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लक्ष्मीकांता चावला
भी एकमत से स्वीकार करते हैं कि भारत युवा देश है अर्थात भारत की कुल जनसंख्या का 65 फीसद 35 वर्ष की आयु तक का है। 15 से 35 वर्ष की आयु कुछ करने की चाह लेकर संघर्ष करने, आगे बढ़ने और चुनौतियों का सामना करने की है। हमारे प्रधानमंत्री ने विश्वपटल पर भी यह बात बार-बार दोहराई है कि भारत की सबसे बड़ी शक्ति हमारे युवा हैं। नि:संदेह युवक परिवार, समाज और देश की शक्ति हैं।
सीमाओं पर सीना तान कर खड़े हमारे देश के युवक-युवतियां, आकाश में दुश्मनों को दहलाने वाले लड़ाकू विमान उड़ाती युवा शक्ति, देश की विज्ञान प्रयोगशालाओं में नए-नए प्रयोग और आविष्कार करती भारत की नई पीढ़ी और कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में आंखों में कल का स्वप्न लिए भारत के बेटे-बेटियां लगातार जुटी हुई हैं। दुनिया का और देश का ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे युवा संकल्प शक्ति के साथ सहज ही न कर सकते हों। ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे राजनीतिक क्षेत्र में भी नई पीढ़ी का वर्चस्व होगा। यह सच है कि वृद्धजनों का अनुभव और मार्गदर्शन नई पीढ़ी को अधिक प्रभावी बना देता है।
भारत के प्रधानमंत्री तथा अन्य सभी नेता एक स्वर से यह सत्य तो स्वीकार करते हैं कि भारत में युवकों की संख्या सबसे ज्यादा है। दुनिया के बहुत से देश अब हमारी युवा शक्ति से ही आगे बढ़ रहे हैं। कौन नहीं जानता कि हमारे डॉक्टर, इंजीनियर, हमारे व्यवसायी, उद्योग क्षेत्र से जुड़े लोग संसार के हर देश में पहुंचकर उस देश की उन्नति में भी योगदान कर रहे हैं और भारत की पहचान भी बना रहे हैं, पर हमारा कोई भी राजनेता तथा समाजशास्त्री यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि इन 65 फीसद युवकों में से बड़ी संख्या उनकी है जो बचपन से जवानी की दहलीज पार करने से पहले ही बुढ़ापे की ओर पहुंच जाते हैं। यह वह वर्ग है जिसने न कभी विद्यालय देखा है, न घर की छत से परिचित है, रोटी के नाम पर पेट भरने का जुगाड़ जैसे-तैसे करता है। उन बेचारों को क्या नाम देंगे जो सुबह सूयार्ेदय से पहले ही ढाबों, होटलों और हलवाइयों की दुकान पर बर्तन धोने और पूरा दिन अपने आधे भरे पेट के साथ ग्राहकों की सेवा में लगे रहते हैं? पूरे हिंदुस्थान में जहां-जहां भी कूड़े के अंबार हैं, वहां पर ये बेचारे युवा और बच्चे रोटी चुनते दिखाई दे जाते हैं। इनकी संख्या लाखों में है। इसके साथ ही पंजाब के अलग-अलग दलों के राजनेता समय-समय पर ये आंकड़े देते रहते हैं कि पंजाब के कितने युवा नशे की दलदल में फंस चुके हैं। अखबारी बयान देने की प्रतिस्पर्धा में यह भी कह दिया जाता है कि पंजाब के 80 फीसद युवकों में नशे की लत है। मैं यह मानने को तैयार नहीं कि पंजाब के 80 फीसद युवक नशे के आदी पर हैं, पर हां, हाल ठीक तो नहीं कहे जा सकते। यह भी सच है कि कुछ मात्रा में महिलाएं भी नशे की शिकार हैं। वातावरण न बदला तो लड़कियों में भी नशे की बुराई तेजी से फैल सकती है। मैं तो केवल इतना कहना चाहती हूं कि सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस 65 फीसद युवा शक्ति के बल पर हम आगे बढ़ने की बात करते हैं उनमें से कितने युवक-युवतियां ऐसे हैं जिनको नशे ने नाकारा कर दिया। इनके द्वारा देश का निर्माण तो संभव नहीं, किसी न किसी मात्रा में हानि अवश्य हो सकती है। पहला प्रश्न तो यह है कि देश के लगभग एक करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने आज भी स्कूल का नाम तो शायद सुना हो, देखा नहीं। स्कूल में प्रवेश लेकर दो-चार साल पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चे भी बहुत बड़ी संख्या में हैं। माध्यमिक शिक्षा के बाद महंगाई और बेकारी से जूझ रहे देश के बहुत कम भाग्यशाली ऐसे हैं, जो उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों में जाते हैं। स्वस्थ, शिक्षित और नए युग के सपनों के साथ विश्वविद्यालयों-कॉलेजों से निकलकर कर्म क्षेत्र में आने वाले युवक-युवतियां जब रोजगार पाने के लिए बाजार की धूल छानते हैं तो उन्हें मिलती है ठेके की नौकरी। इस नौकरी के साथ ही उन्हें स्वप्न दिखाया जाता है कि कभी न कभी सरकार उन्हें नियमित कर लेगी। पर क्या ऐसा हो पाता है? आंदोलन, हड़तालें और धरने देने के बाद अधिकतर इस वर्ग को मिलती हैं पुलिस की लाठियां, कभी-कभी जेल और यातनाएं। प्रश्न यह उठता है कि यह पेट भरने और मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाली युवा शक्ति अपने कमजोर कंधों पर समाज और देश के पुनर्निर्माण का बोझ कैसे उठा पाएगी, क्योंकि जवानी अभावग्रस्त बीतती है और भविष्य के लिए अंधेरा दिखाई देता है।
शिक्षा ठेके की नौकरी वालों की पहुंच से बहुत दूर है। निजी दुकानों पर शोषित कर्मचारियों की कहानी बड़ी लंबी है। स्वास्थ्य सेवाएं केवल उच्च वर्ग ही खरीद सकता है और ईश्वर न करे किसी को इंसाफ की लड़ाई लड़नी पड़े तो आम आदमी उसकी कीमत चुका ही नहीं सकता। ऐसे में हमें देखना होगा कि हमारे पास जितनी युवा शक्ति है, उसको बचाएं, पढ़ाएं और इस तरह तैयार करें कि वह पहले अपने जीवन की और फिर राष्ट्र जीवन की सभी चुनौतियों का सामना करके मजबूती से खड़ी हो सके। प्रदेशों के शासकों को याद रखना होगा कि केवल मंजूरशुदा सरकारी ठेके खोलकर, अनाथ आश्रमों से भी बदतर हालात में सरकारी स्कूल चलाकर, न्याय मांग रहे लोगों पर लाठी चलाकर राष्ट्र निर्माण नहीं हो सकता। अपने देश की युवा शक्ति को वैसा बनाइए जैसी कल्पना स्वामी विवेकानंद ने की थी।
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