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भरोसा जस का तस

by
May 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 May 2015 13:25:34

ज्ञानेन्द्र बरतरिया
ब की बार मोदी सरकार। एक साल पहले जनता की यह आवाज फलीभूत हुई। आज नरेन्द्र मोदी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह को स्वतंत्र भारत के इतिहास की एक सबसे महत्वपूर्ण घटना माना जाता है। एक ऐसी घटना, जिसने न केवल इतिहास, बल्कि समाज और राष्ट्र के प्रवाह की दिशा भी बदल कर रख दी। मोदी सरकार के साथ राष्ट्र, समाज और इतिहास नई दिशा पर बढ़ चुका है। नई अपेक्षाएं हैं, नए सपने, नए लक्ष्य और नए रास्ते हैं।
अब फिर एक घटना घट रही है। मोदी सरकार के एक वर्ष के कामकाज की समीक्षा की। वास्तव में यह भी ऐतिहासिक ही है। हम भारत के लोग और मीडिया किसी सरकार का एक साल होने पर उसका कुछ जिक्र तो करते रहे हैं, छिटपुट समीक्षा भी करते रहे हैं, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर समीक्षा का त्योहार मनाना शायद पहली बार हो रहा है। इस त्योहार के शोर में यह आम समझ भी दबती जा रही है कि किसी भी सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करने के लिए एक वर्ष का समय बहुत कम होता है।
वैसे इस त्योहार का एक कारण भी है। आप याद कर सकते हैं कि एक वर्ष तो दूर, चार दिनों में ही सरकार की उपलब्धियों पर बहस शुरू हो गई थी। इस अधीरता का कारण था, भारी अपेक्षाएं। पहले कौन सी सरकार बनी और उसने क्या किया, इसकी परवाह ही कौन करता था? अब परवाह की जा रही है, तो जाहिर है, देश निराशा से बाहर निकल आया है। वह मानने लगा है कि कुछ किया जा सकता है और कुछ किया जाना चाहिए। उम्मीदों का यही ज्वार ऐतिहासिक चुनाव परिणामों में भी परिलक्षित हुआ था।
यह शोर इस बात का गवाह है। समय की इस बस में सवार कुछ लोगों को पुराने रास्तों की याद सता रही है, कुछ यही पूछते नहीं अघा रहे हैं कि आखिर यह रास्ता कहां जाएगा। कोई शक नहीं कि कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें सफर में सो जाने की आदत है, और वे साल भर से सोए ही पड़े हैं। जब कभी झपकी खुलती है, तो वे पूछने लगते हैं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन गए क्या? वे आज भी यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी भारत की जनता द्वारा प्रचंड बहुमत से चुने गए हैं और देश के प्रधानमंत्री हैं। लेकिन प्रचंड बहुमत उन लोगों का है, जिन्हें नए इंजन पर भी भरोसा है, नए रास्ते पर भी और अपने सारथी पर भी।
सारी बहस यही है। इस बहस में शामिल होना आवश्यक है। सारी बातों पर सार्थक, तार्किक और निर्मम दृष्टि डालने के लिए, और इस स्वीकारोक्ति के साथ कि एक साल में किसी सरकार की समीक्षा करना, देशकाल का 'फास्ट फूड' बनाने जैसा है। बात शुरू करते हैं सफर की शुरुआत से। सफर की शुरुआत सुंदर, शुभ शकुनों से हुई। शपथ ग्रहण समारोह में पूरे उपमहाद्वीप के नेता मौजूद थे। भारत की यही गरिमा होनी चाहिए थी, इसका अहसास कराते हुए। कुछ ही दिन बाद भारत का उपग्रह मंगल की कक्षा में पहुंचा, जो इस पौराणिक धारणा की ओर संकेत करता है कि धरती और मंगल का मां-बेटे का संबंध है। अपनी धारणाओं पर, अपने विश्वासों पर, पूरी दुनिया के सामने खम ठोंक कर खड़ा होता भारत नजर आने लगा। यह वह ऐतिहासिक अनुभूति थी, जिसका इंतजार भारत की आत्मा को एक सुदीर्घ काल से था। कश्मीर में बाढ़ जरूर आई, लेकिन पहली बार भारत सरकार इतनी फुर्ती से सक्रिय हुई कि लोग विश्वास ही नहीं कर सके। पाकिस्तान को कश्मीर में अपने समर्थकों को बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा लेना पड़ गया। लेकिन सीमा रेखा पर, नियंत्रण रेखा पर गड़बड़ी करने का दुस्साहस वह अब नहीं कर सका। यमन में चुनौती आई, इराक में आई। भारत सरकार ऐसे निपटी कि सिर्फ कूटनीति का ही नहीं सैनिक कौशल का भी इतिहास बन गया। इसके बाद तो शुभ शकुनों की झड़ी ही लग गई। 