|
भारतरत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर (1891-1956) का जीवन एक ऐसे राष्ट्र पुरुष की खुली पुस्तक है जो राष्ट्रीय एकात्मता, सामाजिक समरसता, भारत भक्ति, हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का पोषण एवं भावी राष्ट्र निर्माण के पृष्ठों से भरी है। डॉ. आंबेडकर का व्यक्तित्व बहुआयामी तथा कृतित्व सर्वस्पर्शी था। वे अपने युग के सर्वोच्च शिक्षाविदों, अध्ययन कर्ताओं, विचारकों तथा लेखकों में से थे। वे प्राचीन समय के ऋषि तथा आधुनिक युग के राजर्षि थे। वे हिन्दू समाज के लिए भगवान शिव की भांति थे जिन्होंने समाज की कटुता, परस्पर वैमनस्य, द्वेष का स्वयं विषपान कर समाज में समरसता, समन्वय तथा सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया। वे गौतम बुद्ध के त्रिपिटक, कबीर की वाणी तथा महात्मा फूले के कृत्यों को गुरुमंत्र की भांति मानते थे। साथ ही यह भी सत्य है कि डॉ. आंबेडकर का तत्कालीन देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जीवन भर घोर विरोध तथा मतभेद रहा। उॉ. आंबेडकर के कांग्रेस के साथ टकराव को चार रूपों में- कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति, अस्पृश्यों के प्रति उपेक्षा एवं उदासीनता, राजनीतिक विवेकशून्यता तथा कांग्रेस में राष्ट्रीय दृष्टिकोण के अभाव के रूप में देखा जा सकता है जिसका संक्षिप्त वर्णन उपयोगी होगा।
मुस्लिम तुष्टीकरण
डॉ. आंबेडकर का समग्र चिन्तन 18 खंडों में प्रकाशित है, जिसमें आठवा खण्ड उनकी विख्यात पुस्तक 'थॉट ऑन पाकिस्तान' (1940) तथा इसी का संशोधित रूप 'पाकिस्तान ओर पार्टीशन ऑफ इंडिया' (1945) के रूप में है जिसमें मुसलमानों के संदर्भ में उनके विचार तथा उनके प्रति कांग्रेस की नीति का विस्तृत वर्णन है। डॉ. आंबेडकर का विचार है कि भारत में मुस्लिम समस्या भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। राजनीतिक संबंध एक छलावा मात्र है। मुसलमानों का इतिहास प्राचीन भारत से ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से दुर्भावनाओं से भरा है। मुसलमान मतान्ध, असहिष्णु तथा मजहबी है। मुसलमानों का एकमात्र उद्देश्य दारुल हरब को दारुल इस्लाम बनाना रहा है। मुसलमानों के लिए हिन्दू सदैव एक काफिर है (देखें 'पाकिस्तान ओर पार्टीशन ऑफ इंडिया', पृ. 294) डॉ. आंबेडकर ने मुसलमानों के तीन लक्षणों के संदर्भ में लिखा। प्रथम, मुसलमान मानववाद या मानवता को नहीं मानता है। वे केवल मुस्लिम भाईचारे तक सीमित हैं (वही पृ. 314) दूसरे, मुसलमान राष्ट्रवाद को नहीं मानता। वह देशभक्ति, प्रजातंत्र या सेकुलरवादी नहीं है। तीसरे, वह बुद्धिवाद को नहीं मानता। किसी भी प्रकार के सुधारों- विशेषकर मुस्लिम महिलाओं की स्थिति, विवाह के नियम, तलाक, संपत्ति के अधिकार आदि के संबंध में बहुत पिछड़ा हुआ है। डॉ. आंबेडकर ने 711 ई. से लेकर 1763 ई. तक के भारत पर मुस्लिम रक्तरंजित आक्रमणों का वर्णन किया है। इसमें मोहम्मद बिन कासिम (711) महमूद गजनवी (1001), मोहम्मद गोरी (1173), चंगेज खां (1221), तैमूरलंग (1398), बाबर (1526), नादिरशाह (1738) तथा अहमदशाह अब्दाली (1761) का वर्णन है (देखें, वही, पृ.36-46) और सभी में आक्रमण का उद्देश्य केवल लूट या विजय नहीं, बल्कि इस्लाम की स्थापना बतलाया है। यही नहीं, 1857 के संघर्ष का मुख्य उद्देश्य भारत में ब्रिटिश के दारुल हरब के राज्य को दारुल इस्लाम बनाकर इस्लामी राज्य की स्थापना बतलाया है (देखें, एस.