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उत्तराखण्ड राज्य बने करीब पन्द्रह वर्ष हो चुके हैं, लेकिन दूसरे नये राज्यों के गठन के मुकाबले उत्तराखण्ड के विकास की दर काफी धीमी है। यहां देखा जाए तो विनाश की दर तेजी से बढ़ रही है। राज्य सरकार की अदूरदर्शी नीतियों के कारण हिमालय लगातार टूटता जा रहा है। पर्यावरण असंतुलन का नुकसान न सिर्फ राज्य की जनता, बल्कि केदारनाथ त्रासदी के रूप में उसकी कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ी है। पहाड़ों पर बिगड़ते हालात भविष्य में भी बड़े हादसे होने का संकेत दे रहे हैं।
उत्तराखण्ड में सबसे अधिक तबाही यहां के निर्माणाधीन हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स की वजह से हो रही है, यदि इनके निर्माण में भूगर्भ शास्त्रियों के सुझावों को अनदेखा किया जाएगा तो चाहे केन्द्र या राज्य सरकार हो, उसे केदारनाथ हादसे से बड़े हादसों के लिए तैयार रहना चाहिए। जून, 2013 में हुए केदारनाथ हादसे में हजारों लोगों की जानें गईं, इस दौरान दुकान से लेकर मकान तक सब मलबे में तब्दील होकर गंगा में समा गए। इस सब के बीच एक खबर पूरी तरह से दब कर रह गई थी, वह थी जल परियोजनाओं की तबाही। माना जा रहा है कि हेमकुण्ड के समीप गोविंदघाट में जो बर्बादी हुई उसके पीछे असली कारण अलकनंदा पर बनी जे. पी. समूह की जोशीमठ से आगे जलविद्युत परियोजना का कुप्रबंधन था। प्रबंधन वर्ग को 13 जून, 2013 से ही नदी के बढ़ते जलस्तर का पता था, लेकिन जल भंडारण के लालच में खतरे को बुलावा दे दिया। इस कारण 17 जून को पानी जलाशय से बाहर निकलकर बहने लगा। अलकनंदा की सहयोगी खैरोगंगा में जब जलस्तर बढ़ा तो वह बैराज की दीवार को तोड़कर तबाही मचा गया।
ऐसी ही तबाही श्रीनगर गढ़वाल में जीवीके समूह द्वारा बनाए जा रहे बांध की वजह से हुई समूह ने जल भंडारण के लालच में बांध के द्वार बंद कर दिए और जब बांध खतरे मंे लगा तो बिना किसी पूर्व सूचना के बांध के सभी द्वार खोल दिए गए और उसके भयानक परिणाम श्रीनगर निवासियों को भुगतने पड़े। अलकनंदा सबकुछ बहाकर ले गई। कुछ ऐसा ही नजारा सोन प्रयाग के 'एल एंड टी पावर प्रोजेक्ट' में दिखाई दिया। मंदाकिनी घाटी को इस परियोजना ने तबाह कर दिया।
आंकड़े बताते हैं कि 2001-02 में उत्तराखण्ड में 1115 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता था, जो कि 2011-12 में बढ़कर 3618 मेगावाट हो गया। बांधों पर शोध कार्य करने वाले हिमांशु ठक्कर ने भी उत्तराखण्ड में 2013 की तबाही के बाद हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स चलाने वाली कंपनियों के गैर जिम्मेदाराना और अनैतिक रवैये पर काफी सवाल उठाए हैं। गंगा पर कुल 199 छोटी-बड़ी बांध परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं, अलकनंदा-भागीरथी क्षेत्र इन परियोजनाओं से प्रभावित हो रहा है। इन दोनों नदियों की सभी सहायक नदियों का पानी भविष्य के लिए खतरा बन रहा है।
