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डॉ़ सच्चिदानंद जोशी
स्वामी विवेकानंद ने सदा एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की कल्पना की जो व्यक्ति का निर्माण कर सके। उनका समग्र चिंतन इस बात पर लगातार जोर देता था कि हम युवाओं के चरित्र का विकास इस प्रकार करें कि वे समर्पित, चिंतनशील, स्वप्नशील बनें और देश के लिये, समाज के लिये सकारात्मक भूमिका निभाने के लिये तत्पर हों। स्वामी जी की शिक्षा की कल्पना एक समग्र शिक्षा की कल्पना थी। स्वामीजी ही क्यों उनके पूर्व का हमारा भारतीय चिंतन सदा से ऐसी ही शिक्षा की व्यवस्था पर आधारित था। यहां विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा उसके आंतरिक और बाह्य दोनों व्यक्तियों का विकास करती थी और उसे एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में समाज में प्रस्तुत करती थी। गुरुकुल पद्घति में विद्यार्थी सिर्फ ज्ञान के अध्याय ही नहीं सीखता था बल्कि जीवन जीने का ढंग भी सीखता था और अपने ज्ञान को जीवन के साथ आत्मसात् करने की कोशिश करता था। अर्जित ज्ञान का दैनंदिन जीवन के साथ तादात्म्य कैसे बिठाया जा सकता है यह उस समय की शिक्षा का प्रमुख चिंतन होता था।
हमारी विडंबना यह है कि हम अपनी प्राचीन परंपरा का गुणगान तो बहुत करते हैं, लेकिन उससे कुछ सीखना नहीं चाहते। हम हमारी गुरुकुल पद्घति या प्राचीन शिक्षा की अन्य पद्घतियों की प्रशंसा करते नहीं अघाते लेकिन इस बारे में तनिक भी विचार नहीं करते कि उस पद्घति को आज के समय में कैसे हमारी शिक्षा में ला सकते हैं। अभी हाल ही में हमने स्वामी विवेकानंद जी की सार्द्धशती पूरी धूमधाम से मनायी है। इस दौरान हमने स्वामीजी के व्यक्तित्व के कई पहलुओं पर चिंतन किया है, लेकिन क्या इसके बाद भी हम शिक्षा का कोई ऐसा मॉडल खोज पायेे हैं जो स्वामीजी के विचारांे से मेल खाता हो? क्या हम अपनी शिक्षा की मूलभूत सोच मंे ऐसा कोई अंतर ला पाये, जिससे आभास होता होे कि हमारी शिक्षा अर्थनीति के चक्र मे लगने वाले पुर्जर्े नहीं, बल्कि समाज की रचना के लिये उपयोगी व्यक्तियों का निर्माण कर रही है?
क्या है हमारा आज का शिक्षा दर्शन
हमारी शिक्षा का दर्शन आज क्या है? इस प्रश्न का उत्तर आज बड़े से बड़े शिक्षाशास्त्री को भी असहज कर देगा। आज हमने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था समाज को दी है, जो देश और समाज की बात तो जाने दीजिये, व्यक्ति का भी समग्रता से विचार नहीं करती। हमारी खंड-खंड में विभक्त शिक्षा व्यवस्था अधिकांशत: तात्कालिक परिणामों की आकांक्षी है। हमारी शिक्षा व्यवस्था के उथलेपन को इसी बात से समझा जा सकता है कि हमने जिन खण्डों में शिक्षा को बांट दिया है उनके बीच आपस में कोई संवाद या संबंध ही स्थापित नहीं है। हमने शिक्षा के लिए जो हिस्से किये हैं वे भी बदलते समय के साथ अव्यावहारिक हो चले हैं। प्राथमिक, माध्यमिक, हायर सेकेण्डरी और अन्य हिस्सों में बंटी हमारी शिक्षा इन हिस्सों के बीच कोई आपस का रिश्ता कायम कर पाने में अक्षम है। परिणामत: ये सभी हिस्से एक दूसरे से अलग अपनी ही रौ में बहते चले जा रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि इसका परिणाम उस विद्यार्थी के ऊपर विपरीत पड़ता है जो इनसे होकर गुजर रहा है। शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर संवादहीनता की स्थिति को इसी से समझा जा सकता है कि कॉलेजे में पढ़ाने वाले और हायर सेकेण्डरी में पढ़ाने वाले शिक्षक के बीच कोई अकादमिक संवाद ही नहीं है। यही बात हायर सेकेण्डरी और माध्यमिक स्तर पर पढ़ाने वाले शिक्षक के बीच है। इन सभी के बीच अकादमिक संवाद न होने का परिणाम यह है कि इन स्तरों से गुजरने वाले विद्यार्थी का विकास क्रमिक न होकर अव्यवस्थित है। इस विकास में उसकी आयु, योग्यता, क्षमता और अभिरुचि के बीच कोई रिश्ता नहीं बन पाता।
हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के जरिये हम किस लक्ष्य को पाना चाहते हैं यह भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। लगातार क्षणिक आवेग और अल्पजीवी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर केन्द्रित हमारी शिक्षा व्यवस्था कुण्ठाग्रस्त और दिशाहीन युवाओं को तैयार करने में लगी है जो अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग न होकर आत्मकेन्द्रित हो चले हैं। क्रमबद्घता के अभाव में ऐसे युवाओं की फौज कतार में नहीं बल्कि भीड़ में खड़ी नजर आती है। भीड़ की व्यवस्था करना कठिन होता है, यह हम सभी जानते हैं।
तमाम सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षणों के बावजूद हम अभी तक अपनी मानव संसाधन आवश्यकता का सही अंदाज नहीं लगा सके हैं। हमें अभी भी इस बारे में सिर्फ अंदाज से ही काम चलाना पड़ता है कि आने वाले वषार्ें में हमें कितने इंजीनियर, या डॉक्टर या वकील या शिक्षक लगेंगे। परिणामत: इन सभी का निर्माण भेड़चाल में हो रहा है। जब इंजीनियरों की बाढ़ आयी तो हमने इतने इंजीनियरिंग कॉलेज खोल डाले कि अब आने वाले दस वषार्ें में इनके लिए बच्चे जुटाना कठिन हो जायेगा। गलत आकलन के कारण कई इंजीनियर आज अपनी योग्यता के अनुरूप काम पाने में असफल हैं। अव्वल तो ये कि इस भेड़चाल में हमने उन तमाम लोगों को भी इंजीनियर बना डाला जिनकी वास्तविक अभिरुचि इस क्षेत्र में थी ही नहीं, वे किसी दूसरे क्षेत्र में जाना पसंद करते थे। यही हाल अन्य क्षेत्रों के साथ भी हुआ। कम्प्यूटर का युग आया तो हम सभी कम्प्यूटर के लिये उपयोगी संसाधन तैयार करने में जुट गये। इस उत्साह में हम इस बात को भूल गये कि कम्प्यूटर तो सिर्फ एक उपकरण है हमारे ज्ञान को 'प्रोसेस' करने का। इसका तो कार्य तो ज्ञान के भंडार को विकसित एवं व्यवस्थित करना है। बिना सोच के कम्प्यूटर के क्षेत्र में मानव संसाधन तैयार करने का परिणाम यह है कि हम आज ज्यादातर विदेशी कम्पनियों के लिये काम कर सकने वाले लोग बना रहे हैं। अब हम 'सेच्युरेशन' के स्तर तक पहुंच रहे हैं, और अब कम्प्यूटर प्रशिक्षित युवाओं में कुंठा का भाव जागृत हो रहा है।
इन दिनों कानून की पढ़ाई का जोर है। इस बात का आकलन किये बगैर कि हमें आने वाले समय में कितने कानूनविदों, न्यायविदों की आवश्यकता होगी हम धड़ाधड़ लॉ कॉलेज और इंस्टीट्यूट खोले चले जा रहे हैं, आज हमारे अकादमिक रूप से श्रेष्ठतम् युवा कानून की पढ़ाई के इस क्षेत्र की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसका आकलन किये बगैर कि क्या सच में उनकी इस क्षेत्र में अभिरुचि है उन्हें इस ओर सिर्फ इस कारण धकेला जा रहा है कि इस क्षेत्र में पैकेज अच्छा है। ऐसे में आने वाले दो चार वषार्ें में हम इतने सारे कानूनविद् पैदा कर लेंगे कि वहां भी 'सेचुरेशन' आ जाएगा। फिर कानून के क्षेत्र में भी कुंठित युवाओं की एक बड़ी तादाद हमारे स्वागत के लिए तत्पर होगी।
इन लोकप्रिय क्षेत्रों को छोड़ दें तो किस अन्य क्षेत्र में हमने मानव संसाधन की आवश्यकता का आकलन किया है? हमने कभी नहीं सोचा कि समाज को व्यवस्थित रूप से संचालित होने के लिए किन अन्य वृत्तियों की आवश्यकता है, और क्या हमारी शिक्षा उसके लिए आवश्यक मानव संसाधन तैयार कर रही है?
