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वीर सावरकर सैद्धांतिक दृष्टि से लोकमान्य तिलक के अनुगामी थे। अत्यंत श्रेष्ठ बौद्धिक स्तर पर तिलक व सावरकर ने राष्ट्र के लिए महान कार्य किए। लोकमान्य तिलक की ही तरह सावरकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। एकाएक किसी को विश्वास नहीं होगा कि सावरकर ने कविताओं और नाटकों की भी रचना की है। वे स्वदेशी व स्वभाषा-शुद्धि पर भी जोर देते थे, लेकिन सावरकर मुख्य रूप से प्रखर क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते हैं। उनकी मृत्यु हुए करीब 50 वर्ष होने जा रहे हैं, इस दृष्टि से उनके कायार्ें का मूल्यांकन अवश्य होना चाहिए।
बिना युद्ध के स्वातंत्र्य एकाएक प्राप्त नहीं होता, परन्तु यह भी सच है कि गुलाम राष्ट्र एकाएक युद्ध करने की स्थिति में नहीं आता। सर्वप्रथम दासता के विरुद्ध छोटे व व्यक्तिगत प्रयत्न होते हैं। ये प्रयत्न चाहे छोटे हों, परन्तु कम से कम तात्कालिक रूप से जनमानस को आन्दोलित करने में समर्थ होते हैं।
ऐसे क्रांतिकारी व्यक्तित्वों के आसपास अन्य क्रांतिकारी भी एकत्र होकर छोटे क्रांतिकारी-समूह बनाते हैं। यहां यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि जिस क्रांति के पीछे दृढ़ सैद्धांतिक आधार न हो वह क्रांति, क्रांति कहलाने के योग्य नहीं होती। वह असंतोष का एक विस्फोट मात्र होता है, जिसे जनसाधारण बलवा कहते हैं। परन्तु जिस क्रांति के पीछे निश्चित सिद्धांत व योजनाबद्ध प्रयत्न होते हैं, वह क्रांति चाहे असफल भी हो, आने वाली नई क्रांतियों के लिए प्रेरणादायी होती है।
इस प्रकार से क्रांति-कार्य का भी विकास होकर क्रांति पूर्ण स्तर के जनयुद्ध में बदलती है। इसे ही क्रांति में निरंतर उत्क्रांति कह सकते हैं। सावरकर ने क्रांति को सैद्धांतिक आधार दिया व भारतीय सशस्त्र क्रांति को विकसित करके आजाद हिन्द फौज के बिन्दु तक विकसित किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सशस्त्र क्रांति का अपना महत्व रहा है। सावरकर के जन्म (28 मई, 1883) के पूर्व 1857 में प्रथम स्वातंत्र्य समर, पंजाब में कूकाओं का अभियान (1870-74), महाराष्ट्र में विद्रोह (1880-83), चाफेकर बंधुओं द्वारा ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या व अन्य विद्रोह भी हुए, परन्तु इनमें परस्पर तालमेल, क्रांतिकारी चिंतन व योजनाबद्धता की कमी स्पष्ट थी। तिलक इनके सन्दर्भ में कहते थे कि आधुनिक शस्त्रों व प्रशिक्षण के बिना ये यत्न राष्ट्र को पीछे ही खींचेंगे। सशस्त्र क्रांति को उन्होंने पाप नहीं माना। तिलक द्वारा अनुशासित सावरकर 22 वर्ष की आयु (1905) में ब्रिटेन पहुंचे। लंदन के 'इंडिया हाउस' में तब भारतीय छात्र रहा करते थे। उन्होंने अपना क्रांति कार्य प्रारंभ किया। क्रांति दृढ़ सैद्धांतिक आधार के बिना, मात्र बलवा हो जाती है। यह जानकर उन्होंने सैनिक इतिहास के अध्येता के नाते 'भारत का प्रथम स्वतंत्रता युद्ध' व 'मैजिनी का चरित्र' ग्रंथ लिखे। दूसरे ग्रंथ की प्रस्तावना ही युवाओं का प्रेरणास्रोत थी। लोकतांत्रिक मूल्यों वाले ब्रिटेन में इनके प्रकाशन पर रोक लगाई गई। पाण्डुलिपियां भी जब्त करने का प्रयत्न किया गया, अंतत: ये ग्रंथ ब्रिटेन के बाहर छपे।
