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इतिहास दृष्टि/डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस (23 जून) पर विशेष
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (1901-1953) राष्ट्रभक्ति एवं देश प्रेम की उस महान परंपरा के वाहक हैं जो देश की परतंत्रता के युग तथा स्वतंत्रता के काल में देश की एकता, अखण्डता तथा विघटनकारी शक्तियों के विरुद्ध सतत् जूझते रहे। उनका जीवन भारतीय धर्म तथा संस्कृति के लिए पूर्णत: समर्पित था। वे एक महान शिक्षाविद् तथा प्रखर राष्ट्रवादी थे।
पारिवारिक परिवेश
शिक्षा, संस्कृति तथा हिन्दुत्व के प्रति अनुराग उन्हें परिवार से मिला था। उनके पिता श्री आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने माने विद्वान थे। वे कोलकाता के एक प्रमुख न्यायाधीश एवं कई बार कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे थे। उनकी माता जगतारिणी देवी एक सुशील, सुसंस्कारित तथा दृढ़ विचारों की महिला थीं। पिता स्वभाव से विदेशी शासकों तथा पाश्चात्य संस्कृति के विरोधी थे। वे किसी भी प्रकार के सरकारी दबाव को न मानते थे। उदाहरणत: भारत का साम्राज्यवादी तथा क्रूर वायसराय लार्ड कर्जन चाहता था कि श्री आशुतोष, इंग्लैण्ड जाकर एडवर्ड सप्तम के सम्राट बनने पर उनके राज्याभिषेक के अवसर पर उपस्थित रहें। इसके लिए कर्जन ने उनसे बार-बार कहा था। परंतु उनकी माता ने उन्हें जाने से मना कर दिया था। तब अहंकारी कर्जन ने श्री आशुतोष से कहा था, जाओ, अपनी माता से कहो कि वायसराय एवं गवर्नर जनरल का आदेश है कि वह अपने पुत्र को जाने के लिए कहे। आशुतोष ने इस पर तुरंत उत्तर दिया, मैं मां की ओर से भारत के वायसराय से कहना चाहूंगा कि उनकी मां चाहती है कि उनका पुत्र सिवाय मां के किसी अन्य के आदेश को अस्वीकार करता है, चाहे वह भारत का वायसराय हो या अन्य कोई बड़ा हो। (देखें डॉ. नभ कुमार अदक, श्यामा प्रसाद मखर्जी, ए स्टडी ऑफ हिज रोल इन बंगाल पॉलिटिक्स (1929-1953, पृ. 4) आशुतोष मुखर्जी ने बालक श्यामा प्रसाद में प्रारंभ से ही आदशार्ेन्मुख यथार्थवादी दृष्टि, प्रखर राष्ट्रभक्ति तथा देशप्रेम के गुणों को सुनियोजित ढंग से विकसित किया था। अटूट आत्मविश्वास, दृढ़ता तथा निर्भीकता उन्हें माता-पिता से मिली थी। शिक्षा के क्षेत्र में वे मैट्रिक से उच्च शिक्षा तक हमेशा प्रथम श्रेणी में थे। वे 'लिंकन्स' में पढ़ने इंग्लैण्ड भी गये थे। इसके साथ पत्र-पत्रिकाओं से उनकी रुचि थी। 1934 ई. में केवल 33 वर्ष की आयु में वे कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलपति बन गये थे तथा 1936 ई. में उन्हें डॉक्टर की उपाधि दी गई थी। शिक्षा उनका मुख्य क्षेत्र रहा।
प्रखर राष्ट्रवादी
