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कई बार सुनने में आया है कि भारत के हजारों छात्र चीन में मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ रहे हैं। भारत के बाजार चीनी सामान से पटे पड़े हैं। भारत के व्यापारी अब चीन में बनी चीजें वहां से खरीदकर भारत के बाजारों में बेच रहे हैं और मुनाफा कमा रहे हैं। चीन में बनी सुई से लेकर भारी-भरकम कल-पुर्जे तक भारत में धड़ल्ले से बिक रहे हैं। यहां तक कि ओढ़ने-बिछाने की चादरें चीन से बनकर आ रही हैं। यह तो है कहानी का एक पहलू; पर दूसरा पहलू क्या है? क्या भारत के सामान की भी चीन के बाजारों तक ऐसी ही पहंुच है? क्या चीन की आर्थिक नीतियां इतनी खुली हैं कि भारत आर्थिक रूप से दमदार चीन के साथ कारोबारी रिश्ते बढ़ा पाया है? चीन में केन्द्र सरकार तो मजबूत है ही, लेकिन प्रांतों की सरकारों की अपनी उप-नीतियां हैं और कारोबार में उनका बढ़-चढ़कर दखल रहता है। क्या हमारी उन तक पहंुच है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में चीन के अपने पहले राजकीय दौरे पर जाने वाले हैं; ऐसे में भारत-चीन वार्ता के एजेंडे में प्रमुख रूप से आर्थिक लेन-देन, ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन के साथ ही एशिया में दोनों देशों के मिलकर आगे बढ़ने की राह के खाके पर सबका ध्यान रहने वाला है। चीन का मीडिया तो मोदी की इस यात्रा पर पिछले काफी समय से विशेष सामग्री प्रकाशित करता आ ही रहा है, भारत-चीन संबंधों के जानकार भी बीजिंग में मोदी-जिनपिंग बातचीत पर खास ध्यान लगाए हुए हैं।
मोदी की चीन यात्रा जिन संदभार्ें और जिस समय पर होने जा रही है, वे अपने आप में महत्वपूर्ण हैं। दोनों देशों के बीच रिश्तों में एक लंबे समय से चुभन का एहसास जगाता आ रहा सीमा विवाद सुलझा नहीं है और इसकी पेचीदगियां देखते हुए यह हाल-फिलहाल में सुलझ जाएगा, ऐसा भी नहीं लगता। लेकिन दोनों देशों के शीर्ष नेताओं द्वारा इसके बीच में से रास्ता निकालकर दूसरे क्षेत्रों में आगे बढ़ने का संकल्प जताना भी कम महत्वपूर्ण बात नहीं है। सितम्बर, 2014 में भारत आए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और मोदी ने साबरमती के किनारे जो हाव-भाव दर्शाए थे, फिर नई दिल्ली के हैदराबाद हाउस में आगे बढ़ने की राह का जो खाका सामने लाया गया था, उससे उम्मीदें जगी थीं। फिर फरवरी, 2015 में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की बीजिंग यात्रा के दौरान वे उम्मीदें ठोस आकार लेती दिखाई दीं। उस वक्त मोदी के चीन दौरे को लेकर की गई तैयारी में भारत के प्रधानमंत्री की चीन के साथ आर्थिक संबंधों और आगे ले जाने की प्रतिबद्धता झलकी थी।
भारत को एशिया की ही नहीं, दुनिया की आर्थिक ताकत बनाने का संकल्प लेकर पिछले करीब एक साल से मोदी आर्थिक मोर्चे को कसने में जुटे हैं। 'मेक इन इंडिया' और विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने वाली अन्य योजनाओं की घोषणा के बाद उन पर तेजी से अमल करने की तैयारी के साथ एशिया सहित दुनिया के तमाम बड़े देशों की यात्रा करके प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया का ध्यान भारत की ओर खींचने में कामयाबी हासिल की है। देश को एक मजबूत स्थिति में लाने के बाद अब मोदी जिनपिंग से बात करें तो अर्थ, वित्त और निवेश में एक बराबरी के साझीदार बनने की कोशिश करना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। एशिया की आर्थिक ताकत की कंुजी अब सिर्फ बीजिंग के पास नहीं रहनी चाहिए, भारत की उसमें बराबरी की भूमिका रहनी ही चाहिए। दुनिया के अनेक देश भारत की वर्तमान सरकार द्वारा पेश की गई भविष्य की आर्थिक रूपरेखा से सिर्फ प्रभावित ही नहीं हुए हैं बल्कि भारत में निवेश के लिए आगे भी आए हैं। चीन इस स्थिति को अनदेखा नहीं कर सकता। सीमा विवाद सुलझाने की अलग कवायद चल ही रही है, पर बाकी मोचार्ें पर आगे बढ़ना समय की मांग है और यह देश को ताकत देने के जरूरी भी है।