के. अग्रवाल, डॉ. आंबेडकर ऑन इस्लाम फन्डामेंन्टलिज्म, पृ. 26)
कांग्रेस की मुसलमानों के प्रति प्रारंभ से ही लुभाने, रिझाने तथा खुशामद की नीति रही है। मुसलमानों के प्रति कांग्रेस की नीति शुद्ध चापलूसी तथा मात्र भ्रम की रही है (देखें एस.के. अग्रवाल, प्राक्कथन व पृ.5)। कांग्रेस सर्वदा हिन्दू मुस्लिम एकता की रट लगाती रही जो एक मृगतृष्णा की तरह रही तथा यह कांग्रेस के एक अदूरदर्शी दृष्टिकोण का परिचायक है। डॉ. आंबेडकर ने कांग्रेस की घुटने टेक नीति का विस्तृत वर्णन किया है। कांग्रेस सदैव मुस्लिम लीग से अलगाव दूर करने के लिए प्रयत्नशील रही। 1909 में मिन्टो मार्ले योजना के अन्तर्गत कांग्रेस ने मुसलमानों को प़थक निर्वाचन की स्वीकृति दी (देखें, 'पाकिस्तान ओर पार्टीशन ऑफ इंडिया', पृ. 141) 1916 के लखनऊ समझौते में मुस्लिम पृथक निर्वाचन की पूरी तरह से स्वीकृति दी तथा उसकी पैरवी की। 1919 में खिलाफत आंदोलन जो पूर्णत: असफल रहा। गांधीजी ने कांग्रेस के सभी सदस्यों से पूरा समर्थन करने को कहा। इसमें शामिल होने को प्रत्येक का कर्त्तव्य बतलाया (वही पृ. 136) वीर सावरकर ने खिलाफत आंदोलन को खुली आफत कहा। तत्कालीन विद्यार्थी नेता मोहम्मद करीम छागला (जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने) ने इसे गांधीजी की एक महान भूल तथा डॉ. आंबेडकर ने गृह युद्ध कहा। डॉ. आंबेडकर ने उपरोक्त आंदोलन की असफलता तथा निराशा से उत्पन्न 1921-22 में मुसलमानों (मोपलाओं) द्वारा जो हिन्दुओं का नरसंहार, जबरदस्त कन्वर्जन, हिन्दू महिलाओं पर दुराचार हुए, गांधीजी ने इनकी कोई भर्त्सना भी नहीं की, बल्कि जिन हिन्दू नेताओं ने मुस्लिम मनोवृत्ति का विरोध किया, उनकी हत्याओं पर भी कांग्रेस ने अपनी संवेदना प्रकट न कीं। (वही पृ. 153) डॉ. आंबेडकर ने कांग्रेस की इस सोच को कि मुस्लिम राजनीति की मांग की पूर्ति से राजनीतिक एकता हो जाएंगी इसे एक छलावा कहा (वही पृ. 180) उनका मत था कि ज्यों ज्यों कांग्रेस घुटने टेकती गई मुसलमानों की मांगें बढ़ती जाती है। डॉ. आंबेडकर का स्पष्ट मत था कि कांग्रेस 'अपीजमेण्ट' और सैटलमैंट (वही पृ. 260-61) तथा मुस्लिम तुष्टीकरण में अंतर नहीं समझती है। ज्यों ही कांग्रेस मुसलमानों की मांगों की पूर्ति करती है। मुसलमानों की हिन्दुओं पर आक्रामकता बढ़ती जाती है। (एस.के. अग्रवाल, पृ. 37) संक्षेप में कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने देश में अलगाव, विघटनकारी तथा ध्वंसात्मक तत्वों को बढ़ाया।
अस्पृश्यों की उपेक्षा