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस के समारोह में अमरीका के राष्ट्रपति को मुख्य अतिथि बनाकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक ऐसी लकीर खींच दी गई, जिससे भविष्य के लिए एक बहुत बड़ा आधार बन गया। अमरीका से परमाणु ऊर्जा समझौता हुआ, और आस्ट्रेलिया-कनाडा भारत को यूरेनियम की आपूर्ति करने पर सहमत हो गए। मोदी दुनिया में जहां भी गए, भारत का खूब डंका बजा, जिसका वह हकदार था, लेकिन जिससे उसे वंचित करके रखा गया था। घरेलू मोर्चे पर भी सरकार लगभग हर सप्ताह कोई न कोई नया और बड़ा कदम उठाती चली गई।
बेहद रोचक बात यह है कि इस नए रास्ते पर संचलन भी शोरशराबे भरा रहा। शोर न तो गाड़ी का था, न इंजन का। शोर था, उन लोगों का जिन्हें इस गाड़ी का चलना हजम नहीं हो पा रहा था। पिछले एक साल पर नजर डालें, तो न जाने कितनी बातें कही गईं। सबसे पहले अलापा गया साम्प्रदायिकता का रटा-रटाया राग। यह खटराग लगने लगा, तो इसे दूसरे शब्दों में परोसने की कोशिश की गई-'मोदी के राज में देश में सहिष्णुता कम हुई है'। और उन सारी बातों को सहिष्णुता के खाते में डाल दिया गया, जो अब तक या तो सरकारी नीति का हिस्सा थीं, या सरकारी अकर्मण्यता का। चचोंर् पर कथित हमलों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाकर सरकार को बदनाम करने जैसी कोशिश हुई। नतीजा क्या निकला?

यही स्थिति 'युवराज' की 'लांचिंग' की 1760वीं कोशिश की हुई। बाकी बातें अपने स्थान पर हैं, 'लांचिंग' (की कोशिश) का समय ही गलत रहा। सामने कोई 'कम्प्यूटर गेम' नहीं, साक्षात मोदी थे। बिना कुछ कहे, और संभवत: बिना कुछ सुने ही, मोदी ने अपने काम के बूते 'युवराज' की 'लांचिंग' को फिर अपनी गति पर पहुंचने के लिए बाध्य कर दिया।
यह बात बार-बार कही गई कि मोदी सरकार तीन दशक बाद स्पष्ट बहुमत से बनने वाली पहली सरकार है, और इस कारण वह ज्यादा सक्षम है। सही भी है। लेकिन उससे भी ज्यादा बड़ा सच कहीं और है। किसी भी व्यवस्था में, और संभवत: किसी भी देश में, राजनीतिक स्थिरता का सवाल वोट गिनने के साथ समाप्त नहीं होता है। वास्तव में वह वहां से शुरू होता है। जनता का लगातार समर्थन साथ न हो, तो सदनों का बहुमत कुछ विशेष काम नहीं कर सकता। यह देश 400 से अधिक लोकसभा सीटों के बहुमत का साक्षी रह चुका है। भ्रष्टाचार की कालिख लपेटने और मजाक का पात्र बनने के अलावा कौन सी क्रांति कर दिखाई थी उस विराट बहुमत ने? आज भी, देश के हित को आंकड़ों का बंधक क्यों बनाया जाए? बहुमत है, लेकिन बहुमत उम्मीदों का, अपेक्षाओं का और विश्वास का है। भूमि अधिग्रहण विधेयक, और जीएसटी विधेयक सदनों में विपक्षी वीटो शक्ति से अटके पड़े हैं। संयुक्त सत्र इसका सरल समाधान हो सकता है, लेकिन स्पष्ट कोशिश उससे बचने की रही है। मोदी सरकार ने सदन में बहुमत की ताकत का प्रयोग किए बिना काम कर दिखाने की राह पकड़ी है। सबका साथ-सबका विकास, इसी सोच की उपज है। इसमें सिर्फ एक ही आंकड़ा समीचीन रहता है-100 प्रतिशत। लेकिन 100 प्रतिशत से कम के आंकड़े भी कहानी जरूर कहते हैं। बात आर्थिक मोर्चे की करें, तो आंकड़े जरूरी हो जाते हैं। जैसे प्रधानमंत्री जन-धन योजना। दोहराने की आवश्यकता नहीं कि यह योजना एक ही सप्ताह में 1 करोड़ 80 लाख 96 हजार से अधिक बैंक खाते खोलकर 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स' में अपना स्थान बना चुकी है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, इस योजना के तहत 12 करोड़ 54 लाख 73 हजार से अधिक बैंक खाते खुल चुके थे, जिनमें लगभग 10 हजार 500 करोड़ रुपए की रकम जमा थी। माने देश के हर परिवार को, हर व्यक्ति को वित्तीय तौर पर जोड़ा जा रहा है। यह जन-धन है, इससे आगे का रास्ता जन सुरक्षा को, जन समृद्धि को जाता है। हर खाता धारक को मात्र एक रुपए महीने के प्रीमियम का भुगतान करने पर, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के तहत दो लाख रुपए का दुर्घटना बीमा