्त है। अन्यथा पाक सरकार अपनी विदेश नीति, खासतौर पर भारत और अफगानिस्तान नीति पर तो खाकी वालों की खींची रेखा से एक इंच आगे नहीं जा सकती। रक्षा नीति, सैनिक बजट आदि पर भी पाकिस्तान के सत्ताधीश केवल दस्तखत करते हैं, तय नहीं करते। धरती के सबसे अशांत इलाकों में से एक इस इस्लामी मुल्क में अल्लाह के बाद सेना की ही सत्ता को मान्यता है। वह सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक है। आईएसआई, एहतेसाब, आईएसपीआर, मिलिट्री इंटेलीजेंस, स्पेशल सर्विस ग्रुप वगैरह के नाम सुनकर ही पाकिस्तानियों की रीढ़ में सनसनी दौड़ जाती है, सियासतदानों का खून सर्द हो जाता है। प्रेस, व्यापार, शिक्षा हर जगह खाकी का ही बोलबाला है।
पाक फौज का पाकिस्तान स्टॉक एक्सचेंज में सबसे बड़ा हिस्सा है। फौज बैंक, एयरलाइन्स, स्टील, सीमेंट, टेलीकॉम, पेट्रोलियम, स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर बेकरी के क्षेत्र तक निरंकुश व्यापार कर रही है। फौज की सरपरस्ती में चल रहे रक्षा मंत्रालय के उपक्रम, जैसे फौजी फाउंडेशन, आर्मी वेलफेयर ट्रस्ट, शाहीन फाउंडेशन और बहरिया फाउंडेशन फौज के अफसरों के लिए धनोपार्जन कर रहे हैं। मुनाफा मोटे फौजियों की जेब में जाता है और घाटा सरकार की जेब से वसूला जाता है। इस सब के खिलाफ कोई नहीं बोल सकता, पाकिस्तान का प्रधानमंत्री भी नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब नवाज शरीफ की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था तो नवाज ने उसका जवाब गर्मजोशी से देने की कोशिश की थी , लेकिन जल्दी ही नवाज की मुश्कें कस दी गयीं। उस समय राहिल शरीफ के इशारे पर इमरान खान ने आजादी मार्च और मौलाना ताहिर उल कादरी ने इंकलाब मार्च निकालकर नवाज की नाक के नीचे जो धमाचौकड़ी मचाई, और जिस प्रकार से फौज ने अपनी जेब में छिपे खंजर चमकाए, उससे नवाज के होश उड़ गए और वे पुराने कश्मीर राग पर लौट आए। विडम्बना ये है कि नवाज बेचारे जरूर हैं पर उतने शरीफ भी नहीं हैं। अब इसे उनकी सियासत की मजबूरी कहें या राजनैतिक कुटिलता, लेकिन पाकिस्तान के पंजाब में पल रहे दुनिया के सबसे दुदांर्त जिहादी संगठनों से उनकी पाकिस्तान मुस्लिम लीग की गाढ़ी छनती है। इसके बनिस्बत उनकी पूर्ववर्ती पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का रवैया आतंकवाद के विरुद्ध अधिक स्पष्ट था। लेकिन अपने गृह प्रांत सिंध में 'पापीपा' भी कट्टरपंथियों के साथ गलबहियां डाले घूमती है। बचे इमरान खान। उनका उपनाम ही 'सूटबूट वाला तालिबान' है, जो तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान को आधिकारिक दर्जा देने का मांगपत्र लिए घूमते हैं। खैबर पख्तून ख्वा में जब इमरान की पार्टी सत्ता में आई तो उसने कानून बनाया कि मुसलमानों को सफाईकर्मी के रूप में भर्ती नहीं किया जा सकता। मतलब ये कि कचरा उठाना, नाली साफ करना केवल गैर मुसलमानों का काम है।