आधारभूत ज्ञान की उपेक्षा
हमारी शिक्षा व्यवस्था पर विचार करते समय हमें इस बारे में भी चिंतन कर लेना चाहिये कि अकादमिक रूप से श्रेष्ठ हमारा मानव संसाधन जा कहां रहा है। वषार्ें से हमारी मानसिकता बनी है कि हमारा सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी या तो आईआईटी में जाये या फिर श्रेष्ठतम् मेडिकल संस्थान में जाये। वषार्ें से हमने इस ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किया है। हमारा अकादमिक रूप से श्रेष्ठतम् विद्यार्थी आईआईटी में पढ़कर विदेशी कम्पनियों में जा रहा है, क्योंकि वहां पैकेज ज्यादा है या फिर चिकित्सकीय कार्य करने विदेश जा रहा है, ऐसे में उसका लाभ हमारे देश को कैसे मिल सकता है, इसका आकलन एक अलग विषय है।
लेकिन इस बारे में भी सोचना होगा कि इंजीनियरिंग या मेडिकल आधारभूत विषय नहीं हैं। आधारभूत विषय जैसे गणित, भौतिकशास्त्र, रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान, प्राणि विज्ञान में हम अपने श्रेष्ठतम विद्यार्थियों को जाने के लिये प्रेरित नहीं कर रहे हैं। इसलिये इन क्षेत्रों में नवीन शोध और अनुसंधान के लिये हमारे श्रेष्ठतम् विद्यार्थी हमें उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। इंजीनियरिंग या मेडिकल आधारभूत ज्ञान में शोध एवं अनुसंधान से उपजे विषय हैं। इसलिये आवश्यक है हमारे आधारभूत विषयों में हमारे श्रेष्ठतम विद्यार्थी जायें। ज्ञान के मूल स्रोत से ही अन्यान्य विषयों की उपज होती है, यह एक प्रामाणिक तथ्य है। इसका हमें ज्ञान होने के बावजूद उसी 'एप्लाइड नॉलेज' के पीछे हम अपने श्रेष्ठतम् विद्यार्थियों को भेजने में लगे हैं।
सामाजिक विज्ञान और मानविकी से जुड़े विषयों का तो और भी बुरा हाल है। इन विषयों की तो विद्यालय स्तर पर घोर उपेक्षा हो रही है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण जीवन के लिये जरूरी है, लेकिन क्या समाजशास्त्र अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, भाषा विज्ञान, सम्प्रेषण शास्त्र, इन तमाम विषयों में हमें श्रेष्ठतम् मानव संसाधन की आवश्यकता नहीं है? आज की हमारी शिक्षा पद्घति में इन विषयों की उपेक्षा का आलम यह है कि कई विद्यालयों मेंे तो इन विषयों की हायर सेकेण्डरी स्तर पर पढ़ाई की व्यवस्था भी नहीं है। इस परिस्थिति में यदि हमारे देश से इन विषयों के विशेषज्ञ नहीं निकल पा रहे हैं तो उसमें आश्चर्य की क्या बात है?