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का 1929 ई. से सार्वजनिक जीवन का प्रारंभ हुआ, जब वे पहली बार बंगाल विधान परिषद के सदस्य (एमएलसी) बने। वे 1936 ई. तक इसके सदस्य रहे। इस काल में उन्होंने देश की प्रत्यक्ष राजनीतिक गतिविधियों का गहराई से अध्ययन किया। यद्यपि इस काल में उनका मुख्य क्षेत्र शिक्षा संबंधी समस्याएं तथा विकास रहा तो भी उन्होंने अंग्रेज सरकार की क्रूर एवं दमनकारी नीतियों का कठोर भाषा में प्रतिरोध किया। उन्होंने परिषद में रहते हुए साइमन कमीशन तथा अन्य आंदोलनों में पकड़े हुए सत्याग्रहियों के प्रति सहानुभूति जताई तथा जेलों में दी जा रही यातनाओं का भंडाफोड़ किया। उदाहरणत: एक पूर्व संपादक सत्याग्रही को धोबी घाट पर लगाया गया था। अनेक पढ़े लिखों को तेल निकालने की मिल में लगाया गया था। वंदेमातरम् कहने पर सजा दी जाती थी, गांधी टोपी न हटाने पर सजा दी जाती, मरीजों को बिना दवा चिकित्सालय से भगा दिया जाता आदि -आदि (देखें बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल कार्यवाही भाग 35, दिनांक 11 अगस्त, 1930, पृ. 76) संक्षेप में उनके वक्तव्यों से जन समाज में अद्भुत जागृति आई तथा राष्ट्रीय आंदोलन को गति मिली।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1937-1941 तक (1935 के अधिनियम के आधार पर) 1937 में बंगाल से चुनकर आये थे। इस काल में उन्होंने भारत में होने वाली राजनीतिक गतिविधियों और सरकारी नीतियों के संबंध में खुलकर अपने वक्तव्य तथा सुझाव दिए। वे पहले ही कांग्रेस द्वारा कम्युनल अवार्ड स्वीकृत करने से क्षुब्ध थे। 1939 ई. में वे वीर सावरकर के प्रभाव में आकर हिन्दू महासभा में सम्मिलित हो गये थे तथा शीघ्र ही उसके अखिल भारतीय सर्वोच्च नेता बन गये थे। वे बंगाल के प्रधानमंत्री फजलूल हक के साम्प्रदायिक मंत्रिमंडल द्वारा हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचारों से परिचित थे (विस्तार के लिए देखें, उमा प्रसाद मुखोपाध्याय फ्रोम ए डायरी (ऑक्सफोर्ड 1993)) डॉ. मुखर्जी ने हिन्दू समाज के लिए सुरक्षा के बारे में खुलकर वकालत की। इन्हीं दिनों सुभाषचन्द्र बोस तथा गांधीजी में परस्पर टकराव हो रहा था। इतिहास की यह विस्मयकारी घटना है कि महात्मा गांधी की 26 फरवरी 1940 ई. को कोलकाता में डॉ. मुखर्जी से भेंट हुई तथा उन्होंने डॉ. मुखर्जी के हिन्दू महासभा में सम्मिलित होने पर अति प्रसन्नता व्यक्त की। गांधीजी उस समय नोआखली में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों से दु:खी थे। दोनों के बीच संक्षिप्त वार्तालाप उल्लेखनीय है। जब गांधीजी को डॉ. मुखर्जी के हिन्दू महासभा में जाने का समाचार मिला तो वे बोले, कोई तो मालवीय जी के बाद हिन्दुओं के नेतृत्व के लिए चाहिए था। इस पर मुखर्जी ने कहा, तब आप मुझे एक 'कम्युनल' की भांति देखें। गांधी जी बोले, समुद्र मंथन के पश्चात भगवान शिव ने विषपान किया था, किसी को भारतीय राजनीति का विषपान करना ही होगा। यह तुम ही हो सकते हो। वस्तुत: गांधी जी डॉ.मुखर्जी के उदार तथा राष्ट्रीय विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे। जाते-जाते उन्होंने डॉ. मुखर्जी से पुन: कहा, पटेल एक हिन्दू मस्तिष्क का कांग्रेसी है, तुम एक कांग्रेस मस्तिष्क के हिन्दू सदृश हांेगे (देखें, बलराज मधोक पोट्रेट ऑफ ए मार्टियर: बायोग्राफी ऑफ डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (मुम्बई 1969, पृ. 