क्रांतिकारियों को सूत्रबद्ध करने हेतु उन्होंने पेरिस से 'द स्वॉर्ड' अखबार निकाला। उन्हीं की प्रेरणा से मदनलाल ढींगरा जैसे क्रांतिकारी ने ब्रिटेन को कंपा दिया (1909) था। ढींगरा व कान्हेरे उन्हीं के निर्देशन में फांसी (1909-1910) के लिए तैयार हुए व मैडम कामा (1861-1936) भी। यह क्रांतिकारियों की प्रथम पीढ़ी थी। लंदन व पेरिस में भारतीय युवा क्रांतिकारियों का अच्छा संगठन तैयार हुआ। अंतत: सावरकर पर मुकद्दमा करके उन्हें दो आजीवन कारावासों (1910-1960) की सजा दी गई। एक वार्तालाप में उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी को उत्तर दिया था, 'क्या ब्रिटिश साम्राज्य 50 वर्ष तक बना रहेगा?' उनके शब्द सत्य निकले, भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ। उनके अंदमान जेल में आने से कैदियों को अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाला नेता मिला। उन्होंने जेल जीवन (1910-24) में अस्पृश्यता का विरोध व राष्ट्राभिमान जागृत करने के, अंग्रेज व पठान अधिकारियों व वार्डनों से संघर्ष करने जैसे कई साहसिक कार्य किए।
उन्हें लगा कि जेल में जीवन काटने से ठीक होगा कि भारत जाकर कुछ किया जाए। राजनीति में भाग न लेने व जिला रत्नागिरी (महाराष्ट्र) न छोड़ने की शर्त पर उन्हें 1924 में मुक्त किया गया। इसके बाद 1937 में सभी बंधन हटा दिए गए। सावरकर अनुकूल समय की प्रतीक्षा में थे। तभी युवा सुभाषचंद्र बोस (1897- 1945) का उभार हुआ। वे हरिपुरा, गुजरात 1938 में व जबलपुर के पास त्रिपुरी 1939 में, कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए। कांग्रेस कार्यकारिणी द्वारा उनसे असहयोग के कारण कटुता टालने हेतु उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया व समान विचार वाले नेताओं को ढूंढने लगे। बोस का वैचारिक आधार क्रांतिकारी का था। उनमें लोकमान्य तिलक के प्रति गहरी श्रद्धा थी। जब बोस मांडले जेल में (1924-26) कैदी थे, तो वहां की गर्मी व खराब जलवायु झेलते हुए उन्होंने कहा, 'मैं तो 27-28 वर्षीय युवा होकर भी त्रस्त हूं, तो फिर मधुमेह से खोखले बने शरीर के साथ तिलक ने ढलती आयु (52-58 वर्ष) में छह वर्ष कैसे बिताए होंगे?' हालांकि तब तक सुभाष ने तिलक को देखा नहीं था। उसी समय भारत में क्रांतिकारियों की दूसरी पीढ़ी तैयार हो रही थी (1930-43)। 1919 का जलियांवाला बाग कांड हो चुका था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का क्रूर चेहरा सामने आ चुका था। इन क्रांतिकारियों के नाम कई हैं, परन्तु इन सभी ने सावरकर का नाम अवश्य सुना होगा। सैनिक दृष्टि से इनमें थे सूबेदार चंद्रसिंह (गढ़वाल रेजीमेंट), जो गढ़वाल रेजीमेंट के विद्रोह के संबंध में प्रसिद्ध हैं। यह 800 सैनिकों द्वारा किया गया अवज्ञा विद्रोह था (1930)। सरदार ऊधम सिंह ने लंदन पहुंचकर पंजाब के गवर्नर जनरल रहे माइकल फ्रांसिस ओड्वायर को गोली मारकर, जलियांवाला बाग कांड का बदला लिया (फांसी 1940)। इस युग की क्रांतिकारी त्रयी भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव प्रसिद्ध है। भगतसिंह तो सावरकर की '1857 का स्वातंत्र्य समर' पुस्तक रोज पढ़ते थे। उनकी और कुछ पुस्तकें भी क्रांतिकारियों तक पहुंच चुकी थीं।
