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सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन की पहली शर्त है अच्छी बातों के लिए एकमत होना. 28 जून को 'मन की बात' संबोधन के जरिए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के सामने अपनी बात रखी तो इस पूरे वार्तालाप में सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन की पुकार थी़ बरसात का पानी सहेजने के लिए पोरबंदर स्थित महात्मा गांधी के 200 बरस पुराने मकान का उदाहरण, रक्षाबंधन पर बहनों का बीमा कराने का आह्वान, बिटिया के साथ अपने फोटो को ट्विटर पर डालने की बात या मानसून में पानी उबालकर पीने, कचरे का प्रबंध करने की बात; हर प्रसंग उस समाज की शक्ति को उठाने-जगाने का प्रयास था जिसके सहयोग के बिना कुर्सी और ताकत अपंग हैं. लेकिन ऐसे भी लोग हैं जिन्हें इस पूरे भावनात्मक वार्तालाप में कुछ नहीं दिखा़ बेकार… चूंकि इस पूरे संबोधन में तत्कालीन राजनीति की रस्साकशी का लेशमात्र भी जिक्र नहीं था और प्रधानमंत्री पूरे बीस मिनट आईपीएल-शशि थरूर या ललित मोदी का जिक्र छेड़े बगैर समाज की चिंताओं-चुनौतियों की बातें करते रहे, इसलिए 'कुछ लोगों' के लिए यह 'बेकार' था़
प्रधानमंत्री राजनीति न करे तो क्या मजा? नेता समाज से सीधे सुख-दुख की बात करे और राजनीति की रेवडि़यां न बांटे तो क्या मजा? नेता राजनीति की धर-पकड़ में किसी पाले का हिस्सा न बने तो क्या मजा?
दरअसल, नेता के सियासी स्वरूप को हराने-जिताने, पोंछने-चमकाने, सजाने और गिराने के खेल में लगी टुकडि़यों की कभी यह इच्छा ही नहीं रहती कि राजनेता उनकी पहुंच से बाहर जाए़, राजनीति के अलावा किसी और रंग में दिखे़ मन की बात कैसे इस देश के मन तक पहुंची इस बात का उदाहरण #री'ा्रीह्र३ँऊं४ॅँ३ी१ की वह लहर थी जो कुछ ही समय में ट्विटर पर 'ट्रेंड' करने लगी़ बात ही बात में हजारों-लाखों लोग सोशल मीडिया पर बेटियों के साथ ली गई सेल्फी साझा करने लगे़
सोशल मीडिया पर सब दिखता है़ पढ़ा जा सकता है़ हिट्स गिने जा सकते हैं किन्तु इस 'हैशटैग' के साथ कुछ और भी जुड़ा था जो अनदेखा नहीं रहना चाहिए़ बच्चियों के प्रति प्यार का पालना बने इन तीन शब्दों के साथ विनम्र राजनीति का वह उदाहरण नत्थी था जहां श्रेय लेने की मारामारी नहीं है़ छोटे से गांव के अज्ञात से प्रधान की पहल का एकाएक दुनिया की नजरों के सामने आना भारतीय राजनीति में उस परिवर्तन का प्रतीक माना जाना चाहिए जहां समाज के नायक, बदलाव के प्रतीक इन्हीं सामान्य सेे चेहरों में खोजे जाएंगे़ राजनेता समाज के इन अनूठे जननायकों को खोजने और आगे बढ़ाने के लिए आगे आएंगे़
बहरहाल, मानसून की दस्तक और राजनीति के कर्कश आरोप-प्रत्यारोपों के बीच बेटियों का जिक्र मद्घम हवा के सुगंधित झोकों की तरह आया है़ इस एक लहर ने राजनीति को बुहारकर समाज का ध्यान उसकी धुरी, उसकी बेटियों पर केंद्रित कर दिया है़ सो, इस बार की आवरण कथा में बात इन्हीं लाडलियों की़ उन चुनौतियों की, जिन्हें ये झेलती हैं़ उन परिवारों की, जिनके लिए बेटियां ही सबकुछ हैं और उस समाज की, जिसकी नींद ट्विटर की इस चहक से खुलती दिख रही है़
बेटियों की बात ही और है, जब जिक्र उनका हो तो बाकी बातें बौनी पड़ जाती हैं़
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