|
सात मई को तेहरान में जब भारत के जहाजरानी व परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ईरान के अपने सहयोगी मंत्री डॉ. अब्बास अहमद अखौदी के साथ चाबहार बंदरगाह के बारे में समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे, तब सुदूर बीजिंग, इस्लामाबाद और वाशिंगटन में बैठे राजनयिक गुस्से से दांत पीस रहे थे। अलग-अलग कारणों से ही सही, पर ये तीनों देश भारत और ईरान के इस चाबहार समझौते के विरोध में थे।
यह समझौता सीधा, सरल और स्पष्ट है। भारत-ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करेगा। उसके बदले में भारत को इस बंदरगाह पर दो गोदी क्षेत्र मिलेंगे और भारतीय कंपनियां इन दोनों को लीज पर लेकर उसे बहुद्देशीय 'कंटेनर' एवं 'मल्टी-पर्पस कार्गो' टर्मिनल बनाने का काम करंेगी। इस प्रकार के समझौते चीन ने अनेक देशों के साथ किए हुए हैं। पाकिस्तान के साथ ग्वादर बंदरगाह के लिए, श्रीलंका के साथ हब्बनटोटा के लिए, बंगलादेश के साथ चटगांव और कॉक्स बाजार के लिए उसने समझौते किए हैं। लेकिन भारत-ईरान के बीच इस समझौते से चीन को बड़ी तकलीफ हुई है।
पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह को विकसित कर चीन ने वहां पर अपनी सेना की टुकडि़यां तैनात की हैं। प्रारंभ में ग्वादर बंदरगाह का व्यवस्थापन सिंगापुर की एक कंपनी को सौंपा गया था, लेकिन उसे स्तरहीन बताकर अब ग्वादर का व्यवस्थापन चीनी कंपनी के हाथों दिया गया है। ग्वादर में चीन की मजबूत उपस्थिति भारत के लिए सामरिक चुनौती थी। इसके पहले कराची बंदरगाह, पकिस्तान के लिए समुद्री व्यापार और नौसैनिक शक्ति का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। 1965 और 1971 के युद्धों में जब भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर कब्जा किया था, मानो उस वक्त पाकिस्तान सांसत में आ गया था। ग्वादर बंदरगाह तैयार होने से अब पाकिस्तान के लिए वह एक सामरिक महत्व का बंदरगाह बन गया है। चीन की दृष्टि से ग्वादर का मतलब है, भारतीय उपमहाद्वीप में उसकी दमदार मौजूदगी, ओमान की खाड़ी से तेल प्राप्त करने का महत्वपूर्ण और निकटतम स्थान। अत: चीन के लिए ग्वादर एक महत्वपूर्ण परियोजना है।
चीन के इस 'नहले' पर भारत का 'दहला' है चाबहार समझौता। ग्वादर से मात्र 72 किलोमीटर की दूरी पर, ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रान्त में स्थित यह बंदरगाह भारत के लिए सामरिक महत्व का स्थान है। यह अफगानिस्तान पहुंचने का वैकल्पिक रास्ता है। अफगानिस्तान, भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है। भारत से उसके मित्रतापूर्ण संबंध बने रहें, यह भारत की सुरक्षा नीति के अनुसार आवश्यक है।
यदि पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान के संबंध मित्रतापूर्ण हो गए तो खैबर दर्रे पर और वजीरिस्तान में मौजूद तालिबान और अन्य आतंकवादी संगठनों की वहां कोई प्रासंगिकता नहीं बचेगी और वे सारे आतंकी कश्मीर के मोर्चे पर तैनात होंगे। भारत की बड़ी शक्ति उन ताकतों का सामना करने में खर्च होगी। यही तो चाहता है पाकिस्तान। इसलिए वह फिलहाल अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति के साथ दोस्ती बढ़ाना चाह रहा है। साथ ही भारत को अपना सामान सड़क के रास्ते अफगानिस्तान नहीं पहंुचाने दे रहा है। अफगानिस्तान में भारत की अनेक परियोजनाएं चल रही हैं। उन परियोजनाओं के लिए बड़ी मात्रा में सामान की आवश्यकता होती है। वहां के खनिजों के लिए भी भारत ने अफगानिस्तान से समझौता किया है। ऐसे सारे माल की ढुलाई अटारी सीमा से सड़क के रास्ते अफगानिस्तान तक बड़ी आसानी से सस्ते में हो सकती है, किन्तु पाकिस्तान ने इस पर भी अड़चन पैदा की हुई है।