मिलता है, जिसमें दुर्घटनावश होने वाली अपंगता का बीमा भी शामिल है। इसी तरह रोजना एक रुपए से भी कम (वर्ष भर में 330 रुपए) की किश्त चुकाने पर प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना के तहत दो लाख रुपए का जीवन बीमा मिलता है। इसी तरह अटल पेंशन योजना है, जो सामाजिक सुरक्षा के अति महत्वपूर्ण पक्ष की पूर्ति करती है। शुरुआत किए जाने के चंद दिनों के भीतर ही करोड़ों लोग इन सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के दायरे के भीतर आ चुके हैं। गिनती अभी जारी है। लेकिन आर्थिक विकास सिर्फ सामाजिक सुरक्षा सरोकारों तक सीमित नहीं होता। विकास के लिए सरकार को सबसे पहले अपना घर, अपना कामकाज ठीक करना होता है, फैसले लेने होते हैं, उनका क्रियान्वयन कराना होता है। लिहाजा किसी भी विकास योजना को वषोंर् तक सेते रहने की मशीन बन चुके योजना आयोग को, फैसलों को अटकाने का बायस बन चुकी प्रणालियों को एक ही झटके में दफा कर दिया गया। सरकार ने मंत्रियों का समूह (जीओएम) और मंत्रियों का शक्तिसंपन्न समूह (ईजीओएम) भी समाप्त कर दिए। अब फैसले दो टूक और जल्द हो सकेंगे। इससे तैयार हुई 'मेक इन इंडिया' मुहिम की जमीन। 'मेक इन इंडिया' सिर्फ निवेश का नारा नहीं है। इसमें नए अविष्कार करने का मंच भी भारत को बनाए जाने का आह्वान है, और भारत के वर्तमान और नए उद्योगों को नए बाजार और नए रोजगार देना भी निहित है। सच यह है कि रोजगार और नवीनता ही सामाजिक सुरक्षा का सबसे बड़ा आधार होते हैं।
सामाजिक सुरक्षा का एक अहम पहलू है, कानून और उनका प्रतिपालन। कानूनों के छिद्रों का लाभ उठाकर होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने की एक बड़ी मुहिम चल पड़ी है। आपको पता है, हत्या, बलात्कार और एसिड हमले जैसे जघन्य अपराधों पर सजा से बचने के लिए अब 18 वर्ष से कम उम्र का होना पर्याप्त नहीं रह गया है? सरकार उस शाख को ही काट कर फेंकने का फैसला कर चुकी है, जिस पर जघन्य अपराध पनपते थे। इस दौरान लगातार होते गए विधानसभा चुनावों ने भी मोदी के नेतृत्व पर लगातार मुहर लगाने का काम किया। महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, जम्मू-कश्मीऱ.़.। यह हमारी सबकी विडंबना है कि देश में हर चार-छह महीने में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं, और लोकतंत्र में कोई भी दल हमेशा सारे चुनाव नहीं जीत सकता। दिल्ली में नतीजे जरूर भाजपा के खिलाफ गए भी, लेकिन उसी का दूसरा और समीचीन पहलू यह है कि देश की जनता सरकार के कामकाज पर लगातार अपनी मुहर लगाती गई।
वास्तव में इस मोड़ पर जनता की राय पूछने की अलग से कोई आवश्यकता नहीं थी। विधानसभाओं के परिणाम ही जनता की राय बताने के लिए काफी थे। लेकिन लोकतंत्र एक अध्ययनशील विषय भी है। वह जीवंत भी है। जनता की राय, जिसे मध्यम अवधि में जनता की याद्दाश्त भी कहा जाता है, प्राय: अल्पकालिक मानी जाती रही है। मजेदार बात देखिए, आज आप लगभग किसी भी समीक्षक से मोदी सरकार की उपलब्धि पूछेंगे, तो वह सबसे पहले विदेश नीति का बखान शुरू कर देगा। क्या इसलिए कि प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा अभी सबसे ताजी घटना है? और उसके पीछे की उपलब्धियां तुरंत याद नहीं हैं? या दोनों ही बातें सही हैं? माने वास्तव में विदेश नीति की उपलब्धियां बखान करने योग्य भी हैं और फौरी तौर पर सूझती भी हैं?
वास्तव में ऐसा नहीं है। उत्तरदाताओं ने हर पहलू पर खुल कर बात की है, और कहीं नहीं लगा कि वह किसी तात्कालिक घटना से ज्यादा प्रभावित हुए हैं। स्वच्छ भारत अभियान से लेकर 'नमामि गंगे' तक-हर पहलू पर, हर विषय पर। राजनैतिक समीक्षा तात्कालिक बौछारों से व्यापक निष्कषोंर् तक पहुंचने के लोभ का संवरण कर सके, तभी वह सार्थक हो सकती है। व्यापक निष्कषोंर् तक पहुंचने के लिए समय चाहिए। हां, पदचिन्ह दिशा का संकेत जरूर दे सकते हैं। दे रहे हैं।

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