26) प्राय: राजनीतिक गतिविधियों पर डॉ. मुखर्जी का वक्तव्य सर्वप्रथम तथा बेबाक होता था, न वह दुविधापूर्ण होता था, न विवादास्पद। 1941 की जनगणना के समय उन्होंने अनुसूचित जातियों को स्वयं को हिन्दू लिखवाने का आह्वान किया था। साथ ही सरकार द्वारा जानबूझकर जनगणना को प्रभावित करने की कटु आलोचना की थी। (देखें, उमा प्रसाद मुखोपाध्याय डायरी, पृ. 46) 24 मार्च 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पहली बार पारित पाकिस्तान के प्रस्ताव का सर्वप्रथम विरोध डॉ. मुखर्जी ने किया था तथा इसे प्रारंभ में ही दबाने की बात की थी। द्वितीय महायुद्ध के प्रारंभ के समय डॉ. मुखर्जी ने लार्ड लिनलिथगो की एकपक्षीय घोषणा की तीव्र निंदा की थी। दिसम्बर 1940 ई. में उन्होंने मदुरै में हिन्दू महासभा के अधिवेशन में अध्यक्षता करते हुए कहा था कि वे ब्रिटिश सरकार के युद्ध सिद्धांतों तथा उद्देश्यों को स्वीकार नहीं करते, जब तक भारत के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता।
डॉ. मुखर्जी एक ओर 'फासिज्म व नाजिज्म' तथा दूसरी ओर साम्राज्यवाद, दोनों के उद्देश्यों का कमजोर देशों पर अधिपत्य स्थापित करना मानते थे। साथ ही यह मांग की कि भारतीयों को 'सैनिक प्रशिक्षण' दिया जाय ताकि यदि जापान का अचानक आक्रमण हो तो वे देश की रक्षा कर सके। साथ ही डॉ. मुखर्जी ने धमकी दी कि यदि वास्तविक सत्ता का हस्तांतरण की बात नहीं होती तो सीधी कार्रवाई होगी। उल्लेखनीय है कि यह वह समय था जब इसी प्रश्न पर कांग्रेस का नेतृत्व बंटा हुआ था तथा भारतीय कम्युनिस्ट शीघ्र ही पासा पलटकर रातोंरात सरकारी एज् ोंट अथवा मुखबिर बन रहे थे। डॉ. मुखजी तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के पारखी थे। 1941 में बंगाल के फजलूल हक को मुस्लिम लीग के सहयोग लेने से अपनी स्थिति डांवाडोल लगी। मुस्लिम लीग के बंगाली नेता नाजिमुद्दीन तथा सुहरावर्दी शासन पलटने की ताक में थे। फजलूल हक को किसी हिन्दू संगठन के सहारे की आवश्यकता थी। डॉ. मुखर्जी ने हिन्दू हित में उसके निमंत्रण को स्वीकार किया। 12 दिसम्बर 1941 को मंत्रिमंडल बना तथा डॉ. मुखर्जी को वित्त मंत्री बनाया गया। वे लगभग दो वर्ष से अधिक समय तक वित्त मंत्री रहे।
वित्त मंत्री रहते हुए भी उनका मुख्य केन्द्र बिन्दु राष्ट्रनीति रहा। मार्च 1942 में क्रिप्स मिशन के आगमन पर तथा उसके बेहूदे सुझावों पर सबसे पहले अस्वीकृति की मुहर डॉ. मुखर्जी ने लगाई। वे इस संदर्भ में पटेल से भी मिले जिसने उन्हें सहयोग देने का आश्वासन दिया (देखें, डायरी के पृ. 62-64)
डॉ. मुखर्जी ने 1942 के आंदोलन में पकड़े गये सत्याग्रहियों की विविध प्रकार से सहायता की। महात्मा गांधी की रिहाई की मांग की। उन्होंने राजगोपालाचारी सूत्र तथा कांग्रेस कार्यकारिणी के समझौतावादी सुझावों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने हिन्दुओं के अधिकारों, हितों तथा सुरक्षा की मांग की। उन्होंने अपने भाषणों में हिन्दू-मुसलमान या ईसाई कोई भी हो सर्वप्रथम भारतीय होने की बात कही (डॉ. मुखजी, अवैक हिन्दुस्थान, पृ. 76-77) उन्होंने अपने भाषणों में हिन्दू की परिभाषा दी। उनके अनुसार भारत में पैदा हुए किसी भी भारतीय मत तथा सम्प्रदाय में आस्था तथा भारत को अपनी पवित्र पितृभूमि मानने वाला हिन्दू है (अवैक हिन्दुस्थान पृ. 121)
