शिक्षा जगत- चुनौतियां एवं भावी परिदृश्य
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शिक्षा जगत- चुनौतियां एवं भावी परिदृश्य

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May 16, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 May 2015 14:56:02

विश्व की सर्वाधिक युवा जनसंख्या आज भारत में है जहां, वर्तमान में 13 लाख विद्यालयों में कुल 23 करोड़ एवं 700 विश्वविद्यालय व तत्सम संस्थानों सहित 45000 महाविद्यालयों में 2 करोड़ छात्र अध्ययनरत हैं। आज विश्व में सर्वाधिक 6 लाख इंजीनियरिंग स्नातक भारत में तैयार हो रहे हैं। देश की यही युवा जनशक्ति हमारे 'मेक इन इण्डिया' अभियान का भी आधार सिद्घ होगी और 2020 तक विविध औद्योगिक देशों में ज्ञान आधारित रोजगार क्षेत्रों में होने वाले 4 करोड़ 30 लाख लोगों के जनाभाव की पूर्त्ति का भी स्रोत है। आज भी विश्व की सर्वाधिक ख्यातनाम अमरीकी सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनी-आई़बी़एम़ ने 1,12,000 सॉफ्टवेयर इंजीनियर भारत में व केवल 1 लाख अमरीका में नियोजित कर रखे हैं। अमरीका में नियोजित उन 1 लाख कार्मिकों में भी 43,000 भारतीय हैं। वस्तुत: देश के विकास में, हमारे इन जन संसाधनों का हमें पूरा लाभ मिले, इस हेतु देश के इन युवाओं के कौशल व उनकी नियोजन योग्यता अर्थात एम्प्लॉयबिलिटी को भी उत्तरोत्तर बेहतर करना होगा। हाल के कई सर्वेक्षणों में भारत के अभियांत्रिकी स्नातकों में से केवल 25 प्रतिशत और कला, विज्ञान व वाणिज्य के स्नातकों में से केवल 10 प्रतिशत ही नियोजन योग्य पाये गये हैं। कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर कम्पनियों के संगठन 'नेसकॉम' ने भी देश के स्नातकों में से केवल 25 प्रतिशत को ही सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगों में नियोजन योग्य माना है। देश के मेट्रो विशेषज्ञ ई़ श्रीधरन के अनुसार केवल 12 प्रतिशत अभियान्त्रिकी स्नातक सीधे नियोजन के योग्य हैं व शेष में से भी 64 प्रतिशत स्नातकों को ही आवश्यक प्रशिक्षण के बाद नियोजन योग्य बनाया जा सकता है। लेकिन, बचे हुए 34 प्रतिशत को वांछित प्रशिक्षण देना भी संभव नहीं है। नेशनल एम्प्लॉयबिलिटी रपट के अनुसार देश के अभियान्त्रिकी स्नातकांे में से केवल 17़45 प्रतिशत ही सूचना प्रोद्योगिकी उद्योगांे में नियोजन योग्य हंै, दूसरी ओर सूचना प्रोद्योगिकी के उत्पादन क्षेत्र में केवल 2.68 प्रतिशत ही नियोजन योग्य है और केवल 9़22 प्रतिशत ही के़पी़ओ़ (ङढड) क्षेत्र में नियोजन योग्य हैं। ऐसे कई प्रतिवेदनो में विविध स्नातकांे मे नियोजन योग्यता के अभाव को देखते हुए देश में शिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए अविलम्ब प्रयत्न करने की आवश्यकता है।