पिछले करीब डेढ़ दशक से व्यापार और निवेश की राह पर आगे बढ़ने की दृष्टि से मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद से ही चीन की तरफ खास ध्यान देना शुरू कर दिया था। उसी का नतीजा था कि पहले सितम्बर, 2014 में जिनपिंग भारत आए और फिर फरवरी 2015 में सुषमा स्वराज बीजिंग गईं। यह अलग बात है कि भारत की यह शिकायत बनी रही है कि भारत के संदर्भ में चीन की आर्थिक नीतियों का पलड़ा चीन के पाले की तरफ झुका रहा है। चीन वर्ल्ड टे्रड ऑर्गेनाइजेशन के कायदों को लागू नहीं करता। भारत इसको लेकर उस संगठन में मुखर भी रहा है। भारत ने यूं तो दक्षिण एशियाई देशों में अपनी हिस्सेदारी मजबूत रखते हुए भी चीन को सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी बनने दिया था जबकि द्विपक्षीय व्यापार घाटा बढ़ता गया था। अभी 2 मई को ही मोदी की चीन यात्रा से ठीक पहले, भारत ने चीन के साथ सीमा व्यापार के दिशा-निर्देशों को थोड़ा सुगम बनाया है ताकि नाथूला, गंुजी और नामगया शिपकिला में कारोबार और आसान हो।
भारत की मुख्य चिंता है चीन के बाजारों तक भारत के माल की पहंुच कैसे बने। हमें यह समझना होगा कि इसका रास्ता चीन की प्रांतीय सरकारों से होकर जाता है। अभी तक भारत उस रास्ते पर ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया है। नतीजा यह हुआ है कि चीन के प्रांतों के व्यापारी भारत के बाजारों में तो अपना सामान बेच रहे हैं, लेकिन भारत के व्यापारी तैयारी और जानकारी के अभाव में ऐसा नहीं कर पा रहे हैं।
ऊर्जा के क्षेत्र में असीम संभावनाएं
मोदी की इस यात्रा में ऊर्जा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच तालमेल बढ़ाने पर भी बात हो सकती है। इससे ही जुड़ा है जलवायु परिवर्तन का मुद्दा। विदेश नीति के एक हिस्से के नाते आज ऊर्जा क्षेत्र तेजी से सहयोग का एक पहलू बनता जा रहा है। मोदी मौसमी परिवर्तन और बढ़ते वैश्विक ताप पर कई बार अपनी सरकार की ओर से चिंता व्यक्त कर चुके हैं और ऊर्जा के इस्तेमाल के साथ ही जलवायु परिवर्तन से बचने के उपायों की चर्चा कर चुके हैं। मोदी-जिनपिंग वार्ता में यह पक्ष विशेष रूप से उभरेगा, ऐसा विशेषज्ञों का कहना है। इसमें संदेह नहीं है कि आने वाले समय में दोनों देशों के बीच विदेशी स्रोतों को अपने पाले में करने को लेकर उतनी रस्साकशी नहीं होगी, लेकिन दोनों के बीच विदेशों में व्यापारिक परियोजनाओं में सहयोग के अवसर ज्यादा आने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। म्यांमार, सीरिया और सूडान में दोनों मिलकर काम कर ही चुके हैं। भारत, चीन और रूस ने साझा दस्तावेज पर दस्तखत करके रेखांकित भी किया है कि तेल और प्राकृतिक गैस निकालना आने वाले वक्त में संयुक्त ऑपरेशन के अवसरों में से एक हो सकता है।
