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शर्मा जी वरिष्ठ नागरिक होते हुए भी बुजुगार्ें की बात का सम्मान करते हैं। बुजुगार्ें ने खाली दिमाग को 'शैतान का घर' कहा है। अत: अवकाश प्राप्त करते ही वे कई सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गये। इन दिनों वे दो संस्थाओं के अध्यक्ष, तीन के उपाध्यक्ष, चार के महामंत्री, पांच के मंत्री और छह के कोषाध्यक्ष हैं। सदस्यता वाली संस्थाओं की तो कोई गिनती ही नहीं है। कई संस्थाओं ने तो बिना पूछे ही उन्हें अपनी कार्यकारिणी में रख लिया है। पिछले दिनों जब शर्मा जी ने परिचय पत्र छपवाया, तो वह शादी के कार्ड जितना बड़ा हो गया। अत: उन्होंने सदस्यता वाली संस्थाओं के नाम हटा दिये, फिर भी वह पोस्ट कार्ड जैसा तो रह ही गया। जब वे अपना परिचय पत्र किसी को देते, तो वह उसका स्वास्थ्य देखकर फुरसत से पढ़ने के लिए जेब में रख लेता था।
इतनी संस्थाओं से जुड़ने के कारण वे कंधे पर थैला लटकाये हर दूसरे-चौथे दिन निमन्त्रण पत्र बांटते मिल जाते हैं। किसी संस्था की साधारण सभा, तो किसी का वार्षिकोत्सव; कहीं नये अध्यक्ष का स्वागत, तो कहीं पुराने को श्रद्घांजलि। उनके थैले में कई तरह की मोहरें, संस्थाओं के लैटर पैड और चंदे वाली किताबें भी होती हैं। पहले वे निमन्त्रण पत्र देते हैं और फिर माहौल बनने पर चंदे की किताब खोल लेते हैं। अत: कई लोग तो उन्हें आता देखते ही खिसक जाते हैं। खैर, आप कुछ भी कहें; पर इस तरह शर्मा जी का समय अच्छा कट रहा है।
पिछले दिनों हमारे मोहल्ले के मंदिर का वार्षिकोत्सव था। शर्मा जी उसके अध्यक्ष हैं। श्रीराम कथा, नगर संकीर्तन, बच्चों की प्रतियोगिताएं और भंडारे से लेकर लोगों का मान-सम्मान। सप्ताह भर के कार्यक्रम बहुत अच्छे से सम्पन्न हुए। अंत में धन्यवाद ज्ञापन होना था। शर्मा जी ने वहां उपस्थित अधिकांश लोगों का सम्मान कराया। खन्ना जी ने गुप्ता जी का, गुप्ता जी ने मिश्रा जी का, मिश्रा जी ने सिन्हा जी का, सिन्हा जी ने कपूर साहब का़.़.; इस तरह सबने एक दूसरे का सम्मान कर अपना कर्तव्य पूरा किया। शर्मा जी एक-एक व्यक्ति को बुलाते, उसकी तारीफ के पुल बांधते, और फिर उसका सम्मान करते। उन्होंने मोहल्ले के चौकीदार, सफाईकर्मी, प्रसाद बनाने वाले हलवाई और टैंट वाले के गले में भी माला डलवा दी।
वार्षिकोत्सव निपटने के बाद जब वे फुर्सत में हो गये, तो मैं उनसे मिलने गया। चाय पीते हुए इस विषय पर चर्चा होने लगी।
-शर्मा जी, वार्षिकोत्सव तो काफी सफल रहा?
-हांं भाई। सबने मिलकर काम किया, तभी ऐसा हुआ।
-लेकिन आपने सैकड़ों लोगों का सम्मान किया, ये बात कुछ हजम नहीं हुई। इससे तो सम्मान की ही गरिमा कम होती है।
-देखो वर्मा, इन्सान मान-सम्मान का भूखा तो होता ही है। इसलिए जिसने इस समारोह में थोड़ा भी योगदान दिया, हमने उसके गले में माला डलवा दी। इससे हमें तो कुछ घाटा नहीं हुआ।
-क्यों, इस सबमें काफी खर्चा हुआ होगा?
-जी नहीं। दस रु. की माला आती है और पचास रु. का अंगवस्त्र। जिसने ग्यारह सौ रु़ दिये, उसका माला से और इससे अधिक देने वाले का अंगवस्त्र से अभिनंदन कर दिया।
-क्या हलवाई और टैंट वाले ने भी चंदा दिया था?
– दिया तो नहीं था; पर सम्मान करके हमने उनके बिल में हजार रु. की कटौती तो कर दी।
-और चौकीदार, माली, सफाई कर्मचारी़.़.़?
-सम्मान के असली अधिकारी तो ये ही हैं। इनसे तो पूरे साल काम पड़ता है। इसलिए इनका सम्मान तो होना ही चाहिए।
-लेकिन मैंने तो आपको फूटी कौड़ी नहीं दी। फिर भी़?
-तो क्या हुआ? तुमने वार्षिकोत्सव की रिपोर्ट अखबारों में छपवा दी। ये भी तो योगदान ही हुआ। जहां तक चंदे की बात है, इस बार माफ कर दिया है; पर अगली बार नहीं छोड़ूंगा। 2,100 रु़ अभी से निकालकर रख लो। तुम्हें भी ठीक से सम्मानित करना है।
इतना कहकर शर्मा जी अंदर से अपना सुपरिचित थैला उठा लाये। उनका उत्साह देखकर ऐसा लगा कि वे चंदे की किताब और अंगवस्त्र निकालकर कहीं मुझे यहीं सम्मानित न कर दें। इसलिए मैंने चाय अधूरी छोड़कर वहां से खिसकने में ही भलाई समझी। व्यापारी और उद्योगपति टैक्स बचाने के लिए गणित भिड़ाते हैं। राजनेता इस बात की चिन्ता करते हैं कि चुनाव में खर्चा चाहे जितना हो; पर उसका हिसाब कानूनी सीमा से बाहर न जाए। लेकिन शर्मा जी की कृपा से चंदे का गणित आज ही मेरी समझ में आया। मैं यह भी समझ गया कि पिछले पांच साल से वे निर्विवाद रूप से कई संस्थाओं के अध्यक्ष से लेकर कोषाध्यक्ष तक क्यों बने हुए हैं
यहां से निपटकर शर्मा जी एक साहित्यिक संस्था द्वारा निकाली जा रही वार्षिक स्मारिका के विमोचन समारोह में व्यस्त हो गये। उसमें कई राजनेता भी आने वाले थे। उसके लिए भी उन्होंने मुझे निमन्त्रण दिया; पर मैंने वहां जाना टाल दिया, क्योंकि मेरी जेब फिलहाल एक और माला का भार सहन करने में असमर्थ थी।
विजय कुमार
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