सरकार बदली, तस्वीर बदली
|
प्राकृतिक आपदा पर किसी का बस नहीं होता। ठीक बात। लेकिन उस पर प्रतिक्रिया कैसी होती है उससे सोच जरूर झलकती है। त्रासदी केदारनाथ की रही हो या नेपाल की, दोनों दुर्भाग्यपूर्ण थीं। लेकिन जहां केदारनाथ आपदा के वक्त प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने लचर रवैया अपनाया था। पर आपदा के वक्त क्या व्यवहार और कार्य होना चाहिए। यह नेपाल त्रासदी के वक्त भारत की वर्तमान केन्द्र सरकार ने दर्शा दिया। प्रस्तुत है दो आपदाओं के वक्त दो एकदम विपरीत प्रतिक्रियाओं की बानगी दर्शाता एक आलेख।
स्वामी विनय चैतन्य
नेपाल, बिहार, उत्तर प्रदेश में भूकंप आया तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 10 मिनट बाद ही फोन पर थे। बिहार, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों नीतीश कुमार और अखिलेश यादव तथा नेपाल के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के साथ तुरंत बात हुई। मात्र 1 घंटे बाद गाजियाबाद के हिंडन हवाई अड्डे पर जहाज में राहत सामग्री भरी जा रही थी और 4 घंटे बाद राहत की 4 टीमों के साथ चल-चिकित्सालय, 20 टन दवाएं तथा डॉक्टरों को लेकर जहाज उड़ चुका था। ठीक 6 घंटे बाद उन्होंने काठमांडू में बचाव कार्य शुरू कर दिया। भारी पत्थरों को हटाकर मलबे में फंसे लोगों को निकालने के लिए उपकरण, बिजली की आपूर्ति को बहाल करने में मदद करने के लिए तकनीकी व्यवस्थाएं, पानी, भोजन, टेंट, कंबल, मोबाइल, चिकित्सा सामग्री लेकर भारतीय अपने सहोदरों के साथ पीड़ा की इस घड़ी में खड़े हो गए।
नेपाल में केवल एक मात्र हवाई अड्डा है। परिणामत: वहां राहत सामग्री ला रहे विमानों के कारण भीड़ हो जाती है। अनेक विमान दिल्ली लौटने पर विवश हो गए। अत: भारत ने सड़क मार्ग से भी राहत सामग्री भेजनी शुरू कर दी। भारत के आधिकारिक प्रवक्ता के अनुसार हम नेपाल के प्रत्येक परिवार के एक-एक सदस्य के साथ विपत्ति में खड़े हैं। वहां सब कुछ कर रहे हैं जो आवश्यक है। दूर-दराज के दुर्गम पर्वतों, घाटियों में बसे गांवों की जानकारी के लिये नेपाल ने भारत से कहा है और भारत के सैन्य हैलीकॉप्टर टोही उड़ानें भर रहे हैं। जिस पर राहत कार्य करने की जगह चीन आपत्ति कर रहा है कि भारतीय हैलीकॉप्टर उसकी सीमा के निकट तक आ रहे हैं।
यहां यह बताना भी आवश्यक है कि पाकिस्तान ने जो भोजन सामग्री भेजी उसमें गोमांस मसाले के पैकेट थे। भारत में रहकर पाकिस्तान की वकालत करने वाले कुलदीप नैय्यर जैसे लोगों की नजर में ये सामान्य मानवीय चूक है। यहां एक तुलना समीचीन होगी़.़.. कल्पना कीजिये पाकिस्तान के भूकम्प के समय भारत से सुअर के मांस के पैकेट जाते तो तब भी क्या ये उन लोगों की नजर में सामान्य चूक मानी जाती?