दिसंबर 2014 पेशावर के एक सैनिक स्कूल पर तहरीके तालिबान के आतंकियों ने हमला करके 132 बच्चों को मार डाला। पाकिस्तान की जनता भ्रमित और सदमे में थी। पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष और प्रधानमंत्री बदले की कसमंे खा रहे थे। सेना ने कार्यवाही शुरू की और जल्दी ही कैमरे के सामने कुछ लाशें पेश कीं। इस बीच हाफिज सईद, परवेज मुशर्रफ और आईएसआई के प्रचार तंत्र ने इस हमले को भारत की हरकत बताकर आसमान सर पर उठाना शुरू कर दिया था। इन सब बातों से एक हवा बन गई या बना दी गई कि रावलपिंडी (फौज का मुख्यालय) वालों का दिल बदल गया है और अब वे आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का मन बना चुके हैं।
फौज ने जिहादियों के खिलाफ 'ऑपरेशन जर्ब ए अज्ब' चलाया हुआ है, आदि। इस 'बदले हुए दिल' को समझने के लिए पाकिस्तानी फौजियों के 'अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान' का फर्क समझना जरूरी है। अच्छा वह, जो फौज की बात मानता है, और बुरा वह जो अपनी मनमानी करता है। दर्जनों तालिबान गुटों में से, अच्छा तालिबान वह होता है जो शियाओं और अहमदियों की हत्याएं करता है, बलूचिस्तान में फौज की तरफ से बलूचों की लाशें गिराता है। बुरा तालिबान वह, जो अपनी नस्लीय बाध्यताओं के चलते फौज की हुक्म-उदूली करता है, कभी-कभी दूसरों के साथ फौजियों पर भी हाथ साफ कर देता है। ऐसे ही 'बुरे तालिबानियों' को चुनकर निपटाया जा रहा है 'ऑपरेशन जर्ब ए अज्ब' में।
पिछले 14 महीनों से पाकिस्तान की सेना की पूरी ताकत झोंककर, अमरीकी तकनीक का इस्तेमाल करके, फौज के बहादुरों ने लगभग पौने तीन हजार आतंकियों को मार गिराया है। हालांकि पौने तीन हजार शव नहीं दिखाए गए हैं, लेकिन फिर भी पौने तीन हजार कहने-सुनने के लिए अच्छा आंकड़ा है। जानते हैं कि पाकिस्तान के पंजाब में फौज की सरपरस्ती से पल रहे लश्कर ए तैय्यबा के पास कितने प्रशिक्षित आतंकी हैं? जवाब है-तीन लाख। जिहादियों की ये फसल खासतौर पर भारत को ध्यान में रखकर तैयार की गयी है। गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले में लश्कर का नाम आ रहा है। लश्कर हमारे लिए सिर्फ एक आतंकी संगठन है लेकिन पाकिस्तान में लश्कर की गांठें सेना से लेकर सियासत तक और मदरसों से लेकर मौलवियों तक, सबके साथ कसकर बंधी हुई हैं। इन गांठों को समझे बिना इस समस्या का विश्लेषण नहीं किया जा सकता।
लश्कर वैश्विक इस्लामी जिहाद का लक्ष्य और महत्वाकांक्षा रखता है। भारत में हमले करने के अतिरिक्त इसके प्रशिक्षित आतंकी अफगानिस्तान, इराक, चेचेन्या और मध्य एशिया में लड़ते आ रहे हैं। इसमें शामिल आतंकी पाकिस्तान के अलावा अरब जगत, बोस्निया, सोमालिया और यहां तक कि अमरीका और यूरोप से भी हैं। 2008 के मुंबई हमले में न केवल स्थानीय नागरिकों को, बल्कि अमरीकियों, यूरोपियन लोगों, विशेषकर यहूदियों को निशाना बनाया गया था। लश्कर के वैश्विक इस्लामी जिहाद के मकसद का ये बहुत बड़ा प्रमाण है। भारत, बंगलादेश, स्पेन और आस्ट्रेलिया तक इसके 'सेल' हैं। डेविड हेडली के सामने आने के बाद लश्कर की पदचाप यूरोपीय-अमरीकी जमीन तक सुनाई दे रही है। इस्लाम के स्थापना काल के 'सुनहरे दिनों' की वापसी के लिए लश्कर दूसरी जिहादी तंजीमों के साथ मिलकर काम करने को तैयार रहता है। ये हिज्बुल मुजाहिदीन, जैशे मुहम्मद, हरकतुल मुजाहिदीन, तहरीके तालिबान पाकिस्तान, शिया विरोधी लश्करे झांगवी को प्रशिक्षण और सहायता देता आया है। इसके नेटवर्क में पाक फौज, आईएसआई, दाऊद इब्राहिम का माफिया और अल कायदा तक शामिल हैं। लश्कर ए तैय्यबा पाकिस्तान के वास्तविक शासक पंजाबी मुस्लिम एस्टैब्लिशमेंट का वफादार है। एस्टैब्लिशमेंट के घरेलू विरोधी इसके निशाने पर रहते हैं।
