गिलगित- बाल्टिस्तान : एक नया विवाद
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गिलगित- बाल्टिस्तान : एक नया विवाद

by
Jun 6, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2015 14:02:53

आलोक बंसल
जम्मू-कश्मीर  राज्य का अभिन्न हिस्सा गिलगित-बाल्टिस्तान जो1947 से पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है, में हाल ही में पाकिस्तान के चुनाव कराने के गलत इरादों का भारत सरकार ने डटकर विरोध किया है। थोड़ी देरी से सही लेकिन सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम सही एवं प्रभावी है। 2 जून को भारत सरकार ने एक कड़े वक्तव्य द्वारा पाकिस्तान के इरादों का तीव्र विरोध किया था। गिलगित- बाल्टिस्तान क्षेत्र व्यूहरचना की दृष्टि से पहले से जम्मू-कश्मीर का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।  लगभग साढ़े छह दशकों से पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में जबरन कब्जा जमा रखा है। 1947-48 में पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को अधिकृत जम्मू-कश्मीर से अलग पृथक पाकिस्तान के अंग के रूप में कब्जा लिया था। 800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले बाल्टिस्तान क्षेत्र को 1971 में लद्दाख स्कॉउट ने पुन: अपने कब्जे में अपने करने का प्रयास किया था। इसके अलावा इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व और सत्ता स्थापित करने का भारत द्वारा विगत में कोई प्रयास नहीं हुआ। जबकि सवैंधानिक और वैध तरीके से यह क्षेत्र 14 अगस्त 1948 से भारत का अभिन्न हिस्सा है, जब स्कार्डू गैरिसन ने समर्पण किया था लेकिन भारत ने कूटनीतिक तरीकों के तहत वैधानिक रूप से अपने इस क्षेत्र के ऊपर दावा नहीं किया था। जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने प्रस्ताव के द्वारा इस क्षेत्र से पाकिस्तानी सेनाओं को हटाने की बात की थी। न तो पाकिस्तान ने ऐसा किया और न ही उसके ऊपर ऐसा करने के लिए कोई विशेष दबाव बनाया गया। पाकिस्तान द्वारा गिलगित-बाल्टिस्तान के ऊपर इस अवैध कब्जे को कराची में 28 अप्रैल, 1949 को अन्जाम दिया गया था जब पाकिस्तानी सत्ता द्वारा आजाद कश्मीर के सदर और मुस्लिम कांफ्रंेस के साथ एक लिखित समझौते के तहत दिया गया। इसी समझौते में इस क्षेत्र के ऊपर पाकिस्तान के प्रशानिक नियंत्रण का दावा प्रस्तुत किया गया। जिसका कि भारत सरकार प्रभावी रूप से विरोध नहीं कर पाई। हुंजा के विरोध के बावजूद 1963 में पाकिस्तान ने चीन-पाक समझौते के तहत 2500 वर्ग मील क्षेत्र जो कि पहले हुंजा राज्य कहलाता था, चीन को दे दिया।
1974 में जुल्फिकार अली भूट्टो ने राज्य के विषय में नियम बनाए। जिसके तहत गिलगित-  बाल्टिस्तान क्षेत्र के बाहरी लोगों से रक्षा सहित लगातार इस सामरिक क्षेत्र में जनांककीय सन्तुलन और परिवर्तन को दिशा दी गई। इस शिया बहुल क्षेत्र में पाकिस्तान ने खैवर पख्तुनख्वा और फाटा जनजातीय पख्तूनों को बसाना शुरू कर दिया। आज इस क्षेत्र में उन जनजातीय लोगों को पाशविक और असभ्य आदिम व्यवस्था में रहने को मजबूर किया जा रहा है। बेशक भारतीय लोग भाषा बांध का विरोध कर रहे हैं क्योंकि यह संवैधानिक तरीके से भारतीय क्षेत्र में स्थित है जो कि पाकिस्तान को बिजली और सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध कराएगा। विश्व बैंक जैसे अन्तरराष्ट्रीय संस्थान  भी इस परियोजना को और गिलगित बाल्टिस्तान क्षेत्र मे चल रही अन्य पनबिजली परियोजनाओं को धन मुहैया करा रहे हैं। ये परियोजनाएं इन उर्वरा घाटियों की जनसंख्या को विस्थापित करने को विवश कर रही हैं। इसलिए भी भारत इन परियोजनाओं के निर्माण का विरोध कर रही है। मीडिया की रपटें यहां तक बता रही हैं कि जब भारतीय प्रतिनिधि मौजूद नहीं थे एशियाई विकास बैंक ने पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर ने 2 पनबिजली परियोजना को अनुदान की स्वीकृति प्रदान की।