कांग्रेस अध्यक्ष का पद त्याग कर नेताजी बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। उनका मत था कि मात्र शांतिपूर्ण आंदोलन से भारत स्वतन्त्र नहीं होगा। इस सन्दर्भ में, उन्होंने एक दीर्घ पत्र महात्मा गांधी को लिखा था, जो आज भी उपलब्ध है। नेताजी के व्यक्तिगत जीवन व विचारों से स्पष्ट पता लगता है कि वे शिवाजी व तिलक से प्रभावित थे। बड़े नेताओं से निराश होकर सुभाष अंत में 20 जून, 1940 को सावरकर से मिले। सावरकर ने उन्हें कहा कि उन्हें जापान से रासबिहारी बोस का पत्र आया है, जिसके अनुसार एक वर्ष में ही जापान युद्ध में कूदेगा। अत: सुभाष को रासबिहारी बोस की तरह गुपचुप तरीके से देश छोड़ना चाहिए एवं बाहर से भारत की स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न करना चाहिए। सावरकर की दृष्टि में सशस्त्र क्रांति का विकास हो रहा था। पहले इक्के-दुक्के व्यक्तियों के प्रयत्न, फिर समूह के प्रयत्न। इनमें क्रांतिकारियों की दो पीढि़यां तैयार हो चुकी थीं। इन लोगों ने अंग्रेज साम्राज्य को यह बता दिया कि हम भारतीय चुप बैठने वाले नहीं हैं। इनके कायार्ेर्ं से अंग्रेज शासन थर्रा गया। परन्तु आगे क्या? सावरकर जानते थे कि इन प्रयत्नों का विकास करके अंग्रेजी राज्य का तख्ता पलट करने हेतु क्रांतिकारी गुट नहीं, क्रांतिकारी सेना चाहिए और वह भी भारतीय सेना। इसलिए गढ़वाल रेजीमेंट विद्रोह (1930) का महत्व था। यह सेना अंग्रेजों द्वारा बढि़या प्रशिक्षित ही होगी। इक्के-दुक्के क्रांतिकारी के पास आखिर सेना कहां थी? सुभाष छद्म वेश में, कोलकाता (तब कलकत्ता), पेशावर, अफगानिस्तान व रूस होकर जर्मनी पहुंचे और वहां से पनडुब्बी से यूरोप व अफ्रीका का चक्कर लगाकर मेडागास्कर पहुंचे। दूसरी पनडुब्बी से मलेशिया (1941) के पेनांग बंदरगाह तक पहुंचे। तब दूसरा महायुद्ध पूरे जोर पर था (1939-45)। सुभाष ने सावरकर के ग्रंथ, '1857 का स्वातंत्र्य समर' को आजाद हिन्द सेना में आवश्यक अध्ययन हेतु पाठ्यपुस्तक घोषित किया था। अब भारतीय सशस्त्र क्रांति नए दौर में पहुंच चुकी थी। युद्ध प्रारंभ होते ही सावरकर ने जोर-शोर से सैनिक भर्ती का प्रचार शुरू किया। उनके निंदक उन्हें कहने लगे कि यह 'स्वातंत्र्य वीर' नहीं, रिक्रूट वीर (रंगरूट वीर)' है। परन्तु सावरकर अडिग रहे, वे जानते थे कि भारतीयों हेतु सैनिक प्रशिक्षण का यह अच्छा अवसर है। उनकी प्रेरणा से भर्ती हुए कई युवक आजाद हिन्द फौज में थे। आजाद हिन्द फौज में चार डिविजन (करीब एक लाख सैनिक) थीं। नेताजी बोस ने सावरकर को एक रेडियो भाषण में धन्यवाद देते