|
वर्र्ष 1998 के माह नवम्बर-दिसम्बर की बात है हमारे क्षेत्र मे नीबू प्रजाति के फलों से पूरा क्षेत्र पटा था। विपणन व्यवस्था न होने के कारण यहां इन फलों की बरबादी जो हर बार होती थी उस बार भी तय थी। रामगंगा के करीब उत्तराखंड की इस बीहड़ पट्टी में यहां कोई सरकारी 'कोल्ड स्टोर' भी नही है। कोल्ड स्टोर के सिद्घान्त को लेकर मैंने नीबू प्रजाति के दस हजार फलों को अपने ही क्षेत्र के 3000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कालामुनि नामक स्थान पर जंगलों गड्ढों-खोखले पेड़ों में पुवाल-पिरूल आदि चीजों में लपेटकर रख दिया। शीत ऋतु आ गई। तीन या चार फीट की बर्फ उन गड्ढों-खोखले पेड़ों के ऊपर जम गई । सतह का तापमान शून्य से 7 डिग्री तक नीचे गिर गया। यह बर्फ मई के प्रथम सप्ताह तक बनी रहती है।
ग्रीष्म ऋतु आने के बाद ही मई माह में पिघलनी प्रारम्भ होती है। मई के प्रथम सप्ताह में मैंने इन फलों को देखा तो फल बिल्कुल तरोताजा मिले । तत्कालीन क्षेत्र प्रमुख कुन्दन सिंह टोलिया को सूचना मिली उन्होंने इसका निरीक्षण करने के बाद प्रशासन को इस अनोखे प्रयास की सूचना दी। 10 मई 1999 को कालामुनि स्थान पर इन फलों की प्रदर्शनी लगाई गई व बिक्री का स्टॉल भी लगाया गया। इसके उद्घाटन के लिए अपर जिलाधिकारी पिथौरागढ़ एन.एस.नेगी एवं स्थानीय प्रशासन जनप्रतिनिधि आए। तमाम पर्यटकों के साथ उनके सामने उद्घाटन किया गया और प्रदेश के पूरे पहाड़ी क्षेत्रों में इस तरह के शीत ऊर्जा यंत्र का प्रयोग करने के लिए सूचनाएं आगे की गईं। लोगों ने उस गर्मी में चार रुपए प्रतिफल खरीदकर आनन्द लिया। जबकि क्षेत्र में विपणन व्यवस्था न होने से इन फलों को एक रुपए में तीन फल की दर से खरीदकर वहां संगृहीत किया गया था। कई गुना लाभ होने का कारक यह शीत ऊर्जा ही है जिसमें किसी भी प्रकार की अन्य ऊर्जा की जरूरत नही होती है। इसकी तकनीकी आसान व सरल है।
स्थानीय फल उत्पादकों ने उसके बाद अपने ही घरों के आस-पास इस तकनीक को अपनाकर अपने फलों को 100 से 150 दिनों तक संगृहीत करना सीखा। इतने समय पश्चात ही उनके फलों की कीमत चौगुनी होने लगी। परन्तु सरकार की ओर से किसी भी प्रकार से इस कार्य को बढ़ाने का प्रयास नहीं किया गया। ऊर्जा संरक्षण के लिए हर व्यक्ति को आगे आना पडे़गा। इस प्रकृति में फैली विभिन्न ऊर्जाओं की तलाश करनी होगी। तभी हमारा यह कार्य ऊर्जा व सत्य का तालमेल संतुलित होगा। मैंने मानव ऊर्जा श्रम को बचाने के लिए कृषि के क्षेत्र में हस्तचालित ट्विन डिगिंग फोर्क (खोदने का यन्त्र) हमेशा पूजे जाने वाले शिव के त्रिशूल को इन खेतों मंे उतारा है। त्रिशूल एक बहुत अच्छा कृषि यन्त्र है। कुछ बड़े आकार में बनाने पर इसकी कार्य ऊर्जा व शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। यह बडे़ बोल्डरों को हटाने, कंटीली झाडियों को हटाने व गड्ढ़े बनाने में आसान यंत्र व आत्मरक्षा का एक विशेष यन्त्र साबित हुआ है। 1995 में सिंचाई के क्षेत्र में सूक्ष्म सिंचाई प्रसिद्ध विकसित हुई थी जिसके संचालन में 5 से 10 हॉर्स पावर की यांत्रिक व विद्युत ऊर्जा की खपत होती है।