विदेश सेवाओं में प्रोटोकाल के नियम अनिवार्य और लिखित होते हैं और उनका उल्लंघन करना शिष्टाचार के विपरीत माना जाता है। किसको किस स्तर का अधिकारी कब मिलेगा? कौन किसे लेने आएगा? किसको किससे मिलना है? दो देशों के प्रधानमंत्री कितने कदम आपस में बढ़कर हाथ मिलाएंगे सब कुछ तय होता है। तत्कालीन वरिष्ठतम केन्द्रीय अधिकारियों के अनुसार दून स्कूल के पायलेट से नये-नये प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने सार्क की बैठक के समय नेपाल के महाराज को जलपान के लिये निमंत्रण दिया। नेपाल के प्रोटोकाल अधिकारी ने आधिकारिक सूचना दी कि आपके देश के महामहिम राष्ट्रपति ही महाराज को निमंत्रित करने के अधिकारी हैं, अत: महाराज आने में असमर्थ हैं। राजीव गांधी उस समय तो खून का घूंट पीकर रह गये मगर उन्होंने इस घटना की गांठ बांध ली।
नेपाल की 1761 किलोमीटर की सीमा भारत से लगती है। नेपाल जाने के लिए भारतीयों को पारिपत्र-वीजा नहीं चाहिए होता। इसी तरह नेपाली नागरिक भी भारत आने के लिए किसी औपचारिकता का पालन नहीं करते हैं। फिर भी भारत आने के मागोंर् के लिए भारत-नेपाल की संधि थी जिसका नवीनीकरण होना था। नेपाल के अनेक औपचारिक अनुरोधों की राजीव गांधी सरकार ने जानबूझ कर अवहेलना की और संधि समाप्त होने के दिन भारत-नेपाल सीमा बंद कर दी गयी। नेपाल का स्थानीय समाज कम सम्पन्न था और अपनी दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं सीमा से लगे भारतीय कस्बों से खरीदता था। सीमाएं बंद होते ही नेपाल में हाहाकार मच गया। मिटटी का तेल, नमक, दाल-चावल जैसी चीजों के भाव आसमान छूने लगे। पेट्रोल के दाम चार गुना हो गए। टैक्सी, बसों का चलना बंद हो गया। पूरा नेपाल स्तब्ध होकर ठहर सा गया।
ये कोई सुनी सुनाई बात नहीं है। उसी समय भारत में प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी की किताब सेटेनिक वर्सेस पर कांग्रेस की केंद्रीय सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। किसी ने बताया कि वह पुस्तक नेपाल में उपलब्ध है। 'सेटेनिक वर्सेस' की तलाश में हम दो लोग अपने नगर से निकटतम नेपाली कस्बे महेंद्रनगर जाने के लिए निकले। महेन्द्रनगर के पास के अंतिम भारतीय नगर टनकपुर पहुंचकर पता चला कि भारत-नेपाल सीमा 2 दिन से बंद है। 3 दिन तक हम लोग दोनों तरफ के फंसे हुए लोगों को परेशान देखते रहे। सीमा खुलने के बाद हम महेन्द्रनगर पहुंचे। लगभग हर नेपाली व्यक्ति भारत को कोस रहा था। राजीव गांधी और उनके अशिष्ट, उद्दंड सलाहकारों ने अपनी मन की कर ली। 5 दिन तक नेपाली भाइयों को खून के आंसू रुलाये गए।
अंततोगत्वा संधि का नवीनीकरण हुआ। सीमायें खोली गयीं मगर दिल खट्टे हो गए। नेपाल में भारत विरोधी समूह प्रचंड हो गया। इसी दौरान चीन की पैठ नेपाल में बढ़ने लगी। हमारा सहज सखा देश हमारी ओर पीठ करके और शत्रु देश की ओर मुंह करके खड़ा हो गया। आज नेपाल में अपने बंधुओं की सेवा को परिवार के एक सदस्य की विपत्ति में हमारे साथ खड़े होने के अतिरिक्त किसी तरह से नहीं देखा-समझा जा सकता। हम बस इस समय नेपालियों की आंखों में भर आये आंसुओं को पोछने का ही जतन कर रहे हैं।
केदारनाथ आपदा