दरअसल उत्तरकाशी क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से हमेशा संवेदनशील रहा है। 1980 में यहां आए भूकंप में सैकड़ों लोगों की जानें चली गईं थीं और जानमाल का भारी नुकसान हुआ था। 'पावर प्रोजेक्ट्स' के दौरान नई बनाई जाने वाली कई किलोमीटर लंबी सुरंगों को बनाने में 'ड्रिल' मशीनों व बारूद आदि का इस्तेमाल होता है। सुरंग तो बन जाती है, लेकिन इनके निर्माण के दौरान चट्टानें अंदरूनी तौर पर फट जाती हैं। उनमें वर्षा का पानी रिसता है और एक दिन अति वृष्टि के रूप में सामने आ जाता है। उत्तराखण्ड में जलविद्युत परियोजनाआंे से पांच हजार से अधिक गांव लगभग 117 किलोमीटर लंबी सुरंगों के ऊपर बसे हैं, जो कि खतरे की जद में हैं। उत्तरकाशी हो या चमौली, पौड़ी हो या रुद्रप्रयाग जिले में ज्यादातर बांध बने हैं या बन रहे हैं। पद्म विभूषण भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. खड़ग सिंह वाल्दिया भविष्य में पर्यावरण बदलाव के विषय में भी चेतावनी देते हुए कहते हैं कि हिमालय-शिवालिक की तलहटी में जो उद्योग लगे हैं उनके धुएं से गैस बन रही है और धुआं मानसूनी बादलों के साथ हिमालय की घाटियों में जाकर एक साथ बरस रहा है। यही वजह है कि अधिक बरसात हो रही है या बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं। इस घटना का परिणाम भारी भूस्खलन के रूप में भी सामने आ रहा है। उत्तराखण्ड बनने से पूर्व चारधाम यात्रा मार्ग पर करीब तीन हजार छोटे-बड़े वाहन आवागमन करते थे, 2015 तक इनकी संख्या 25 हजार से अधिक पहुंच गई। मंदाकिनी, भागीरथी व अलकनंदा घाटियों में रहने वाले लोगों के वाहनों की संख्या भी हजारों की संख्या में बढ़ गई। इन वाहनों के धुएं के प्रदूषण का असर भी हिमालय के पर्यावरण पर पड़ रहा है। वन अनुसंधान से जुड़े डॉ. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि जलविद्युत परियोजनाओं से लाखों की संख्या में हरे पेड़ या तो काट दिए गए या इस क्षेत्र में समा गए। इससे हिमालय के पर्यावरण असंतुलन के विषय पर प्रश्न उठने लगा है। गंगा के किनारे अंधाधुंध भवनों के निर्माण पर भी सवाल उठ रहे हैं। इसके अलावा सरकारी और गैर सरकारी भवन, जो कि गंगा के जलमग्न क्षेत्र में बनाए गए उससे स्वयं सरकार की पर्यावरण संरक्षण की मंशा संदेह के घेरे में है। नदी व भूगर्भ विशेषज्ञ कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया कहते हैं कि हर 30-35 वर्षों के दौरान नदी अपने मूल मार्ग पर जरूर लौटती है, 2013 में गंगा में आई बाढ़ इसका उदाहरण है। वह इसके पीछे बादलों का फटना और हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना एक बड़ा कारण मानते हैं। चारधाम में हेलीकॉप्टर की नियमित उड़ान को भी भविष्य के लिए खतरे के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे कई विषय सामने आ रहे हैं जिनसे हिमालय टूट रहा है। ताजा रपट ये भी कहती है कि पहाड़ों पर जो मार्ग बन रहे हैं, वे जेसीबी मशीन के मलबे के ढेर पर बन रहे हैं। हिमालय को टूटने के कगार से कैसे बचाया जाए, यह निर्णय केन्द्र और राज्य सरकार को करना है, कहीं विकास के लालच में तबाही न हो जाये।
उत्तराखण्ड में कुल प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाएं
घाटीवार संख्या मेगावाट
अलकनंदा 122 6947
भागीरथी 48 3737
गंगा उपघाटी 06 175
रामगंगा 32 619
शारदा 84 12450
यमुना 44 3259
दिनेश
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