1994 में कश्मीर मामलों के मंत्री की अध्यक्षता में एक उत्तर क्षेत्रीय विधान परिषद् (एनएएलसी) शुरू की गई थी, जो कि निष्प्रभावी और निष्क्रिय बनी रही। एनएएलसी स्वयं ने एक मिश्रण था। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों का, जिनके पास कोई वैधानिक शक्ति नहीं थी। अक्तूबर 2004 में अंतिम एनएएलसी के चुनाव हुए थे। जब पाकिस्तान बड़े स्तर पर लोगों के बीच में फूट डालने और भटकाने में असफल हो गया तो पाकिस्तान सरकार ने गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में अपनी सरकार द्वारा विशेष आदेश का शिगूफा छोड़ना शुरू कर दिया। कहा गया कि इस क्षेत्र के लोगों का एक अपना मुख्यमंत्री होगा, जो लगभग 6 मंत्रियों और 2 सलाहकारों का प्रमुख होगा। सरकारी आदेश कहता है कि वहां एक वैधानिक ढांचा होगा, जिसमें कि अपीलीय अदालत होगी। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश शामिल होगे। इसी प्रकार एक पृथक लोकसेवा आयोग, एक मुख्य चुनाव आयोग और लेखा परीक्षक की नियुक्ति होगी। दुर्भाग्य से इसमें मुख्यमंत्री की वास्तविक शक्तियों का जिक्र नहीं है जो कि प्रधानमंत्री की सलाह पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
बेशक एक चुनी हुई विधानसभा होने पर भी वास्तविक शक्ति गिलगित-बाल्टिस्तान के हाथ में जिसके अध्यक्ष पाकिस्तानी प्रधानमंत्री है और ज्यादातर सदस्य पाकिस्तान सरकार द्वारा ही चुने जाते है। विधानसभा और परिषद् के बीच शक्तियों का बंटवारा है। रक्षा विदेश मामले और सुरक्षा विधानसभा और परिषद् दोनों के अधीन हैं। मुख्य न्यायाधीश से लेकर सभी पदों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से परिषद् अध्यक्ष होने के नाते पाकिस्तानी प्रधानमंत्री और वहां की सरकार के हाथ में है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस क्षेत्र का कोई प्रतिनिधि न तो पाकिस्तान के संसद में है और न ही मंत्रिमंडल में। फिर यहां के भविष्य की कौन चिंता करेगा?
इस क्षेत्र के लोगों के बुनियादी अधिकार बांधित हैं। सार्वभौमिक मानवाधिकारों की घोषणा यहां बेमानी लगती है। जो पाकिस्तान सरकार जम्मू-कश्मीर में सामान्य मानवाधिकारों का रोना रोती है उसने इसे क्षेत्र में लोगों का जीना दुश्वार कर रखा है। संवैधानिक रूप से भारत का अभिन्न हिस्सा होने पर भी इस मुद्दे पर अब तक की सरकारें ही नहीं मीडिया भी मौन है। यह सत्य है कि यहां चुनाव की बात करना केवल एक धोखा है। इस क्षेत्र में सक्रिय राष्ट्रवादी संगठन बलावारिस्तान नेशनल फ्रंट (बीएनएफ) ने पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रायोेजित  इस नाटक की तीखी आलोचना की है। इसलिए भारतीय प्रशासन द्वारा गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में प्रस्तावित चुनाव का विरोध करने का अभियान एक सही समय में लिया गया ठोस निर्णय कहा जा सकता है।

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