भारत और चीन के बीच असैन्य परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग पर भी कई बार बात हो चुकी है। अभी यह कहना थोड़ा जल्दी होगी कि चीन के साथ इस क्षेत्र में सहयोग हो सकता है, पर आगे चलकर राह आसान हो सकती है। परमाणु और विनिर्माण के क्षेत्र में चीन पाकिस्तान को जो मदद दे रहा है उसको लेकर भारत ने अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं; उन पर चीन जब अपनी तरफ से शंकाओं का समाधान कर देगा तब दोनों देश सहयोग की संभावनाओं पर चर्चा कर सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत और चीन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी चिंताएं जता चुके हैं और अपनी तरफ से इस ओर किए जा रहे प्रयासों की भी चर्चा कर चुके हैं। इन दोनों बड़ी आर्थिक ताकतों की बातें गंभीरता से सुनी गई हैं। भारत ने अपनी तरफ से जलवायु परिवर्तन में सुधार के लिए किए जाने वाले उपायों को व्यक्त किया है और इस दिशा में कदम बढ़ाने की बात की है। चीन ने भी एक बड़ी जनसंख्या वाले देश के नाते जलवायु परिवर्तन के आंकड़ों में सुधार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने की अपील की है। दोनों देशों में ग्रीन हाउस उत्सर्जन का स्तर अलग-अलग है, पर चुनौतियां एक सी हैं। दोनों देश वैश्विक ताप पर बने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुख सदस्य हैं, चाहे वह 'बेसिक' समूह हो या 'एलएमडीसी' समूह। भारत और चीन ने अपनी तरफ से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए बुनियादी काम शुरू किया ही है। मोदी सरकार ने जलवायु परिवर्तन के प्रति सजगता को अपनी नीतियों में प्राथमिकता पर रखा है। चीन से वार्ता के एजेंडे में जलवायु परिवर्तन का विषय प्रमुखता से उठ सकता है और इस दिशा में दोनों देश कोई साझी रणनीति बनाकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एशिया के महत्वपूर्ण देशों के नाते औद्योगिक और विकसित देशों की थानेदारी को काफी हद तक लगाम लगा सकते हैं।
मोदी की इस यात्रा में चीन की 'वन बेल्ट वन रोड' की योजना पर भारत की ओर से रणनीतिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने की संभावना है। यह परियोजना 2013 में लागू हुई थी। इसे नया रेशम मार्ग भी बताया जाता है। ये चीन से यूरोप और अफ्रीका की तरफ सड़क और समुद्र के रास्ते बनने वाला व्यापार मार्ग है। भारत की इसको लेकर शंकाएं होनी स्वाभाविक हैं, क्योंकि सागर का रास्ता हिन्द महासागर से गुजरेगा और भारत के दक्षिणी छोर को छूता हुआ जाएगा। रणनीतिक रूप से भारत की इसको लेकर जो चिंताएं हैं उन्हें वह चीन के सामने रखकर सारी स्थिति स्पष्ट करके ही कोई फैसला करे, ऐसा रक्षा और रणनीतिक विशेषज्ञों का कहना है।
मुद्दे कई हैं और दोनों देशों के बीच सहयोग और समन्वय की असीम संभावनाएं हैं तो भी भारत को चीन से निकटता बढ़ाते हुए इतिहास में जो कुछ घटा, उसे ध्यान में रखना होगा। उसे यह ध्यान रखना होगा कि बीजिंग ने सीमा विवाद को सुलगाए रखकर लद्दाख और अरुणाचल में सीमा अतिक्रमण की हरकतें की हैं। ध्यान यह भी रखना होगा कि सितम्बर, 2014 में भारत को 20 अरब अमरीकी डालर देने का वादा करके गए जिनपिंग अभी पिछले महीने ही पाकिस्तान जाकर उसे 46 अरब अमरीकी डालर देने का वादा कर आए हैं। पीओके में चीन की मौजूदगी के ढेरों प्रमाण मौजूद हैं, पाकिस्तान को अत्याधुनिक हथियार और सामरिक मदद देने के साक्ष्य मौजूद हैं। ऐसे में नई दिल्ली को बड़ी सतर्कता के साथ बीजिंग की तरफ कदम बढ़ाना होगा। नई दिल्ली में बैठी मोदी सरकार की विदेश नीति की कसावट को देखते हुए इसमें शक नहीं कि अब चीन के साथ बात होगी तो एक जिम्मेदार और ताकतवर लोकतांत्रिक देश के नाते। मामला 'इस हाथ दे, उस हाथ ले' का होना चाहिए। –आलोक गोस्वामी
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