लश्कर का परिचय यहीं खत्म नहीं होता। लश्कर में पढ़े-लिखे नौजवानांे की खासी संख्या इस मिथक को चुनौती देती है कि गरीबी और निरक्षरता आतंकवाद के खास कारण हैं। लश्कर उसी पास-पड़ोस और उसी सामजिक दायरे में से हजारों भर्तियां करता है, जिसमें से पाक फौज अपनी भर्ती करती है। इसके लड़ाकों में राजनीतिक लोगों, फौजियों और पाकिस्तान एटामिक एनर्जी कमीशन के निदेशक तक, सबके रिश्तेदार शामिल हैं। ये तंजीम आतंक की फैक्ट्री चलाने के साथ सामाजिक गतिविधियों में भी गहराई तक जुड़ी है। इसके पास 500 कार्यालय, 2200 प्रशिक्षण केंद्र, 150 विद्यालय, 2 विज्ञान कालेज, 3 अस्पताल, 34 डिस्पेंसरी, 11 एम्बुलेंस सेवाएं, विशाल प्रकाशन संस्थान, कपड़ा फैक्ट्री, आयरन फाउंड्री और वैतनिक सदस्य हैं। पाकिस्तानी मदरसा तंत्र पर भी इसकी गहरी पकड़ है। इसलिए दुनिया जिसे दुदांर्त आतंकी के नाम से जानती है उस हाफिज सईद को पाकिस्तान में 'महान सामाजिक कार्यकर्ता' के रूप में देखा-दिखाया जाता है।
2001 में अमरीका ने लश्कर को आतंकी संगठन घोषित कर दिया। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान ने भी 2002 में इसे प्रतिबंधित कर दिया। सब कुछ वैसा ही रहा, बस नाम बदल गया। नया नाम था जमात उद दावा। खाकी वाले तो लश्कर या जमात उद दावा को खूब लाड़ से पाल ही रहे हैं, पंजाब में उसकी जनसामान्य पर पकड़ को देखते हुए पंजाब आधारित नवाज की पाकिस्तान मुस्लिम लीग की सत्ताधारी जमात भी उस पर हाथ डालना नहीं चाहती। लश्कर पर 56 पृष्ठों की वेस्ट पाइंट रिपोर्ट प्रकाशित हुई है-'द फाइटर्स ऑफ लश्करे तैय्यबा-रिक्रूटमेंट, ट्रेनिंग, डिप्लॉयमेंट एंड डेथ'। ये आतंक विरोधी रणनीति पर अमरीकी सरकार को नीतिगत सुझाव देने वाला प्रकाशन है। इसकी सह-लेखिका क्रिस्टीन फेयर का कहना है कि जब आपके सामने एक ऐसी तंजीम हो जिसको इतना व्यापक समर्थन और सहायता प्राप्त हो, तब अमरीका के पास कुछ खास विकल्प नहीं बचते सिवाय प्रतिरोधक खुफिया जानकारी और कानून लागू करने का दबाव बनाने के। फिलहाल भारत के पास भी तात्कालिक रूप से यही दो सीमित विकल्प दिखाई देते हैं। तत्काल परिणाम की उत्कंठा पैदा करने के प्रयास उचित नहीं हैं, जैसा कि लगातार किया जा रहा है। पाकिस्तान ने आतंकवाद पर दिए भारत के सबूतों को निरंतर नकारा है। जकीउर्रहमान लखवी रिहा किया जा चुका है। पाकिस्तानी राजनयिक कश्मीर के मुट्ठीभर अलगाववादियों को महत्व और सुर्खियां दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। सीमा-पार आतंकी घुसपैठ के लिए तैयार बैठे हैं। ऐसे में भारत सरकार द्वारा वार्ताओं में, और वार्ताओं के प्रति दृढ़ रवैया अपनाने की तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा आलोचना आश्चर्यजनक है। वैसे, हमारे सुरक्षा बलों और खुफिया तंत्र को उनकी क्षमताओं का उपयोग और विस्तार करने की स्वतंत्रता है, जो कि एक अच्छा संकेत है।
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