दूसरे की राह सुगम बनाना ही जीवन-मंत्र
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दूसरे की राह सुगम बनाना ही जीवन-मंत्र

by
May 30, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 May 2015 15:17:49

 

 

 

 

मैं मात्र 11 माह का था कि जब बुखार आने पर मुझे डॉक्टर द्वारा गलत इंजेक्शन लगा देने से मेरे दोनों पांव हमेशा के लिए खराब हो गए। विकलांग होने पर जब स्कूल में दाखिला लिया तो स्कूल प्रबंधन ने मेरे जैसे छात्र का दाखिला देने में पहले आनाकानी की, फिर मेरा विशेष ध्यान रखने के नाम पर पहले टेस्ट लिया और टेस्ट पास करने पर 12 पंखे दान के नाम पर मांगे गए।
मैं पांव खराब होने के कारण कभी कंप्यूटर लैब या लाइब्र्रेरी में न जा सका क्योंकि मैं सीढि़या चढ़कर उन कक्षाआंे मंे नहीं जा सकता था और ये सभी कक्षाएं दूसरी या तीसरी मंजिल पर होती थीं। हर दिन स्कूल जाकर हाथों के सहारे सीढि़यां चढ़कर अपनी कक्षा में जाना बहुत चुनौतीपूर्ण रहता था, लेकिन मैंने कभी हार नहीं मानी। उस समय मेरे पास 'व्हीलचेयर' नहीं थी और न ही स्कूल में उपलब्ध थी। 12वीं कक्षा पास करने के बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय केे पत्राचार से बी. कॉम. में स्नातक की पढ़ाई की और फिर मथुरा से एम. कॉम. के बाद आज मैं कॉमर्स में पी. एच. डी. कर चुका हूं। यहां तक कि परीक्षा केन्द्र पर व्यवस्था न होने के कारण एम़ ए. की परीक्षा तो कार के बोनट पर उत्तर पुस्तिका रखकर देनी पड़ी थी।
स्कूल में पढ़ाई के दौरान जो कष्ट या प्रताड़ना मैंने सही, उसे देखते हुए प्रण कर लिया था कि हर हाल में अपना स्कूल खोलना है जिसमें विकलांग बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था हो। मेरे पिता शीशपाल नागर के सहयोग से वर्ष 2004-05 में मेरे दादाजी की स्मृति में कर्मवीर पब्लिक सीनियर सेकेंडरी स्कूल की फरीदाबाद सेक्टर 11 डी में स्थापना की गई। मैं वर्ष 2007 से शिक्षा पूरी करने के बाद स्कूल से जुड़ गया। मैंने यहां आने के बाद सबसे पहले स्कूल की कंप्यूटर लैब, लाइब्रेरी, म्यूजिक लैब और रोबोटिक लैब को भूतल पर स्थापित कराया। इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि यदि किसी कक्षा में कोई विकलांग बच्चा है तो उस कक्षा के बच्चों को भूतल पर ही बैठाया जाए, ताकि बच्चे को ऊपर न चढ़ना पडे़। साथ ही खेल के मैदान मंे जाने के लिए विकलांग बच्चों के लिए 'रैंप' तैयार कराए गए जिससे वे सीधे अपनी 'व्हीलचेयर' से वहां पहंुच सकें और दूसरे बच्चों की तरह खेल  या दूसरी गतिविधियांे का आनंद उठा सकें। स्कूल मंे विकलांग बच्चों के लिए 'व्हीलचेयर' की व्यवस्था है। स्कूल में विकलांग बच्चों की सुविधा को ध्यान में रखकर भविष्य में लिफ्ट लगवाने की योजना भी है। गत अप्रैल माह में ही हमारे स्कूल को डीपीएस (यूनिट ऑफ दिल्ली पब्लिक स्कूल प्राइवेट लिमिटेड) से उनकी शाखा की मान्यता मिली है। विशेषकर विकलांग बच्चांे को दाखिला देने और उन्हें हर प्रकार की सुविधा मुहैया कराने का मेरा प्रयास रहता है। मैं नहीं चाहता कि विकलांगता के कारण स्कूल मंे जिन परिस्थितियांे का सामना मैंने किया, उस तरह कोई दूसरा छात्र परेशान हो। आज भी अधिकतर स्कूल विकलांग बच्चांे को दाखिला देने से बचते हैं। मेरे संपर्क मंे एक अभिभावक ऐसे भी आए, जो कि स्वयं शिक्षक हैं और जिस स्कूल में कार्यरत हैं, वहां वे अपने बच्चे को इसलिए प्रवेश नहीं दिला सके क्योंकि उनका बच्चा विकलांग था। वह बच्चा हमारे स्कूल में पढ़ रहा है। स्कूल में बच्चों को बस्ते के बोझ से छूट दी गई है। बच्चे यहां टैबलेट पर पढ़ाई करते हैं और उनके शिक्षक हर बच्चे पर नजर बनाए रखते हैं कि कौन-क्या कर रहा है। इसके लिए सबके टैबलेट पर कैमरा, गेम और इंटरनेट ब्लॉक किए गए हैं जिससे कि बच्चों का ध्यान पढ़ाई से न हटे। टैबलेट बीएसएनएल से खरीदे गए हैं। यदि कोई अभिभावक आर्थिक रूप से कमजोर होता है तो उनकी मदद की जाती है।     ल्ल
निर्णायक मोड़- स्कूल मंे पढ़ते समय मैं इस बात को जान चुका था कि विकलांग होने पर शिक्षा ग्रहण करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। इस चुनौती को मैंने सहर्ष स्वीकार किया।

प्रेरणा-  स्व़  दादा डॉ. कर्मवीर सेना से सेवानिवृत्त हुए थे और उनकी इच्छा थी कि हमारा स्कूल हो। उसी दिन हमने प्रण किया था कि अपना स्कूल खोलंेगे।
विजय मंत्र – स्कूल के द्वार से लेकर कक्षाआंे तक पहुंचना कठिन होता था, लेकिन मैंने उससे हार नहीं मानी और आगे बढ़ता चला गया।
संदेश – यदि व्यक्ति की इच्छाशक्ति प्रबल है तो उसके लिए कोई भी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो सकता है, लेकिन असंभव नहीं। 

डॉ. नरेन्द्र नागर
प्रबंध निदेशक, डीपीएस से-11 डी, फरीदाबाद 

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