डॉ. आंबेडकर ने अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभ से ही हिन्दुओं में जाति प्रथा के खात्मे तथा अछूतों के उद्धार से अपना लक्ष्य निर्धारित किया था। वे हिन्दू समाज में सुधार चाहते थे तथा चिरजीवी हिन्दू समाज को दोषमुक्त करने के प्रयत्नों में लगे रहे। उन्होंने प्राचीन ग्रंथों के आधार पर बतलाया कि पहले शूद्र न थे और अस्पृश्य प्रथा का आरंभ भी राजा दाहिर की पराजय के काल से हुआ जब मुसलमानों को म्लेच्छ तथा अस्पृश्य कहा तथा इस डर से स्वयं अपना जीवन दे डाला। तभी से अस्पृश्यता तीव्रता से बढ़ी। उन्होंने 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा प्रारंभ की थी जिसका उद्देश्य शिक्षा, संस्कृति के विकास द्वारा अछूतों में नवचेतना पैदा करना था। 1926 में महाड में जब सत्याग्रह, 1930 में नासिक में कालाराम मंदिर के सभी के लिए द्वार खोलने के लिए सफल सत्याग्रह किये थे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वंचितों के लिए अलग से मंदिर बनवाने की व्यवस्था का कठोर विरोधी हूं तथा सभी सार्वजनिक मंदिरों में अछूतों के प्रवेश को न्यायोचित और नैतिक मानता हूं। (देखें, डॉ. बृजपाल, डॉ. बी.आर. आंबेडकर, पृ. 119) उन्होंने तीनों गोलमेज परिषदों में अछूतों के प्रश्न को उठाया था तथा अंग्रेजों को भी चेतावनी देते हुए कहा था कि ब्रिटिश भारत की कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत अछूत है, परंतु 150 साल के ब्रिटिश शासन में अंग्रेजों ने भी उनके लिए कुछ नहीं किया। उनका निश्चित मत था अस्पृश्यता का उद्धार केवल अस्पृश्यों के बल पर नहीं होगा, अपितु पूरे समाज को लेकर आगे बढ़ना होगा।
डॉ. आंबेडकर प्रारंभ से ही कांग्रेस की अस्पृश्यों के प्रति ढुलमुल नीति, उपेक्षा तथा उदासीनता के विरोधी तथा कटु आलोचक थे। उदाहरणत: 1909 में मुसलमानों ने मांग की थी कि वंचितों को हिन्दू जनसंख्या का भाग न माना जाए। पुन: 1923 में कांग्रेस अधिवेशन में जिसके अध्यक्ष मोहम्मद अली थे अछूतों को, हिन्दुओं और मुसलमानों में बांटने की बात की गई, परंतु कांग्रेस ने इसकी भर्त्सना तथा विरोध नहीं किया।
उल्लेखनीय है कि गांधीजी हृदय से अस्पृश्यता के विरोधी थे। उन्होंने अपने भाषणों तथा लेखों में कठोरता से इसका विरोध किया था, एक बार कहा था कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का भाग नहीं है और यदि वह भाग है तो ऐसा हिन्दू धर्म मेरे किस काम का है (देखें, गांधी वांड्मय, खण्ड 19, पृ. 279) उन्होंने यह भी कहा कि अस्पृश्यता के कारण हमारा पतन हुआ (वही, खण्ड 19, पृ. 279) वे अस्पृश्यता को शैतान की चाल बतलाते थे। गांधीजी ने अस्पृश्यता को दूर करना अपने रचनात्मक कार्यक्रमों का भाग भी बनाया था। डॉ. आंबेडकर की गांधीजी के प्रति व्यक्तिगत रूप से अटूट श्रद्धा थी। इसी संदर्भ में 14 अगस्त 1931 को गांधीजी से मिलने वे मणिवेन पटेल भवन मुम्बई गये थे। गांधीजी ने बातचीत में कहा, मैं अछूत की समस्या पर विद्यार्थी जीवन से विचार कर रहा हूं। संभवत: उस समय आपका जन्म ही न हुआ था… बड़ी मुश्किल से कांग्रेस कार्यक्रम को इस समस्या का भाग बनाया है। (बसंत सिंह, आंबेडकर पृ. 50) यह भी बताया कि अछूतों के लिए 20 लाख रुपए खर्च किये हैं। डॉ. आंबेडकर ने बातचीत में इस खर्च को व्यर्थ बताया। यह भी कहा कि कांग्रेस इसके प्रति सजग नहीं है। यह भी कहा कि आपके लोग मुझे देशद्रोही का खिताब क्यों देते हैं। तथा मुझे मार डालने की धमकी क्यों दी जाती है? (वही पृ. 51) डॉ. आंबेडकर ने एक पुस्तक भी लिखी 'व्हाट द कांग्रेस एण्ड गांधी हेव डन टू द अनटचेवल्स।'
