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नेपाल से लौटकर धीरज त्रिपाठी
जके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।' नेपाल में प्रवेश किया तो अपने घर-गांव में कही जाने वाली यह कहावत अनायास ही जुबान पर आ गई। भैरवां से नारायणगढ़ की घाटियों को पार करते समय काठमांडू के रास्ते पर बहुत गंभीर स्थिति तो नहीं दिखी, लेकिन कई मकानों की दीवारों में आईं दरारें और कुछ गिरे हिस्से यह बताने के लिए पर्याप्त थे कि भूकंप के धक्कों से अपना और अपनी छत के नीचे रहने वालों को बचाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। काठमांडू पहुंचा तो एक क्षण के लिए स्तब्ध सा रह गया। भगवान भोलेनाथ आदिदेव महादेव बाबा विश्वनाथ की काशी 24 घंटे अपनी मस्त जिंदगी के लिए ही जानी जाती है। पर, काशी जैसा ही महत्व रखने वाले काठमांडू और बाबा पशुपतिनाथ के धाम को देखकर ऐसा लगा कि मानो मनुष्य के अपराधों से रूष्ट होकर शिव ने यहां शंकर का रूप धारण कर लिया हो। कई लोगों ने कहा भी कि हमारे पापों की सजा
मिली है।
काठमांडू के गोशाला धर्मशाला चौराहे से थोड़ा आगे बढ़ने पर देखा कि पूरी तरह से धराशाई एक बड़ी इमारत से भारतीय सेना के जवान मलबा हटाने पर जुटे थे। अगल-बगल की कई इमारतों का हाल ऐसा ही। तमाम नामी-गिरामी इमारतें मलबे में तब्दील। राहत व बचावकर्मी बच गए लोगों को जीने के लिए जरूरी सामान मुहैया करातेे हुए, मलबे के नीचे जीवन की तलाश करते हुए और अपने ही सपनों के मकानों के मलबे में दबकर जीवन गंवा चुके लोगों के नश्वर शरीरों की तलाश करते हुए दिखे। कहीं कोई बच्चा किसी महिला का आंचल पकड़कर दूध की जिद कर रहा है, तो कोई यह जानना चाहता है, 'अम्मा! अपने ढर तब तलोगी।' जिन्हें कल तक दिन भर के बाद अपने घरों को लौटने की फिक्र सताती थी वे मैदान में खुले आसमान के नीचे ही जीवन की तलाश करने को मजबूर थे। इन्हें भविष्य से पहले वर्तमान की चिंता थी। देने वाले हाथ राहत दलों की तरफ से मिलने वाली सामग्री लेने को मजबूर थे। कल किसने देखा है, इसलिए आज के जीवन की चिंता में।
ईश्वर का भजन करते हुए, 'हे भगवान! फिर ऐसा ही न करना।' काठमांडू शहर से लगभग 25 किमी पर आपदा प्रभावित खड़कामूड़ गांव में मकान माचिस की डिब्बियों के मानिंद उल्टे पड़ेे दिखे। विज्जू तमांग व दादी रामसखिया अपनी दर्द भरी दास्तान बता ही रही थी कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के उत्तर प्रदेश के महामंत्री अभिजात मिश्र, संस्कृत भारती के श्यामलेश और विशाल तिवारी राहत सामग्र्री के साथ पहुंच गए। मानो इन लोगों को कोई अनमोल निधि मिल गई हो। इन लोगों ने अनेक परिवारों को तिरपाल, कंबल और खाद्य सामाग्री दी तो उनके चेहरे पर ऐसी खुशी दिखी कि मानो किसी नेे उन्हें बहुमंजिला इमारत की चाबी सौंप दी हो।
अपनी बात पर लौटा तो इनके जवाब ने एक क्षण के लिए फिर यह दर्शन आंखों के सामने घूम गया कि जीवन की तलाश कभी समाप्त नहीं होती। इसलिए भूकंप ने भले ही इनसे सबकुछ छीन लिया हो लेकिन यह इसे भगवान भोलेनाथ द्वारा दिए गए पापाों का दंड समझकर सब कुछ भुला देने की कोशिश कर रहे हैं। काठमांडू शहर के कान्ति बाल चिकित्सालय का मंजर तो किसी को बरबस रुला देने वाला दिखा। जिनकी उम्र अभी खेलने-खाने की है, वे जिंदगी व मौत के खेल के बीच फंसे थे। कहने को दुनिया के तमाम देश नेपाल में राहत के लिए आए थे। लेकिन भारतीय सेना के जवानों और हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं ने जो काम किया, वह बेमिसाल है। डॉक्टर के रूप में भी और मददगार के रूप में भी। घर के मुखिया के रूप में भी और दोस्त के रूप में भी।
यह अस्वाभाविक भी नहीं है। आखिर नेपाल को हमने गैर ही कब माना। इसलिए नेपाल की की पीड़ा को हमसे ज्यादा अनुभव भी कौन कर सकता है। गांव का नाम तो याद नहीं है लेकिन पहाड़ी पर बसे एक गांव के पुरुषोत्तम पैकुरेल और उत्तम तिमलसिंना तो अपना सब कुछ गंवा चुके हैं। इतनी ऊंचाई पर राहत सामग्री पहुंचाना भी मुश्किल। अपने झोपड़ी जैसे घरों के मलबों को निहारते हुए जीवन की तलाश करते मिले। शायद कुछ बचा हो। हर सवाल पर सिर्फ यही जवाब, 'पशुपतिनाथ जानें'। मानस की चौपाइयां याद आ गईं, 'उमा कहऊं मैं अनुभव अपना, सच हरिभजन जगत सब सपना।' सच तो यह है कि नेपालवासियों के दु:ख को शब्दों की सीमाओं में बांधना कठिन है। प्रार्थना ही की जा सकती है। पशुपतिनाथ हम लोगों के अपराधों का क्षमा करो। किसी को भी ऐसी सजा न मिले।
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