पहाड़ों के ऊंचे-नीचे खेतों पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति के द्वारा चलाने का प्रयोग किया जो सफल साबित हुआ व जिससे ऊर्जा की बचत हुई। अन्य कई सम्भावनाएं वैकल्पिक ऊर्जा की इस धरती पर हैं जिन्हें भविष्य में शुरू करने का प्रयास होगा। सृष्टि संचालन की सवार्ेच्च शक्ति का स्रोत 'सूर्य' है। इसे हमें बारंबार धन्यवाद देना चाहिए… शत-शत नमस्कार। इस महाऊर्जा के उपहार से हम आज इस नीले ग्रह की भारतभूमि में ब्रह्मांड में आपके साथ 20.79 किलोमीटर प्रति सेकेण्ड ऊर्जा गति से 24 घण्टे आपकी परिक्रमा कर रहे है। आप द्वारा प्रतिक्षण असंख्य प्रकार की ऊर्जा ब्रह्मांड में सर्वव्याप्त रज-रज, कण-कण को ऊर्जावान करती है। पुन: इस महाऊर्जा पुंज को क्षण-क्षण नमस्कार। लेकिन जैसे सूर्य एक ऊर्जा पुंज है वैसे ही प्रकृति में ऊर्जा के विभिन्न रूप मेैजूद हैं यह मेरा मानना है। मानव आदिकाल से प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा के उपभोग के साथ मानव निर्मित वैकल्पिक ऊर्जाओं की खोज और आविष्कार अपनी सुख सुविधाओं और विकास के लिए आज तक करता आया है। आज के इस दौर में विश्व की जनसंख्या विस्फोटक रूप से आगे बढ़ रही है। हर व्यक्ति कई तरह की ऊर्जा का उपभोक्ता है। ईंधन ऊर्जा सबसे महत्वपूर्ण होने के नाते पर्यावरण के लिए खतरनाक भी है। 13000 किलोमीटर व्यास वाली हमारी इस पृथ्वी के गर्भ एवं सतह से ही कोयला, पेट्रोलियम व अन्य बॉयोमास का दोहन किया जा रहा है। जो पर्यावरण के लिए एक गम्भीर विषय भी है। विद्युत ऊर्जा मनुष्य के लिए एक अभिन्न अंग की तरह काम कर रही है। इसके बिना आज के इस नैनो युग में कछ भी चलना संभव नही लगता। अगर विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में उपरोक्त तत्वों का उपयोग हुआ तो स्थिति और भी गम्भीर हो जायेगी। प्रकृति द्वारा वैकल्पिक ऊर्जा के रूप हाइड्रोपावर व सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा ही स्रोत समझे जाते हैं व परमाणु ऊर्जा भी एक सुरक्षित स्रोत हैं लेकिन इसके संयंत्र आदि बहुत खर्चीले हैं एकमात्र हमें प्रकृति प्रदत्त विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं की तलाश करनी होगी जिससे सृष्टि व समाज दोनों का हित हो। ताप ऊर्जा के बारे में तो सब चर्चा करते ही हैं परन्तु क्या शीत ऊर्जा जैसी भी कोई चीज है? 6000 डिग्री सेल्सियस पर सूर्य दमकता है। उष्मा और प्रकाश की उपस्थिति में भौतिक एवं रासायनिक ऊर्जाएं शुरू हो जाती हैं और जीवनचक्र की ऊर्जा चलने लगती है। लेकिन जहां उष्मा व प्रकाश नहीं पड़ता वहां अंधेरा हो जाता है। अन्धकार से तापमान गिर जाता है। ब्रह्मांड में खरबों सूर्य हैं। लेकिन इनकी उष्मा एवं प्रकाश की भी सीमा है। आकाशगंगाएं भी पूरे ब्राह्माण्ड को प्रकाशमान नही कर सकती। शेष शून्य अन्धकार है। अन्धकार ठण्डा है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने उजाले को ऊर्जा मान लिया है लेकिन पता नहीं अभी तक अन्धकार को ऊर्जा का रूप मिला कि नहीं। लेकिन अपने प्रयोग के बाद मैं शीत ऊर्जा को 'डार्क एनर्जी' मानने को तैयार हूं। बिना ईंधन पहाड़ों में 'डार्क एनर्जी' का उपयोग किया जा सकता है तो बाकी दुनिया में क्यों नहीं।
जीवन दानू (लेखक प्रयोगधर्मी किसान है)
टिप्पणियाँ