स्वाभाविक रूप में भारत को नया रास्ता तो तलाशना ही था, चाबहार वही रास्ता है। भारत इस बंदरगाह से अफगानिस्तान को जोड़ने वाले मुख्य क्षेत्र तक 900 किलोमीटर की रेललाइन बिछाएगा। समुद्री मार्ग से चाबहार, वहां से रेल मार्ग से जरांज और वहां से सड़क मार्ग से अफगानिस्तान के अंदर तक। जरांज अफगानिस्तान के निर्मुज राज्य में ईरान की सीमा पर स्थित है। यहां से डेलारम का रास्ता भारत के सहयोग से वर्ष 2009 में बना है। यह योजना अगले 5-6 वर्षों में पूर्ण होती है तो भारत के लिए मध्य-पूर्व के देशों के साथ व्यापार का एक नया रास्ता खुल जाएगा। अनुमान है कि आज अफगानिस्तान के साथ होने वाला लगभग 70 करोड़ अमरीकी डॉलर का व्यापार इस परियोजना के पूर्ण होने पर 3 अरब अमरीकी डॉलर तक पहंुच जाएगा।
लेकिन भारत तो इससे भी आगे का दृश्य देख रहा है। अफगानिस्तान के बामियान राज्य में लोह अयस्क का विशाल भण्डार है। 'सेल' (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया) ने वहां के हाजिगाक क्षेत्र में खुदाई का ठेका लिया है। वहां लगभग 18 अरब टन के लोह अयस्क भंडार का अनुमान रूसी अभियंताओं ने कुछ वर्ष पहले लगाया था। लोह अयस्क की ढुलाई की दृष्टि से चाबहार सस्ता और आसान रास्ता रहेगा। इस से भी बड़ी एक महत्वाकांक्षी परियोजना पर भारत काम कर रहा है। ईरान से भारत तक तेल के लिए पाइपलाइन डालने की योजनाओं पर अनेक बार विचार हुआ है। लेकिन बीच में पाकिस्तान की जमीन आने से यह सब परियोजनाएं धरी की धरी रह गई हैं। लेकिन अब चाबहार ने एक नई दिशा दी है।
चाबहार बंदरगाह से मुंबई बंदरगाह तक समुद्र के अंदर गैस पाइपलाइन डालने की परियोजना पर भारत और ईरान काम कर रहे हैं। प्राकृतिक गैस के परिवहन का यह अत्यधिक सस्ता और प्रभावी मार्ग रहेगा। इस पाइपलाइन की परियोजना के बगैर भी भारत को चाबहार के कारण तेल और गैस की ढुलाई के खर्चे में दो तिहाई की बचत हो रही है।
चाबहार बलूची लोगों की बहुतायत वाला एक छोटा सा शहर है। चाबहार, 'चार बहार' से बना शब्द है। चार बहार अर्थात वह शहर जहां वर्ष में चार वसंत खिलते हैं। लेकिन वास्तव में यहां की आबोहवा ऐसी नहीं है। यह है गरम, कुछ कम गरम और उमस भरा वातावरण। लेकिन ईरान की नजरों में यह बेशकीमती बंदरगाह है। ईरान इसे मुक्त व्यापार का केन्द्र बनाना चाहता है। ईरान को बाकी दुनिया से जोड़ने के रास्ते के रूप में इसे प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस चाबहार परियोजना को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने 2003 के अंत में मूर्त रूप देने का प्रयास किया था, लेकिन 2004 में राजग पुन: सत्ता मंे न आ सकी और यह परियोजना धरी की धरी रह गयी। पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने इस परियोजना को केवल इसलिए हाथ नहीं लगाया क्योंकि इसके प्रति अमरीका का भारी विरोध था।
2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने इसे प्राथमिकता की सूची में शामिल किया। अक्तूबर, 2014 में इस परियोजना का प्राथमिक कार्य पूर्ण हुआ। इस बीच अमरीका ने अपना तगड़ा विरोध जताया। उसने भारत को इस परियोजना में जल्दबाजी न करने की सलाह
दी। अमरीका की ईरान के साथ परमाणु
अप्रसार संधि पर बातचीत पूर्ण नहीं हुई है। अमरीका ने ईरान को 30 जून तक का समय दिया है। वह सभी देशों से अपील कर रहा है कि ईरान से कोई व्यवहार न रखें। लेकिन भारत ने अमरीका के इस विरोध को दरकिनार करते हुए 7 मई को ईरान के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर किए और भारतीय कूटनीति ने सफलता के नए आयाम रचे। -प्रशांत पोल
टिप्पणियाँ