17 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोनाल्ड ने साम्प्रदायिक पंथ निर्णय भारत के लिए प्रस्तुत किया था। इसमें मुसलमानों के साथ ईसाइयों यूरोपवासियों के लिए पृथक चुनाव निर्वाचन की व्यवस्था थी, भूपतियों, विश्वविद्यालयों, व्यापारियों, स्त्रियों के अलग निर्वाचन क्षेत्र थे। वंचितों को हिन्दुओं से अलग स्थान दिये गये थे (विनोद कुमार लखनपाल, 'भारत का स्वाधीनता संघर्ष', पृ. 178-179) इसका गांधीजी ने विरोध किया तथा अनशन प्रारंभ किया। डॉ. आंबेडकर का मतभेद न केवल वंचितों को अलग स्थान देने से था बल्कि शेष को अलग मानने की स्वीकृति से भी था। गांधी वंचितों को हिन्दुओं के साथ ही मानते थे। डॉ. आंबेडकर ने स्वयं इस दुविधापूर्ण स्थिति का वर्णन किया है या तो वे अवार्ड के अनुसार वंचितों के प्रति समर्थन द या भरसक गांधीजी का। उन्होंने लिखा, आखिर वे स्वयं गांधीजी के पास पहुंचे। पूना समझौता हुआ। गांधीजी ने अनशन तोड़ा।
मुम्बई विधानसभा में अछूतों के लिए गांधीजी द्वारा प्रयोग में आये शब्द 'हरिजन' पर बड़ी बहस हुई। विधानसभा में एक भी मंत्री अनुसूचित जाति का न था। कांग्रेस ने अछूतों को हरिजन कहने का प्रस्ताव रखा तथा कांग्रेसी बहुमत होने के कारण प्रस्ताव पारित हो गया। दादा साहेब गायकवाड़ तथा डॉ. आंबेडकर ने इसका विरोध किया। दादा साहेब ने कहा कि यदि हरिजन ईश्वर के लोग हैं तो क्या बाकी सभी दानव हैं? डॉ. आंबेडकर ने इसे थोपा हुआ अन्याय तथा इसके प्रयोग को पाखंड कहा।
राजनीतिक विवेकशून्यता
डॉ. आंबेडकर स्वभावत: राजनीति को ज्यादा महत्व नहीं देते थे। वे कहा करते थे कि मेरा तत्व राजनीति से नहीं धर्म से उपजा है। भारतीय राजनीति में उनका पदार्पण कांग्रेस विरोधी के रूप में हुआ था। वे बंगाल से चुनकर भारतीय संविधान सभा के सदस्य बने थे। पंडित नेहरू के आग्रह पर वे उनके पहले मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बने थे, व्यक्तिगत रूप से वे कानून मंत्री नहीं बनना चाहते थे, परंतु देशहित में इसे स्वीकार किया। वे चार वष एक महीने तथा छब्बीस दिन मंत्री रहे, परंतु नेहरू नीति के विरोध में 1951 में त्यागपत्र दे दिया था।
त्यागपत्र देते हुए उनके पांच प्रमुख कारणों में एक पं. नेहरू की विदेश नीति भी था। डॉ.