अगस्त 1945 ई. में लार्ड वेवल ने शिमला सम्मेलन किया। उद्देश्य था भारत में अंतरिम सरकार की स्थापना, जिसमें कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग की समान कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में भाग लेने की स्वीकृति दे दी। डॉ. मुखजी ने इसका दो आधार पर विरोध किया, प्रथम, समानता का सिद्धांत गलत तथा अन्यायपूर्ण है जबकि हिन्दू 60 प्रतिशत तथा मुस्लिम 24 प्रतिशत हैं। दूसरे, सत्ता हस्तातरण के बाद भी प्रशासकीय अधिकार 1919 के अधिनियम के अनुकूल ही बने रहेंगे। 1946 ई. में कैबिनेट मिशन भारत में आया, जिसके द्वारा अंतरिम सरकार की स्थापना हुई। जिसे डॉ. मुखर्जी ने कैबिनेट मिशन के सुझावों को पाकिस्तान निर्माण का पासपोर्ट कहा। आठ मार्च 1947 को कांग्रेस ने पहली बार पंजाब विभाजन को स्वीकार किया था। कुछ काल बाद यह मांग बंगाल में भी उठी।
महान राजनीतिज्ञ
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल विधानसभा से चुनकर भारत की संविधान सभा के लिए चुने गए थे। गांधी जी के प्रयत्नों से भारत सरकार में कुछ गैर कांग्रेसी व्यक्तियों को भी सम्मिलित किया गया। वीर सावरकर के कहने पर डॉ. मुखर्जी भी इसमें शामिल हुए। उन्हें उद्योग तथा आपूर्ति विभाग का मंत्री बनाया गया। वे लगभग ढाई वर्ष इसमें रहे। उनके समय बंगाल में कई बड़े उद्योग लगाये गए। उनका अब भी मुख्य लक्ष्य हिन्दुओं के हितों की रक्षा करना था। वे पाकिस्तान के साथ एक मजबूत नीति चाहते थे। पाकिस्तान में रह रहे हिन्दू उनकी चिंता का मुख्य विषय बने रहे। इसके साथ ही हैदराबाद तथा कश्मीर के प्रश्न पर वे बड़े गंभीर थे। हैदराबाद का निजाम उस्मान अली पूर्णत: स्वतंत्र शासक बनना चाहता था। डॉ. मुखर्जी इस संदर्भ में नेहरू जी की कमजोरी जानते थे। वे इसके लिए सरदार पटेल को उपयुक्त व्यक्ति मानते थे। अत: इस मुद्दे पर पहले ही उन्होंने पटेल से स्वीकृति ले ली थी। अत: जब विषय नेहरू जी के सम्मुख आया तो नेहरू के कुछ बोलने से पूर्व सरदार पटेल ने स्वीकृति दे दी। अत: इसी प्रकार कश्मीर की गंभीर समस्या थी।
कश्मीर के प्रश्न पर डॉ. मुखर्जी का नेहरू से टकराव था। डॉ. मुखर्जी का एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना करना था। उन्हें लगता था कि हिन्दू महासभा को सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्थान के कार्यों में लगना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में एक बड़ी पार्टी की आवश्यकता है। अत: सरसंघचालक श्रीगुरुजी के सहयोग तथा कुछ कार्यकर्ताओं की मदद से 21 अक्तूबर 1951 में एक अखिल भारतीय कन्वेंशन बुलाई गई इसमें भारत विभाजन को एक दु:खांतक बेवकूफी माना गया जिससे भारत की कोई समस्या न सुलझी तथा भारत की पुन : एकीकरण की बात कही गई। इसे शांति मार्ग से दोनों देशों की जनता की राय से करने की बात भी कही गई पाकिस्तान में हिन्दुओं की सुरक्षा तथा उनकी संपत्ति की रक्षा की बात भी कही गई। समस्याओं का हल 'कम्युनल' न मानकर राजनीतिक तथा आर्थिक ढंग से करने को कहा गया। (देखें पोर्टर्ेट पृ. 