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योग के मुख्य भेद

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Jun 13, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 13 Jun 2015 13:05:52

ज्ञानयोग
कर्तापन के भाव को छोड़ना ज्ञान योग है। माया से उत्पन्न तीनों गुण (सत्व, रज, तम) ही गुणों में बर्तते हैं, 'मैं कर्ता नहीं हूं' ऐसा मानकर कर्म करने वाला ज्ञान मार्गी (ज्ञान योग का साधक) है। गुणों को ही गुणों में बर्तते देखने पर वह स्वयं को भोक्ता भी नहीं मान सकता अत: उसकी कर्मफल में आसक्ति छूट जाती है। इससे वह कर्म करता हुआ भी कर्मफल से नहीं बंधता। आसक्ति रहित होने से कोई आकांक्षा भी नहीं रहती अत: वह नित्य तृप्त रहता है।
कर्मयोग
कर्मफल परमात्मा को समर्पित करना कर्मयोग या निष्काम-कर्मयोग है। कर्म का फल परमात्मा को समर्पित करने से फल के प्रति निर्मम (मेरा नहीं) का भाव आकर साधक की परिणाम में आसक्ति छूट जाती है। इससे वह आशा (अपेक्षा) रहित हो जाता है, और सफलता-असफलता को समान समझने लगता है। यही कर्मयोग है ।
ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों एक ही हैं (एको सांख्यं च योगं च – श्रीमद् भगवद्गीता) क्योंकि दोनों का परिणाम एक ही है – कर्मफल से, कर्मों के बंधन (कर्मपाश) से मुक्ति । क्योंकि एक की साधना करने से दूसरा अपने आप होने लगता है इसलिए दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और परिणाम में भक्ति को देते हैं (सा तु कर्मज्ञानयोगभ्य अपि अधिकतरा । फलरूपत्वात् – नारद भक्ति सूत्र)।
भक्तियोग
परमात्मा से सबसे (सभी जीव, वस्तु, कर्म और घटनाओं से) अधिक प्रेम हो जाना (परा) भक्ति है। यह परा भक्ति परमात्मा के निरंतर (अव्यावृत) भजन (याद करना) से और लोक में भी भगवद्गुण के सुनने और कहने (कीर्तन) से प्राप्त होती है। किन्तु मुख्यत: महात्माओं की कृपा से या भगवत्कृपा के कण मात्र से भी प्राप्त होती है। महात्माओं/महापुरुषों का संग भी भगवत्कृपा से प्राप्त होता है क्योंकि भगवान और अनन्य भक्तों में भेद नहीं होता। अत: सत्पुरुषों के संग की ही साधना करनी चाहिए (तदेव साध्यताम-नारद भक्ति सूत्र)। गौणी भक्ति के तीन भेद हैं – आर्त, जिज्ञासु और अर्थार्थी। ऐसी गौणी भक्ति प्राप्त होने के बाद भी कर्तापन का भाव, फल की इच्छा और अहंकार (जो माया से मुक्त न होने के कारण फिर फिर आते हैं) आदि को छोड़ने की बार-बार कोशिश करनी चाहिए। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्ति की साधना से पराभक्ति प्राप्त होती है। इससे साधक पूर्णता को प्राप्त करता है। नानक, बुद्ध, सबका कल्याण करने वाला (शिव) और सबको आकृष्ट करने वाला (कृष्ण) बन जाता है। (कुछ प्राप्त करने के लिए) कोई आकांक्षा नहीं करता, (प्राप्त के चले जाने पर) शोक नहीं करता, पवित्र (दूसरों को शुद्ध करने वाला) हो जाता है। परमात्म-प्रेम के नशे में मत्त हो जाता है, सदा तृप्त हो जाता है, अपने आप में रमण करता हुआ परमात्मा ही हो जाता है (मत्तो भवति तृप्तो भवति आत्मारामो भवति)। उस दिव्य प्रेम की खुमारी हमेशा बनी रहती है (नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात)।               -पाञ्चजन्य डेस्क

प्राणायाम की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों से हुई है। प्राण (जीवन) और आयाम (नियंत्रण)। इस तरह प्राणायाम केवल सांस को ही नहीं पूरे जीवन को नियंत्रित करता है।
-परमहंस योगानंद

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