आंबेडकर व्यावहारिक तथा यथार्थवादी नीति के पोषक थे। वे पं. नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नीति पड़ोसियों के प्रति व्यवहार, लोकतांत्रिक देशों की बजाय कम्युनिस्ट देशों के प्रति झुकाव से असंतुष्ट ही नहीं बल्कि बेचैन तथा क्षुब्ध रहते थे। उन्होंने पं. नेहरू की कश्मीर नीति, तिब्बत तथा चीन के प्रति नीति की कटु आलोचना की थी। उन्होंने चीन के भविष्य के रवैये पर भी प्रश्न उठाये थे। संक्षेप में उनका कथन था कि 1947 का भारत वह था जब उसके सब देश मित्र थे, 1948 का भारत वह था जिसका कोई साथी न था। प्रारंभ में पं. नेहरू ने भारत के संविधान का निर्माण इंग्लैण्ड के संविधान शास्त्री सर आनर जेनिंग्स द्वारा चाहते थे, परंतु यह माननीय न हुआ सामान्यत: डॉ. आंबेडकर को भारतीय संविधान का निर्माता कहा जाता है। वस्तुत: इसमें कोई शक भी नहीं है यदि वे न होते तो भारतीय संविधान बनना बड़ा कठिन होता। वे भारतीय संविधान निर्माण के सर्वोच्च मार्गदर्शक थे। भारतीय संविधान सभा कार्य 9 दिसम्बर 1946 से 26 नवम्बर 1949 तक चला था जिसमें 11 अधिवेशन तथा 165 दिन कार्यवाही हुई थी जिसकी रपट 12 खंडों में है। परंतु यह भी सत्य है कि डॉ. आंबेडकर ने कभी भी स्वयं को इस संविधान का निर्माता स्वीकार न किया। वस्तुत: जब उन्हें प्रारंभ में बोलने काूे कहा गया तो उन्हें आश्चर्य हुआ था जब उन्हें ड्राफ्ट कमेटी का सदस्य बनाया गया तो दूसरी बार आश्चर्य हुआ तथा जब उनहें संविधान सभा की ड्राफ्ट कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया तब भी महान आश्चर्य हुआ था। संविधान सभा में जब पहली बार संविधान के उद्देश्यों के संदर्भ में पं. नेहरू ने अपना प्रस्ताव रखा तो डॉ. आंबेडकर ने इसे घोर निराशापूर्ण कहा था। डॉ. आंबेडकर ने संविधान के बारे में अपनी भूमिका के बारे में कहा था, लोग प्राय: यह कहते हैं कि मैं भारतीय संविधान का निर्माता हूं। मेरा जवाब है मैं तो ठीक था। मुझे जो भी करने को कहा इसे अपनी इच्छा के विरुद्ध किया। उन्होंने पुन: कहा, महानुभाव मेरे मित्र कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया। मैं यह कहने के लिए बिल्कुल तैयार हूं कि मैं पहला व्यक्ति हूंगा जो इसे जला देगा। मैं इसे नहीं चाहता। ये संविधान भी व्यक्ति के लिए उपयुक्त नहीं है (देखें 2 सितम्बर 1953 राज्यसभा की कार्यवाही) जब पंजाब के एक सदस्य डॉ. अनूपसिंह ने उनसे पूछा, आप संविधान को जलाना क्यों चाहते हैं? जवाब दिया, आप इसका उत्तर चाहते हैं कि हमने देवता के आगमन तथा उनके निवास के लिए एक मंदिर बनाया, परंतु इससे पहले कि वे वहां स्थापित हों, असुरों ने उस स्थान पर कब्जा कर लिया। अब क्या किया जा सकता है? इस पर राज्यसभा के एक सदस्य वीकेपी सिन्हा ने कहा, मंदिर क्यों ध्वंस करते हो, असुरों को क्यों नहीं निकालते। इस पर शतपथ से देवासुर संग्राम की घटना का वर्णन करते हुए डॉ. आंबेडकर कहा, आप ऐसा नहीं कर सकते। हमारे में वह शक्ति नहीं आई है कि असुरों को भगा सकें (देखें, 19 मार्च 1955, राज्यसभा की कार्यवाही) परंतु डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कश्मीर संबंधी 370 की धारा का कटु विरोध किया। पं. नेहरू के चाहते हुए संविधान में सेकुलर तथा समाजवाद को घुसने नहीं दिया। उन्होंने राजनीतिक प्रजातंत्र के साथ सामाजिक तथा आर्थिक प्रजातंत्र को आवश्यक बतलाया। देश में राजनीतिक पार्टी की तानाशाही से सावधान किया। देश के गद्दारों से सावधान किया।