109) पंडित नेहरू ने प्रारंभ से ही जनसंघ को साम्प्रदायिक कहना शुरू कर दिया था। डॉ. मुखर्जी ने इसके उत्तर में पंडित नेहरू की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति तथा वोट प्राप्त करने के लिए इसके दुरुपयोग की कड़ी आलोचना की। डॉ. मुखर्जी ने कहा कि जब मैं संपूर्ण भारतीय इतिहास का चित्र खींचता हूं। मुझे इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलता जैसा पं. नेहरू जिसने देश की इतनी हानि की हो। डॉ. मुखर्जी ने कहा कि पं. नेहरू पर अभारतीय तथा अहिन्दू होने का कुछ ज्यादा ही प्रभाव है। 1952 के चुनाव में भारतीय जनसंघ को केवल तीन सीटें प्राप्त हुईं जिनमें एक डॉ. मुखजी की सीट भी थी।
महान बलिदान
डॉ. मुखर्जी ने भारतीय संसद में पंडित नेहरू से सीधा प्रश्न किया कि कश्मीरी पहले भारतीय तथा बाद में कश्मीरी है या पहले कश्मीरी बाद में भारतीय अथवा पहले कश्मीर तथा बाद में दूसरे तीसरे नंबर पर भी कश्मीरी है। (पोर्टेट, पृ. 132) इस संबंध ने उन्होंने पंडित नेहरू तथा कश्मीर के शेख अब्दुल्ला को कई पत्र लिखे, स्वयं मिले, परंतु पं. नेहरू तथा शेख अब्दुल्ला की मिलीभगत से कोई हल नहीं निकल रहा था। आखिर जम्मू में पंडित प्रेमनाथ डोगरा की प्रजा परिषद के नेतृत्व में भारत में कश्मीर में पूर्णत: विलय के लिए आंदोलन भी हुआ। अनेक लोगों का बलिदान हुआ। आंदोलन जम्मू के साथ दिल्ली में भी फैला। हजारों की संख्या में गिरफ्तारियां हुई। डॉ. मुखर्जी का नेहरू तथा शेख अब्दुल्ला से आखिरी पत्र व्यवहार 9 जनवरी 1953 से 23 फरवरी 1953 तक हुआ। नेहरू ने डॉ. मुखर्जी से मिलने से भी इंकार कर दिया।
आखिर भारत में कश्मीर के पूर्ण विलय तथा एकता के लिए डॉ. मुखर्जी स्वयं 8 मई 1953 को दिल्ली से कश्मीर के लिए चल पड़े। उन्होंने अपने भाषण में कहा, घबराओ नहीं, जीत हमारी होगी। रास्ते में अनेक अड़चनंे डाली गईं। पहले बिना परमिट जम्मू जाने से रोका तथा बाद में अनुमति दी। पर उन्हें शीघ्र ही गिरफ्तार कर लिया गया। शेख अब्दुल्ला की जेल में रखा गया। आखिर चालीस दिन के पश्चात 23 जून 1953 को रहस्य तथा गोपनीय ढंग से उनका प्राणोत्सर्ग हुआ। मां योगमाया ने पंडित नेहरू को कई पत्र लिखे पर देश के प्रधानमंत्री के पास कोई उत्तर न था। मां ने इस महान बलिदान पर कहा, 'मैंने अपने पुत्र को बहुत पहले ही देश की निस्वार्थ सेवा के लिए समर्पित कर दिया था और मेरे पुत्र ने मातृभूमि के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया।' धन्य है ऐसा मां और उसका महान देशभक्त पुत्र जो देश की एकता तथा अखण्डता के लिए राष्ट्रदेव के सम्मुख समर्पित हो गया। – डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल
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