हुए कहा कि उनके कारण आजाद हिन्द फौज में सैनिकों की कमी नहीं रही। इसकी प्रेरणा सावरकर से उनके राजनीतिज्ञ गुरु लोकमान्य तिलक ने दी। तिलक ने भी प्रथम महायुद्ध के समय (1914-18) ऐसा सैनिक भर्ती अभियान चलाया था। सावरकर की दृष्टि में 1857 यदि 'भारत का प्रथम स्वतंत्रता युद्ध' था, तो आजाद हिन्द सेना द्वारा किया युद्ध 'भारत का दूसरा स्वतंत्रता युद्ध' था। पहले की तुलना में दूसरा अधिक अनुशासित व योजनापूर्ण था। इससे भारतीय सैनिकों को प्रेरणा मिली। यही नहीं, मुम्बई(तब बंबई) में उन्होंने ब्रिटिश भारतीय नौसेना जहाज 'तलवार' पर अंग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध विद्रोह किया (1946)। परन्तु 1947 के अंत में यह साम्राज्य टूटने के कगार पर आ आया। ब्रिटिश संसद में प्रधानमंत्री एटली ने पूर्व प्रधानमंत्री को उत्तर दिया, जिसमें एक जगह लिखा था, 'अब भारतीय सेना की हमारे प्रति निष्ठा संदेहास्पद है'। यह सावरकर की अप्रत्यक्ष जीत थी।
भारतीय क्रांतिकारियों में सावरकर का स्थान अद्वितीय है। वे लोकमान्य तिलक की तरह बहुमुखी प्रतिभा के तो थे ही, साथ ही उन्होंने क्रांतिकार्य का सृजनात्मक विकास किया, उसे सशस्त्र सैनिक क्रांति द्वारा विदेशी शासन को उखाड़ने के बिंदु तक ले आए। क्रांतिकारियों की तीसरी पीढ़ी, यानी सुभाषचन्द्र बोस व उनकी आजाद हिन्द फौज के निर्माण में उनका योगदान स्मरणीय रहेगा। वे समकालीन नेताओं में एकमात्र नेता थे जिनका इतिहास व सैनिक विज्ञान पर अधिकार था। उन्होंने चीन व पाकिस्तान के सन्दर्भ में भारतीय शासन को गंभीर पूर्व सूचनाएं भी दी थीं। दूसरा महायुद्ध इस सिद्धांत पर लड़ा गया कि मानव इतिहास में युद्ध का नाश करने के लिए युद्ध हो रहा है। इसके पश्चात भी गत 70 वर्ष में कई युद्ध हुए हैं। सावरकर ने मात्र भारतीय स्वतंत्रता के युद्ध के विषय में ही विचार नहीं किया, अपितु भारत के स्वतंत्र होने के बाद उस पर आने वाले सैनिक संकट व भारत की सुरक्षा का भी विचार किया था। राष्ट्र के सैनिकीकरण की बात करने वाले वे पहले राजनीतिक नेता थे। उन्होंने हमें चेताया था कि भारत की सीमाओं पर पाकिस्तान व चीन जैसे राष्ट्र हैं, इन राष्ट्रों से भारत की रक्षा के लिए सशक्त सुरक्षा का प्रयास करना चाहिए। सावरकर ने अपनी मृत्यु तक पाकिस्तान व चीन के आक्रमण देखे एवं राष्ट्र को निरंतर जागरूक रखकर राष्ट्र के सैनिकीकरण की सलाह दी। सैनिकीकरण से उनका मंतव्य यह था कि युद्ध महत्वाकांक्षी राष्ट्र के लिए दैनिक जीवन का भाग हो, यह सामान्य जनता जाने व शांति की इच्छा रखकर युद्ध के लिए तैयार रहे। यदि आज सावरकर होते तो वर्तमान शासन के लिए यह स्पष्ट संदेश देते कि 'शांतिकाल' नाम का कोई कालखंड नहीं है। बल्कि युद्ध की तैयारी का समय ही शांतिकाल है। आने वाली पीढि़यां सावरकर का यह मंतव्य जानें व आत्मकेंद्रित न रहकर भारतीय सीमाओं से 5000 मील दूर तक की घटनाओं का विचार व विश्लेषण करें, तब वीर सावरकर की सीख सार्थक होगी।
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