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डा. भरत झुनझुनवाला
दुनिया की पांच उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने 'ब्रिक्स' नाम से समूह बनाया है। इसमें चीन, भारत, रूस, दक्षिण अफ्रीका तथा ब्राजील शामिल हैंं। हाल में इन देशों ने मिलकर 'न्यू डेवेलपमेंट बैंक' की स्थापना की है। बैंक का मुख्यालय चीन की वाणिज्यिक राजधानी शंघाई में स्थापित किया गया है। बैंक का प्रथम प्रमुख भारत के जाने-माने बैंकर श्री के. वी. कामथ को नियुक्त किया गया है। अब तक विश्व अर्थव्यवस्था का वित्तीय संचालन अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष तथा वर्ल्ड बैंक द्वारा किया जाता रहा है। इन दोनों संस्थाओं की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बे्रटन वुड्स नामक शहर में की गयी थी इसलिये इन्हें बे्रटन वुड्स संस्थायें कहा जाता है। इन दोनों संस्थाओं में मुख्य शेयरधारक विकसित देश हैं और इन्हीं देशों के हितों को बढ़ाने के लिये ये संस्थायें काम करती रही हैं। इन संस्थाओं द्वारा विकसित देशों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा दोहन के लिये खोला जाता रहा है। इनकी कार्यपद्धति का ज्वलंत उदाहरण हमारा 1991 का विदेशी मुद्रा संकट है।
1991 में भारत के सामने विदेशी मुद्रा संकट पैदा हुआ था। हमारे उद्यमी पुरानी तकनीकों के सहारे घटिया माल बना रहे थे। जैसे अम्बेसडर कार 10 से 12 किलोमीटर प्रति लीटर में औसत देती थी जबकि दूसरे देशों में 15 से 18 किलोमीटर का औसत देने वाली कारें बन रही थीं। हम इस घटिया माल का निर्यात नहीं कर पा रहे थे और हमारी विदेशी मुद्रा की आवक कम थी। फलस्वरूप विदेशी मुद्रा का संकट उत्पन्न हुआ था। ऐसे में हमारे सामने दो विकल्प थे। एक विकल्प था कि हम अपनी कम्पनियों को घरेलू प्रतिस्पर्धा में ढकेलते और उन्हें तकनीक उन्नत करने को मजबूर करते। जैसे उस समय टाटा द्वारा कार बनाने का लाइसेंस मांगा गया था, जो सरकार ने नहीं दिया था। टाटा को लाइसेंस देते तो प्रतिस्पर्धा गरमाती और सभी कार निर्माताओं को 15-20 किलोमीटर औसत देने वाली कार का उत्पादन करना पड़ता। ये कम्पनियां विदेशों से तकनीक खरीद सकती थीं। दूसरा विकल्प था कि हम विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित करते कि वे आधुनिक तकनीकों को भारत में लायें और यहां कार का उत्पादन करें। दोनों विकल्पों के परिणाम में मौलिक अंतर है। घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देते तो भारतीय कम्पनियों को उच्च तकनीक हासिल करने एवं अपनी कम्पनियों में उन्हें समावेश करने में समय लगता किन्तु दीर्घकालिक परिणाम सुखद होते। भारतीय कम्पनियों के द्वारा कमाये गये लाभ का पुनर्निवेश भारत में किया जाता। हमारे इंजीनियरों को तकनीकों की आंतरिक जानकारी मिलती और हम उन पर सुधार कर सकते थे। हमारा दुर्भाग्य रहा कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ब्रेटन वुड्स संस्थाओं का सहारा लेते हुये विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित किया और घरेलू उद्यमियों को सुधार करने का मौका नहीं दिया गया।