नागरिकों के लिए आवश्यक है अतीत का सम्मिलित गौरव, वर्तमान की सम्मिलित इच्छा तथा भविष्य में पुन: करने के लिए संकल्प ('थॉट ऑफ पाकिस्तान,' पृ. 351) डॉ. आंबेडकर को कांग्रेस का पाश्चात्य ढंग का भ्रामिक राष्ट्रवाद स्वीकृत न था। उन्हें कांग्रेस द्वारा मजहब के आधार पर, कांग्रेस के उतावलेपन से बने राष्ट्र स्वीकार्य न था। जब कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता पाश्चात्य जगत के राष्ट्र संबंधी विचारों के प्रशंसक थे, तभी डॉ. आंबेडकर ने अपनी आस्था भारत के मूल हिन्दू चिंतन में व्यक्त की।
डॉ. आंबेडकर राष्ट्र निर्माण में अपने देश की महान संस्कृति तथा धर्म पर गर्व करते थे। उनका मत था कि भारत राष्ट्र की एकता का मूलाधार संस्कृति की संपूर्ण देश में व्याप्ति है। उनका कथन था कि इसमें न केवल भौगोलिक एकता है अपितु उससे भी ज्यादा गहरी और मूलभूत एकता में राष्ट्रीय एकता है जो एक छोर से दूसरे छोर तक देश में व्याप्त है। बसंत मून, 'डॉ. आंबेडकर राइटिँग्स एण्ड स्पीचेज', भाग दो, पृ. 195) उन्होंने कांग्रेस की मिलीजुली संस्कृति की आलोचना की।
डॉ. आंबेडकर एक विशुद्ध अथवा विद्रोही हिन्दू थे। वे अपने को एक 'नॉन कनफर्मिस्ट हिन्दू' कहलाना ज्यादा पसंद करते थे। उनका कथन था कि उन्हें नवजातीय हिन्दू 'प्रोटेस्टेंट हिन्दू' या 'नॉन कन्फर्मिस्ट' या किसी अन्य नाम से पुकारें, बजाय वंचित वर्ग के। डॉ. आंबेडकर को हिन्दुत्व की श्रेष्ठता पर गर्व था। उनके अनुसार हिन्दू दर्शन, विश्व का सर्वश्रेष्ठ दर्शन है। 19 जनवरी 1929 में आपने बहिष्कृत भारत में लिखा था, जिस योजना में हिन्दुओं का अहित होता है, वह योजना किस काम की। वे कहा करते थे कि सच्चरित्रता धर्म का अविभाज्य अंग है। धर्म दुराचार को नियंत्रक में रखता है। उनकी हिन्दू की परिभाषा उदात्त थी। हिन्दू कोड बिल में उन्होंने हिन्दुओं में वैदिक शैव, जैन, बौद्ध तथा सिखों को स्थान दिया है। उनका कहना था कि मैं जो कुछ भी हूं धर्म के कारण ही हूं। उन्हें इस बात का दु:ख भी था कि हिन्दू धर्म में आने के द्वार बंद हैं। शुद्धि की समुचित व्यवस्था नहीं है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि डॉ. आंबेडकर पूर्णत: हिन्दुत्व के प्रतीक थे। वे संस्कृत भाषा को भारत की राजभाषा के रूप में देखना चाहते थे (सण्डे स्टैण्डर्ड, 10 सितम्बर 1947) उनका मत था कि भारत का राष्ट्रीय ध्वज यदि भगवा हो तो इसमें क्या हर्ज है।
संक्षेप में डॉ. आंबेडकर व्यवहार तथा कृतित्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बिल्कुल अलग थे। पर दो बिन्दुओं की दृष्टि से कांग्रेस प्रशंसा की पात्र है। प्रथम उन्होंने डॉ. आंबेडकर के 100वें जन्म दिवस पर भले ही परिस्थितियों के चलते मजबूरी में उनको भारतरत्न दिया तथा दूसरे, यह आश्चर्यजनक होते हुए भी प्रसन्नता का विषय है कि उनसे जीवनभर मतभेद होते हुए भी उनकी 125 वीं जयंती पर समूचे देश में उनके बारे में कार्यक्रम आयोजित करने का निश्चय किया। काश! भारत का संविधान पं. नेहरू की बजाय डॉ. आंबेडकर की हिन्दुत्ववादी भावनाओं के अनुकूल होता। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
टिप्पणियाँ