विद्यालय स्तर पर भी पिछले 10 वषार्ें के राजनीतिक निर्णयों से आयी सतत् गिरावट के कारण अन्तर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन कार्यक्रम (ढ१ङ्मॅ१ंेेी ाङ्म१ कल्ल३ी१ल्लं३्रङ्मल्लं' र३४िील्ल३२ अ२२ी२२ेील्ल३ या ढकरअ) द्वारा किये जाने वाले 74 देशों के विद्यालय स्तरीय छात्रों के स्तर के तुलनात्मक मूल्यांकन में भारतीय छात्रों के निरन्तर नीचे से दूसरे स्थान पर आने के कारण भारत ने उस स्पर्द्घा में भाग लेना ही बन्द कर दिया है। आठवीं कक्षा तक किसी छात्र का अनुत्तीर्ण नहीं करना व 10वीं की बोर्ड की परीक्षा ऐच्छिक कर देने से हाल के वषार्ें में आयी गिरावट को रोकने के लिये आज अविलम्ब प्रयत्न आवश्यक है। संप्रग के कार्यकाल में हुये इन निर्णयों की कांगे्रस के ही सांसद, आस्कर फर्नांडिस की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति तक ने पिछले वर्ष इस नीति की आलोचना करते हुये यहां तक कह दिया था कि, इससे पूरे देश के विद्यालयों में छात्रों की वाचन क्षमता, भाषा ज्ञान एवं गणितीय योग्यता में अकल्पित व भारी गिरावट आयी है। 'प्रथम' नाम के एक स्वैच्छिक संगठन द्वारा देश के 566 जिलों के 3 से 16 वर्ष की आयु के 6 लाख बच्चों के सर्वेक्षण जिसे तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री पल्लम राजू ने ही जारी किया था, में कहा गया है कि पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले आधे से अधिक छात्र दूसरी कक्षा की पुस्तक का छोटा सा गद्यांश भी नहीं पढ़ पाते हैं एवं साधारण जोड़-बाकी भी नहीं कर पाते हैं। प्रतिवेदन में इस बात पर गम्भीर चिन्ता व्यक्त की गयी है कि, पांचवीं कक्षा के 55.05 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा की पुस्तक का भी वाचन नही कर पाते हैं। इसी प्रकार पांचवीं कक्षा के 46.5 प्रतिशत छात्र दो अंकों की संख्याओं को भी घटाने में असमर्थ पाये गये।
दसवीं की बोर्ड की परीक्षा को भी ऐच्छिक कर दिये जाने से, अब केन्द्रीय बोर्ड के विद्यालयों के छात्रों के लिये, 12वीं कक्षा में पहुंच जाने तक कोई भी मानक परीक्षा देने की अनिवार्यता ही समाप्त हो गयी है। दसवीं में विद्यालय स्तर की परीक्षा का विकल्प चुनने वाले किसी भी छात्र को बारहवी कक्षा में पहुंचने पर ही बोर्ड की परीक्षा देनी व उत्तीर्ण करनी होती है। वस्तुत:, आठवीं तक किसी छात्र को अनुत्तीर्ण करने पर रोक लगा देने से आठवीं तक के छात्रों की, कक्षाओं में 75 प्रतिशत उपस्थिति की अनिवार्यता भी समाप्त हो गयी है। छात्रों के मन पर से अध्ययन का तनाव हटाने के नाम पर किये इन सभी प्रतिगामी परिवर्तनों से अब छात्रों के लिये नियमित विद्यालय जाना व गम्भीरतापूर्वक परीक्षा देने की अनिवार्यता ही समाप्त हो गयी है। इससे महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लेने तक, उनके वांछित शैक्षिक स्तर के विकास का मार्ग ही धूमिल हो गया है। 12वीं बोर्ड के पूर्व की 11 कक्षाओं तक की संचित अध्ययन सम्बन्धी कमजोरी को केवल 12वीं की बोर्ड परीक्षा या 3-4 वर्ष की स्नातक उपाधि के अध्ययन में दूर कर लेना कतई सम्भव नही है। ऐसे में कहीं हमारी नई पीढ़ी ऐसी न हो जाये जिसके पास शैक्षिक योग्यता का प्रमाणपत्र तो हो, लेकिन, उसे साधारण सा भी शैक्षिक अभिज्ञान नहीं हो।
आज देश के 700 विश्वविद्यालयों व तत्सम डिग्री प्रदाता संस्थानों में से एक भी विश्वविद्यालय विश्व के 250 ख्यातनाम संस्थानों की सूची में नहीं है। देश के उच्च प्रतिष्ठालब्ध संस्थान यथा आई़आई़टी़ व आई़आई़एम़ में भी संकाय में बढ़ते रिक्त स्थानों की समस्या, अध्यापन व शोध सम्बन्धी उद्देश्यों में प्राथमिकताओं की अस्पष्टता जैसी अनेक समस्याओं के अतिरिक्त विगत सत्र में तो आई़आई़टी़ में प्रवेश की प्रथम काउंसलिंग मंे 760 चयनित छात्रोंे ने प्रवेश ही नहीं लिया और अन्तत: इन संस्थानों में लगभग 300 स्थान रिक्त ही रह गये। वस्तुत: छात्रों की संख्या के अनुपात में संकाय सदस्यों की अपर्याप्तता, वांछित अकादमिक वातावरण के अभाव, अनुसंधान व शोध पत्रों के प्रकाशन व अर्न्तराष्ट्रीय पेटेन्ट की अत्यन्त न्यून संख्या आदि के देश के विश्वविद्यालय, अन्तरराष्ट्रीय मूल्यांकन के मानकों पर बहुत पीछे रह जाते हैं। हम विश्व की 16 प्रतिशत जनसंख्या का निर्माण करते हंै, लेकिन, अन्तरराष्ट्रीय पेटेन्ट आवेदन में हमारा अंश 1 प्रतिशत से न्यून होने से नवोन्मेष में हमारा स्थान विश्व के 15 प्रमुख देशों में कही नहीं है। अन्तरराष्ट्रीय शोध प्रकाशनों में भी हमारा अंश मात्र 2़2 प्रतिशत है जो 2002 में भी 2़3 प्रतिशत था। दूसरी ओर अन्तरराष्ट्रीय शोध प्रकाशनों में चीन का योगदान 2002 में 14 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 21 प्रतिशत हो गया है और इसमें प्रथम स्थान अमरीका का है। यहां पर यह स्मरणीय है कि, 1980 में भारत शोध प्रकाशन में चीन से आगे था। अन्तरराष्ट्रीय पेटेण्ट आवेदकों में अब चीन प्रथम स्थान पर है। अन्तरराष्ट्रीय शोध प्रकाशनों में अमरीका का योगदान 23.़3 प्रतिशत है।
आज हम विश्व की सॉफ्टवेयर राजधानी तो हैं। लेकिन सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में हमारे उत्पाद व ब्राण्ड नहीं हैं। हम इस क्षेत्र में माइक्रोसॉफ्ट, आई़बी़एम़, ऑरेकल आदि विदेशी कम्पनियों को उत्पाद और ब्राण्ड बना रहे हैं। अन्य विनिर्माणी अर्थात मेन्यूफैक्चरिंग उद्यमों के क्षेत्र में भी अधिकांश विदेशी ब्राण्डों के लिये उत्पादन करते हैं, जिनका अधिकांश लाभ विदेशी कम्पनियों को ही दिया जाता है। देश में 'मेड बाई इण्डिया' उत्पाद और ब्राण्डों के विकास हेतु हमारे विश्वविद्यालयों में नवोन्मेष का वातावरण बना कर जहां सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में ऑपरेटिंग सिस्टम, ई़आऱपी़ उत्पाद व अन्य सॉफ्टवेयर उत्पादों के विकास से लेकर मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र में भी उत्पाद विकास की दिशा में पहल करने की आवश्यकता है। इसके लिए जापान, कोरिया व यूरोपीय देशों की तरह उद्योगों के लिए विश्वविद्यालय व संयुक्त अनुसंधान केन्द्र विकसित करने होंगे। आज अमरीका में 1500 से अधिक विश्वविद्यालयों की सहभागिता वाले उद्योग सहायता संघ कार्यरत हैं। भारत आज विश्व का तीसरा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है देश की इस्पात उत्पादन की प्रौद्योगिकी सबसे मितव्ययी है और देश के पास इस्पात की कटिंग व वेल्डिंग आदि के लिए सर्वाधिक कुशल जनशक्ति भी है और लम्बी तटरेखा भी है। लेकिन, विश्व में जहाज निर्माण में हमारा अंश 0.01 प्रतिशत के नगण्य स्तर पर है, चीन 38 प्रतिशत के साथ अंश क्रमांक एक पर है। दूसरे स्थान पर कोरिया है जिसकी जनसंख्या हमारी 3 प्रतिशत व क्षेत्रफल 5 प्रतिशत है। चाहे देश के समुद्र विज्ञान विश्वविद्यालय हैं। यही स्थिति विमान उत्पादन में है। इलेक्ट्रॉनिक्स व दूरसंचार में भी हमारा शोध व नवोन्मेष में स्थान घट रहा है। इसलिये हमें अपने विश्वविद्यालयांे, प्रौद्योगिकी संस्थानों व प्रबन्धन संस्थानों को इतना सक्षम बनाना होगा कि वे देश को विकसित देशों की अग्रपंक्ति में स्थापित कर सकें।
