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शिक्षा और संस्कार देने से बढ़कर कुछ नहीं

by
May 30, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 May 2015 14:48:27

भवानी सिंह
निदेशक,दाई लर्निंग ट्री स्कूल सिरोही, राजस्थान
गरीब परिवारों केे बच्चों को संस्कारप्रद शिक्षा देने में जुटे हैं भवानी सिंह। उनके छात्रों में स्वावलम्बन-आत्मविश्वास देखते ही बनता है।
बचपन से ही  कुछ अलग करने की प्रेरणा गुरुजनांे से मिलती रहती थी। भाई वीरेन्द्र सिंह के साथ पास-पड़ोस की वंचित समाज की बस्तियों व संस्कार केन्द्रों में जाकर बालकों को साक्षर करने का काम करना शुरू से लुभाता था। दसवीं कक्षा तक पहुंचते-पहंुचते मैंने अपने भाई-बहन व मित्रों के साथ आस-पास के 100 से अधिक बच्चों को पढ़ाने का काम किया। समय बढ़ा और मैं दिल्ली अध्ययन के लिए आ गया। स्थान बदला लेकिन मन नहीं। यहां पर आर.के.पुरम्, मुनीरिका व वसंत विहार में स्थित बस्तियों में साथी सहपाठियों के साथ साक्षरता और स्वच्छता पर कार्य किया। लेकिन फिर भी मन में सदैव शिक्षा के  लिए खलबली रहती थी। इसी दौरान जेएनयू से 2001-03 में एम.ए. व 2004-06 में एम.फिल करने का अवसर मिला। शिक्षा प्राप्त करने के दौरान ही कुछ धन प्राप्त करने की इच्छा ने आकार लिया तो इस पर भी मित्रों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ और कार्य करना प्रारम्भ किया। इस दौरान विभिन्न मीडिया संस्थानों में कार्य किया। साथ ही रिसर्च इंडिया आर्गेनाइजेशन (रिलायंस समूह) के साथ भी काम किया। लेकिन इस 'व्हइट कॉलर' नौकरी से मन को संतुष्टि नहीं मिल पा रही थी। इस दौरान जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। मैं आई.आई.एम., इंदौर में फैलोशिप में साक्षात्कार  देने के लिए चयनित हुआ। एक शोधपरक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दूसरे साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था। साक्षात्कार में पहला सवाल था कि आप 'स्ट्रेटेजिक मैनेजमेंट' कोर्स क्यों करना चाहते हैं? तो मैंने उन्हें जवाब दिया कि शिक्षा में प्रबंधन का कार्य कर कुछ ठोस ढांचा बनाना चाहता हूं। उन्होंने कहा इसके लिए आपको यहां आने की क्या आवश्यकता। इसके लिए आप को अमदाबाद के इंस्टीट्यूट ऑफ इनोवेशन में जाना चाहिए। मैंने उसी दिन तय कर लिया कि अब कहीं नहीं जाना स्वयं ही एक विद्यालय खोलकर, सीखकर,समझकर शिक्षा के ढांचागत सुधार पर कार्य करूंगा। घर पर यह बात करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। क्योंकि पहले से 7-8 वर्ष से दिल्ली में रहकर सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहा था। परिवार की बहुत सी अपेक्षाएं मुझसे जुड़ी थीं।  इसलिए छोटे से शहर में विद्यालय खोलने के विचार पर घर में सहमति मिल पाना काफी मुश्किल काम था। खैर जीजाजी व अन्य मित्रों की सहायता से घर में मेरे वापस आने और विद्यालय खोलने पर सहमति बन गई। 2009 में सिरोही,राजस्थान में 'दाई लर्निंग ट्री स्कूल' नाम से कक्षा 1 से लेकर 8वीं तक का विद्यालय शुरू हुआ। पहले पांच बच्चे ही पढ़ाने को मिले क्योंकि अंग्रेजी माध्यम के अन्य स्थापित मिशनरी विद्यालयों के मुकाबले, संस्कारयुक्त आदर्श विद्यालय खोलने की चुनौती बड़ी थी। लेकिन धीरे-धीरे प्रयास किया और एक वर्ष में 100 से अधिक बच्चे हो गए। संस्कारवान शिक्षा देने की ललक से रमेश कोठारी (शिक्षाविद्) प्रभावित हुए और उनका पूरा सहयोग मिला। उन्होंने इस डगर में आने वाली सभी विपत्तियों को हरने का काम किया। लेकिन धारा के खिलाफ बहना हो तो अड़चने न आएं यह हो नहीं सकता। बहुत ही कम शुल्क में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना कठिन था। पत्नी शुचिता एवं अन्य सहकर्मियों की लगन व परिश्रम से यह संभव हुआ। आज इसी विद्यालय में 300 ये अधिक छात्र-छात्राएं हैं। इनमें अधिकतर बच्चे बड़े ही सामान्य परिवारों से हैं। लेकिन विद्यालय में आने के बाद वह अब सामान्य नहीं रह गए। उनमें इतना आत्मविश्वास आ गया कि वह एक बड़े जनसमूह को जब संबोधित करने लगते हैं तो देखने वाले दांतो तले उंगली दबा लेते हैं। यहीं पर मुझे संतुष्टि मिलती है।                       
निर्णायक मोड़
बड़ी कंपनी में साक्षात्कार के दौरान शिक्षा की ओर प्रेरित हुआ। फिर 'व्हइट कॉलर' नौकरी से मन उचटा और लग गया शिक्षा-ज्योति जलाने।

प्रेरणा
दादी जी को लिखना और हस्ताक्षर करना सिखाना  प्रेेरणापरक रहा। मन में आया जब यह सीख सकती हैं  तो बच्चे क्यों नहीं ?
विजय मंत्र

कठिनाइयां दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे नतमस्तक होती हैं।  जो भी करो, पूरी ताकत के साथ करो, पूरे जतन से करो।

संदेश

वर्तमान में देश की युवा  पीढ़ी चाहे  तो फिर से भारत को पुन: उसी स्थान पर पहुंचा सकती है, जहां उसे होना चाहिए।ाा     ल्ल

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