जून-2013 के दूसरे सप्ताह के शुरू में उत्तराखंड के पहाड़ों पर मूसलाधार बारिश हुई। बाढ़ की विभीषिका ने 2004 में आई सुनामी की याद दिला दी। मुख्य विध्वंस 16 जून, 2013 को हुआ। जिसके बाद से उत्तराखंड ने संभवत: देश की सबसे बड़ी विनाशकारी बाढ़ और भूस्खलन का प्रकोप झेला। हालांकि देश के कुछ अन्य भागों जैसे हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश ने भी विभीषिका का अनुभव किया। मगर हताहतों की संख्या का 95 प्रतिशत से अधिक हिस्सा उत्तराखण्ड में रहा। केदारनाथ के लिए जून सर्वाधिक तीर्थयात्रियों के आने का समय होता है। अचानक आए बाढ़ के पानी से यात्रियों से पटे पड़े केदारनाथ की अधिकतर धर्मशालाएं, होटल बहाकर ले गया। यात्रा पथ की सारी चट्टियां जहां हजारों यात्री रुके हुए थे बह गयीं।
अकल्पित विभीषिका ने केदारनाथ घाटी के सैकड़ों गांव समाप्त कर दिए। मगर 16 जुलाई, 2013 की स्थिति के अनुसार उत्तराखंड सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों में अधिक से अधिक 5,700 लोगों को संभावित मृतक माना गया। यहां पुलों और सड़कों के विनाश के कारण चारधाम तीर्थ स्थलों की यात्रा पर आये और जगह-जगह फंस गए 1,00,000 तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की गणना नहीं की गयी। तत्कालीन मनमोहन सरकार को भारतीय वायु सेना, भारतीय सेना और अर्द्धसैनिक बलों के सैनिकों को बाढ़ से तबाह क्षेत्र में बचाव कार्य के लिए भेजना पड़ा, जिन्होंने प्रदेश की निकम्मी कांग्रेस सरकार की जिम्मेदारी को पूरा किया और जगह-जगह 1,10,000 से अधिक फंसे लोगों को बचाकर निकाला।
कांग्रेस की उत्तराखंड सरकार ही अद्भुत परिश्रम नहीं कर रही थी, अपितु त्रासदी के एक हफ्ते बाद जी हां, आपने सही पढ़ा, एक हफ्ते बाद दिल्ली में राहत सामग्री से भरे 4 ट्रक सोनिया गांधी और राहुल गांधी द्वारा औपचारिक रूप से झंडी दिखा के विदा किये जाने के लिए दिल्ली में खड़े थे। सोनिया का समय नहीं मिल पा रहा था। उनका समय मिला तो युवराज का नहीं मिला। तीसरे दिन दोनों मिले तब जाकर दोनों ने कांग्रेस का झंडा दिखाकर ट्रकों को विदा किया। ट्रक दिल्ली से चले लेकिन देहरादून नहीं पहुंचे। इस पर किसी का ध्यान ही नहीं था, चूंकि लक्ष्य तो मीडिया के सामने फोटो खिंचवाकर तालियां पिटवाना था।
जब राहत सामग्री नहीं पहुंची तो टी़वी़ चैनलों पर सवालों की बौछार होने लगी? दिल्ली में कांग्रेस के प्रवक्ता बोले हमको नहीं पता अच्छा रुको, ढुंढवाते हैं ़.़. ढूंढ मची। पता चला हरिद्वार से पहले रास्ते में ही 3 दिन से चारों ट्रक सड़क किनारे कहीं खड़े हैं। क्या हुआ भैया? क्यों खड़े हो? जी बाबू जी.़ डीजल खत्म हो गया ़.़.़. मीडिया ने भद्द पीटी, बड़ी किरकिरी हुई। उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ने किसी तरह डीजल की व्यवस्था की तो राहत सामग्री देहरादून पहुंची। आपदा केदारनाथ में आयी थी। राहत सामग्री वहां तक पहुंचाने के लिए रास्ते न थे। एयर फोर्स के हैलीकॉप्टर लोगों को निकालने में लगे थे। देशभर से आकर राहत सामग्री देहरादून में ढेर हो रही थी। पीडि़त ऊपर फंसे थे ़.़.़.बीच-बीच में कांग्रेस के मंत्री हैलीकॉप्टर से राहत सामग्री राहत-शिविर में ही उतरवाकर हैलीकॉप्टर लेकर चले जाते थे। आखिर अपने क्षेत्र में शक्ल भी तो दिखानी जरूरी होती है। अंधेर नगरी का प्रहसऩ.़.़.़.़.चालू था …
टिप्पणियाँ