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विवेक बंसल
पिछले कुछ समय से देश में भूमि अधिग्रहण और किसानों की आत्महत्या पर उठा बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। तथाकथित राजनीतिक दल जो किसानों के हितैषी होने का दावा कर रही हंै, इस विधेयक में अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तलाश रहे हंै। तथाकथित इसलिए है कि उनके पिछले 10 साल के शासनकाल में किसानांे का जो हाल-बेहाल हुआ, उस पर तो वे स्वयं आत्ममंथन करने को भी तैयार नहीं हैं। किसान आत्महत्या देश के लिए चिंता का विषय है। लेकिन ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ पार्टियों के नेता अन्नदाताओं को वोट बैंक का हिस्सा बनाने पर तुले हैं। जो कांग्रेस पार्टी किसानांे की हितैषी होने का दम भर रही है, उसके 10 साल के शासनकाल में अकेले महाराष्ट्र में 36848 किसानों ने आत्महत्या की। क्या वह इनकी नैतिक जिम्मेदारी लेने को तैयार है?
अगर उनकी नीतियां बहुत अच्छी थीं तो इतने किसानांे ने आत्महत्याएं क्यों की? पार्टी के 'युवराज' आज जिस तरह से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर रहे हैं, वे अगर अपनी सरकार के समय ऐसा कर लेते तो आज नयी सरकार को इस समस्या का दंश न झेलना पड़ता। क्या उन्हें मालूम है जब गोदामों की कमी के कारण लाखों टन अनाज बारिश में भीग कर खराब हो गया और उनकी कांग्रेसी सरकार ने उस अनाज को 60 पैसे प्रति किलोग्राम के हिसाब से शराब कंपनियों को बेच दिया? तब इनको अपनी जिम्मेदारी का एहसास क्यों नहीं हुआ? क्या कारण था कि पिछली केन्द्र सरकार ने 2010 में 7,266 करोड़ रु. का बुंदेलखंड सूखा राहत पैकेज दिया था और उसके बाद भी बुंदेलखंड के गांवों में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला खत्म नहीं हुआ था क्यों? क्योंकि किसानांे की परवाह कांग्रेस ने कभी की ही नहीं। गरीबो के लिए कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर सिर्फ घोटाले हुए और आज भी कांग्रेस किसानों को राजनीति में अपनी वापसी का जरिया बना रही है। कृषिप्रधान देश में अन्नदाता आत्महत्या करने को मजबूर है। मगर राजनीतिज्ञों को इससे क्या? उन्हें तो किसानों का रहनुमा बनने की होड़ करने से ही फुर्सत नहीं है।
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी योजना लेकर आये कि जरूरत के समय में किसान अपना अनाज घर बैठे ऑनलाइन बेच सकता है और उसके अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम बनाये जायेंगे, लेकिन संप्रग सरकार ने इस योजना को जुए का बाजार बना दिया। ऑनलाइन व्यापार तो चलता रहा लेकिन व्यापार करने वाला किसान नहीं था। व्यापार करने वाले बड़े-बड़े उद्योगपति और दलाल थे जो हजारों टन अनाज केवल आंकड़ांे में ऑनलाइन बेचते रहे, जिसका खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ा। इसका ताजा उदाहरण है, ग्वार के दाम 40,000 रुपए क्विंटल चले गये और सरकार को वायदा बाजार में ग्वार की कालाबाजारी पर रोक लगानी पड़ी।
वर्तमान सरकार ने जिस प्रकार से ठोस निर्णय लिए हैं उससे एक आस जगी है। अब अगर किसानांे की फसल को 50 प्रतिशत की वजह 33 प्रतिशत भी सूखे, ओलावृष्टि या अन्य प्राकृतिक आपदा से नुकसान होता है तो भी उसे मुहावजा मिलेगा। सरकार ने 'सोशल हेल्थ कार्ड' योजना शुरू की, जिससे यह पता लगाया जा सकेगा कि किसान की जमीन में किस फसल की ज्यादा उपज होगी।
इससे किसानो को फायदा मिलेगा। महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने किसानांे के सारे ऋण खुद चुकाने का फैसला करके किसानों की सारी समस्या को हल कर दिया है। फडनवीस सरकार ने दिसंबर में 7,000 करोड़ रु. के राहत पैकेज और 34,500 करोड़ रु. के दीर्घकालिक सूखा राहत पैकेज की घोषणा की। इसके अलावा उन्होंने केंद्र सरकार से भी 4,677 करोड़ रु. की तत्काल सहायता मांगी। केंद्र सरकार ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि अगर किसान का अनाज सड़ गया है तो भी उसको तय किये गये मूल्य पर खरीदा जायेगा। हरियाणा की भाजपा सरकार ने भी किसानांे के हित में बड़ा निर्णय लेते हुए यह फैसला किया है कि अगर किसान का भले 100 रुपए का भी नुकसान हो लेकिन उसे 500 रुपए की न्यूनतम मुआवजा राशि दी जाएगी, लेकिन दुर्भाग्यवश प्रचार माध्यम इसे यह बताकर पेश कर रहे हैं कि हरियाणा सरकार ने किसानांे को मुआवजे के रूप में केवल 500 रुपए दिए हंै। बेमौसम बारिश और सूखा, यह किसी के बस में तो नहीं।
लेकिन पिछली सरकारों द्वारा अगर कोई ठोस योजना तैयार की जाती तो संकट के समय में ऐसी परिस्थितियों से निपटा जा सकता था। किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हंै इसका पता लगाना आवश्यक है। देश में हर किसान आत्महत्या की अलग-अलग कहानी है।
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