कम ज्यादा फर्क से ऐसी ही उपेक्षा का शिकार हमारी शिक्षक शिक्षा हैं। हम सभी जानते हैं कि एक अच्छा इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, प्रशासक, प्रबंधक-गरज यह कि कोई भी अच्छा वृत्तिज्ञ (प्रोफेशनल) बनने के लिये एक अच्छे शिक्षक की आवश्यकता होती है। अच्छे शैक्षणिक संस्थान अपने भवन, परिसर, या अधोसंरचना से नहीं जाने जाते। वे जाने जाते है वहां पढ़ाने वाले अच्छे शिक्षकों के कारण। भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से ही शिक्षक अथवा गुरु का स्थान सवार्ेच्च है, श्रेष्ठतम् रहा है। इन सभी तथ्यों के प्रकाश में हम जरा अपनी आज की शिक्षक शिक्षा या उस प्रक्रिया पर दृष्टिक्षेप करें जिससे शिक्षक तैयार होते हैं तो हमें घोर निराशा एवं ग्लानि की स्थिति से गुजरना होगा। आज शिक्षक तैयार करने वाले संस्थानों की दशा अत्यंत निराशाजनक है। यह भी महज व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनकर रह गये हैं, जिनका कार्य सिर्फ डिग्री बांटना है। जो लोग शिक्षकीय वृत्ति को अपना रहे हैं वे भी विकल्पहीनता और निराशा की अवस्था में शिक्षकीय वृत्ति को अपना रहे हैं। एक निराश और हताश व्यक्ति के हाथों में हम अपनी नई पीढ़ी के निर्माण का जिम्मा सौंपकर प्रसन्न और निश्चिंत हैं, तथा उनसे सुनहरे भविष्य का सपना देख रहे हैं। स्कूली शिक्षा में शिक्षक शिक्षा का क्षेत्र उपेक्षित और उदासीन है। महाविद्यालय स्तर पर तो और भी खराब परिस्थिति है। श्रेष्ठ शिक्षकों को परखने का और चुनने का पैमाना ही इतना त्रुटिपूर्ण है कि उसके जरिए अच्छे शिक्षक पाने की कल्पना करना ही कठिन है। आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लगातार आ रही गिरावट के पीछे एकमात्र कारण यह है कि इस व्यवस्था में अच्छे शिक्षकों का अभाव है। अच्छे शिक्षक किसी भी शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ होते हैं। और जब रीढ़ ही खराब होगी तो उससे श्रेष्ठतम् व्यक्तियों का निर्माण कैसे संभव है।
असंगत वर्गीकरण
हमारी शिक्षा व्यवस्था का स्थूल वर्गीकरण स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा के रूप में किया जा रहा है। जिस तरह ज्ञान का विस्तार हो रहा है और जिस तरह सूचना की उपलब्धता बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुये हमें इस वर्गीकरण को तोड़कर नई व्यवस्था की रचना करनी होगी। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका समाधान कारक उत्तर हमारे पास नहीं है। हमारा 'ग्रास इनरॉलमेंट रेशो' कम होने के बावजूद हमारे पास उच्च शिक्षा उपलब्ध कराने के संसाधन और अवसर हमारी आवश्यकता के अनुपात में काफी कम है। ऐसे में हमारी स्नातक स्तर की शिक्षा दिशाहीन और उद्देश्यहीन बनकर रह गई है। स्नातक स्तर पर सामान्य पाठ्यक्रमों में किस प्रकार की शिक्षा दी जा रही है? जिस प्रकार की शिक्षा दी जा रही है, वह अगंभीर है और सिवाय डिग्री बांटने के किसी और उद्देश्य को साध नहीं पाती है। हमारे सामान्य विश्वविद्यालय इसीलिये ज्ञान के केन्द्र न होकर सिर्फ परीक्षा के केन्द्र बनकर रह गये हैं। हमने पाठ्यक्रमों का वर्गीकरण जिस प्रकार किया है, उसमें उच्च, उच्चतर शिक्षा, एवं सर्वोच्च शिक्षा के बीच के विभाजन बिन्दु स्पष्ट नहीं हो पातेे। प्राय: उच्चतर शिक्षण संस्थानों मेें मानव संसाधन एवं अधोरचना की कमी को देखते हुए इस तरह के विभाजन बिन्दुओं को बना पाना और संधारित कर पाना कठिन है। स्कूली स्तर पर भी शिक्षा के विभाजन बिन्दुओं के साथ जिस तरह के प्रयोग हो रहे हैं, उससे हम नौनिहालों की नींव को कमजोर ही करते जा रहे हैं। परीक्षा प्रणाली, मूल्यांकन प्रणाली, और पाठ्यचर्या में होने वाले प्रयोगों के कारण हमारा आधार ही डगमगा सा गया है। खेद की बात तो यह है कि इन सारे प्रयोगों को अमली जामा पहनाने का काम हमारे शिक्षकों की उस पीढ़ी को सौंपा गया है जो अधिकांशत: अनिच्छा और मजबूरी में शिक्षक वृत्ति से जुड़ी है। हमारे प्रयोगों का आधार होता है हमारे बड़े शहरों में उच्च स्तर के सर्वसुविधा प्राप्त विद्यालय। लेकिन जब ये प्रयोग दूरस्थ अंचल में फैले हमारे ग्रामीण विद्यालयों तक पहुंचते हैं तेा उनका बहुत ही विकृत स्वरूप उभरकर हमारे सामने आता है। जिस विद्यालय में सामान्य विषय पढ़ाने के लिये अध्यापक उपलब्ध न हों वहां अन्य मूल्यांकन और शिक्षणेत्तर गतिविधियों का मूल्यांकन कैसे संभव है इतना सामान्य सा प्रश्न भी प्रयोग करते समय हमारे मन में नहीं उभरता। जहां हम कक्षाओं का नियमित संचालन और अध्यापकों की सतत् उपस्थिति सुनिश्चित न कर पा रहे हों वहां बोर्ड की परीक्षा कराकर अध्यापक के विवेक पर विद्यार्थी का मूल्यांकन छोड़ना कितना न्यायोचित है, इसका फैसला कोई नहीं कर पाता। समग्रता के लिये चिंतन कहां से, कैसे और कब शुरू हो इसका निर्णय कौन करेगा? शिक्षा के समग्र चिंतन की दृष्टि से कुछ प्रमुख बातों का विचार तत्काल आवश्यक है।
शिक्षकों की पीढ़ी तैयार करना
हमारा समूचा ध्यान शिक्षकों की समर्पित पीढ़ी तैयार करने की तरफ होना चाहिये। हमारी शिक्षा व्यवस्था में हम ऐसे तत्वों का समावेश करें कि हमें आने वाले समय के लिए श्रेष्ठतम् शिक्षक मिल सकें। इसके लिये हमें सभी स्तरों पर शिक्षकों की प्रतिष्ठा और परिलब्धियोंे का भी ध्यान रखना होगा। सम्मानजनक स्थिति और सन्तोषजनक परिलब्धि आपको श्रेष्ठ शिक्षक उपलब्ध कराने की दिशा में सहायता करेगी। ऐसे प्रतिभाशाली समर्पित व्यक्ति शिक्षक बनने के लिए प्रेरित होंगे जो मूलत: स्वभाव और मानसिकता से शिक्षक वृत्ति के हैं। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि अच्छा शिक्षक होना स्वभावगत् और जन्मजात गुण हैं। हमारी व्यवस्था वर्तमान में ऐसे लोगों को स्वभावगत वृत्ति की ओर कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं कर पा रही है। हमारा दायित्व ऐसी शिक्षा व्यवस्था का नियोजन होना चाहिये कि हम बेहतर शिक्षकों को इसमें सहभागी होने के लिये प्रेरित कर सकें।
लेखक -कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर के पूर्व कुलपति रहे हैं।
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