वर्तमान स्थिति में परिवर्तन के लिये देश में शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय में वृद्घि भी आवश्यक है। देश में शिक्षा पर हमारा औसत सार्वजनिक व्यय देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4 प्रतिशत ही रहा है, जबकि, दीर्घकाल से हमारा लक्ष्य 6 प्रतिशत का रहा है। देश की आधी जनसंख्या 25 वर्ष से अल्प आयु की है। ऐसे में शिक्षा पाने की आयु वर्ग की हमारी संख्या विश्व मेंे सवार्ेच्च होने पर भी सकल घरेलू उत्पाद (जी़डी़पी़) के अनुपात में हमारा शिक्षा पर व्यय विश्व के शताधिक देशों से न्यून है। विश्व के 125 देशों का व्यय हमसे अधिक व कुछ की उनके जी़डी़पी. के 9 प्रतिशत तक या यत्किंचित अधिक भी है।
उच्च शिक्षा में हमारा औसत सार्वजनिक व्यय देश के सकल घरेलू उत्पाद के 0़7 से भी कम रहा है जबकि, विश्व के अधिकांश औद्योगिक देश युवा जनसंख्या का काफी न्यून अनुपात होने पर भी उच्च शिक्षा पर 2़5 प्रतिशत से अधिक व्यय करते हैं।
देश में विद्यालय स्तर पर शासकीय विद्यालयों में व उच्च शिक्षा के स्तर पर गैर सरकारी संस्थाओं में बड़ी संख्या मंे स्थान रिक्त हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों का शुल्क भुगतान में असमर्थ के कारण देशभर में लगभग 40 प्रतिशत स्थान रिक्त हैं। सीटों के रिक्त होते हुये भी हमारा उच्च शिक्षा के लिए पात्रता रखने वाले आयु समूह में उच्च शिक्षा मंे नामाकंन अनुपात आज भी मात्र 18.8 प्रतिशत है। दूसरी ओर चीन में उच्च शिक्षा की आयु वाले वर्ग का नामांकन अनुपात अपेक्षाकृत उच्च व 35 प्रतिशत है, ब्राजील में 39 प्रतिशत, कनाड़ा में 62 प्रतिशत, इंग्लैंड में 57 प्रतिशत, अर्जेंटीना में 68 प्रतिशत, रूस में 77 प्रतिशत व अमरीका में 83 प्रतिशत है। सीटों की रिक्तता होते हुये भी शुल्क भुगतान सामर्थ्य के अभाव में न्यून नामांकन स्थिति में कई देशों में व्यवहृत, गैर सरकारी व गैर अनुदानित संस्थानों में प्रवेश लेने वाले प्रतिभासम्पन्न छात्रों के शुल्क पुनर्भरण जैसी पद्घतियों पर भी आने वाले समय मंे भारत में भी विचार करना समीचीन हो सकता है।
किसी भी देश व समाज का तकनीकी, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विकास, वहां की शिक्षा के समानुपात में ही होता है – न उससे कम व न ही उससे अधिक। इस हेतु भी केवल विषय ज्ञान सम्प्रेषण ही पर्याप्त नहीं, वांछित मानवीय पारिवारिक, सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन मूल्यों, दायित्व-बोध नैतिकता एवं राष्ट्र गौरव के प्रति संवेदना का विकास भी परम आवश्यक है। सामयिक ध्येय पूर्ति के मानकों पर भी आज शिक्षा के माध्यम से बल देना आवश्यक है। शिक्षा एक ओर भारत को विकसित देशों की अग्रपंक्ति में स्थापित करने का साधन है, वहीं वह मानवता को शाश्वत जीवन मूल्यों से अनुप्राणित कर, एक समरस व एकात्म समाज निर्माण की दिशा में अग्रसर करने का प्रभावी माध्यम है। -डॉ़ भगवती प्रकाश शर्मा

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