इन संस्थाओं का उद्देश्य है कि विकासशील देशों को गरीब बनाये रखो। उनकी आय को विकसित देशों को यथासंभव स्थानान्तरित करते रहो। जिस प्रकार गरीब आदमी की परेशानी का लाभ उठाकर सूदखोर उसे जीवनपर्यन्त ऋण के जाल में फंसा लेता है उसी प्रकार बे्रटन वुड्स संस्थाओं ने हमारे विदेशी मुद्रा के संकट का लाभ उठाकर हमें विदेशी कम्पनियों के जाल में फंसा दिया। परिणाम है कि आज भी विश्व के संसाधनों की अधिकाधिक खपत विकसित देशों में हो रही है। वर्ल्डवाच संस्था के अनुसार, उत्तरी अमरीका और पश्चिमी यूरोप में रहने वाले 12 प्रतिशत लोगों द्वारा विश्व की 60 प्रतिशत खपत की जा रही है। दक्षिणी अफ्रीका एवं दक्षिणी एशिया में रहने वाले 33 प्रतिशत लोगों द्वारा मात्र 3 प्रतिशत खपत की जा रही है। यदि बे्रटन वुड्स संस्थाओं की मंशा विकसित देशों की खपत बढ़ाने की होती तो वे इस दुरूह स्थिति के निस्तारण की नीति बनाते। वे विकासशील देशों की कम्पनियों द्वारा आधुनिक तकनीक की खरीद को आसान बनाने के अनुदान स्थापित करते। जैसे उच्च गुणवत्ता की कार के पेटेंट को खरीदकर तमाम विकासशील देशों को उपलब्ध कराया जा सकता था। ऐसा करने के स्थान पर इन संस्थाओं द्वारा आधुनिक तकनीकों पर पेटेंट कानून का शिकंजा कसने की वकालत लगातार की जा रही है। इससे विकसित देशों को लाभ और विकासशील देशों को हानि है। ब्रेटन वुड्स संस्थाओं में सुधार लाना कठिन है चूंकि पांचों ब्रिक्स देशों के पास इनके केवल 11 प्रतिशत अंश हैंं। न्यू डेवेलपमेंट बैंक के 100 प्रतिशत अंश इन्हीं देशों के पास हैं अत: ये वास्तव में विकासशील देशों के हित में काम कर सकते हैं। समस्या मानसिक दासता की है।
आज अधिकतर विकासशील देश अपने को अपंग और विकसित देशों को मसीहा मानते हैं। इनमें चीन भी शामिल है। चीन द्वारा मूल रूप से पश्चिमी देशों का अनुसरण किया जा रहा है। चीन द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने यहां बुलाकर फैक्ट्रियां लगवाई जा रही हैं। वह देश अपने पर्यावरण को नष्ट करके विकसित देशों को सस्ता माल उपलब्ध करा रहा है और उनकी खपत बढ़ा रहा है। उस देश द्वारा अपना विशाल विदेशी मुद्रा भंडार इन्हीं देशों में निवेश किया गया है। इसी क्रम में चीन के वित्त मंत्री ने न्यू डेवेलपमेंट बैंक के उद्घाटन पर कहा कि बैंक की भूमिका वर्तमान बे्रटन वुड्स संस्थाओं के पूरक की तरह होगी। ब्रेटन वुड्स संस्थाओं के वर्चस्व को चीन ने स्वीकार कर लिया है। चीन द्वारा हाल में ही स्थापित एशिया इंफ्रास्ट्रचर इन्वेस्टमेंट बैंक द्वारा विश्व बैंक के साथ साझा ऋण देने की बात की जा रही है। अत: चीन के इन संस्थाओं के विचार के विपरीत चलने की संभावना कम ही है। श्री कामत के सामने कठिन चुनौती है कि बे्रटन वुड्स संस्थाओं का अंधानुकरण करने के स्थान पर नई दिशा बनायें। ऐसी विश्व रचना की ओर बढ़ें जिसमें ब्रिक्स देशों में रहने वाले 42 प्रतिशत लोगों द्वारा विश्व के 42 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों की खपत की जा सके।
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