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यह शीर्षक देखकर ही कई प्रगतिशील तथा उदार कहलाने वाले पत्रकारों की भांैहें चढ़ सकती हैं। वे कह सकते हैं कि संघ वाले हर चीज के लिए कोई न कोई पौराणिक सन्दर्भ ढूंढकर समाज पर थोपना चाहते हैं। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि वैशाख (उत्तर भारत में ज्येष्ठ) कृष्ण द्वितीया को देश के अनेक राज्यों में नारद जयंती के कार्यक्रम उत्साहपूर्वक संपन्न हो रहे हैं। ऐसे कार्यक्रम जहां पत्रकारों को सम्मानित किया जा रहा है तथा किसी वरिष्ठ पत्रकार द्वारा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से मीडिया का प्रबोधन भी हो रहा है।
गतवर्ष 2014 में ही देश के विभिन्न राज्यों में 118 स्थानों पर नारद जयंती के कार्यक्रम संपन्न हुए जिनमें करीब 800 पत्रकारों को सम्मानित किया गया। इन सभी कार्यक्रमों में कुल 12,400 नागरिक सहभागी हुए थे जिनमें से 3,500 पत्रकार थे। इस वर्ष 2015 में 6 मई को नारद जयंती के निमित्त होने वाले कार्यक्रमों में यह संख्या और भी बढ़ने की सम्भावना है।
पत्रकारों को नारद जयंती के निमित्त सम्मानित करने हेतु जब कभी आयोजकों द्वारा संपर्क किया गया और वे कार्यक्रम में आये तब कई स्थानों पर उन्होंने एक बात सामान्यतौर पर कही कि उन्हें 'लिबरल' कहलाने वाले कई सहकारी पत्रकारों के द्वारा इस कार्यक्रम में सम्मिलित न होने के लिए कहा गया, दबाव डाला गया। यह अपने देश का एक वैचित्र्य ही है कि अपने आप को उदार, उदारवादी कहलाने वाले लोग, पत्रकार, विचारक बहुत ही छोटे मन के और असहिष्णु होते हैं। देशविरोधी, अलगाववादी विचारों का समर्थन करने वाले लोगों के मंच पर तो वे खुलकर जाते हैं और उसे अपने उदारवादी होने का परिचायक मानते हैं। परन्तु राष्ट्रीय विचार के लोगों के वैचारिक मंच पर जाकर विचारों के आदान-प्रदान को संकुचित सोच मानकर उसका विरोध करते हैं।
सुप्रसिद्ध सवार्ेदयी विचारवंत स्व़ ठाकुरदास बंग के सुपुत्र और प्रसिद्ध समाजसेवी, मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित डॉ़ अभय बंग को रा़ स्व़ संघ के एक सार्वजनिक कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि के नाते आमंत्रित किया था और वे आये भी थे। तब भी अनेक उदारवादी और समाजवादी कहलाने वाले लोगों ने इस पर आपत्ति जताई थी, उन्हें न जाने की सलाह भी दी गई और जाने पर उनका निषेध भी किया गया। ़इस पर डॉ़ अभय बंग का कहना था कि मैं वहां जाकर भी अपने ही विचार प्रस्तुत करने वाला हूं, तो यह आपत्ति क्यों? सवार्ेदयी विचार का होने के बावजूद संघ के कार्यक्रम में मुझे विचार व्यक्त करने के लिए प्रमुख अतिथि के नाते बुलाया ये उनकी उदारता है। मैं वहां मंच से वही विचार रखूंगा जो मैं हमेशा रखता आया हूं। परन्तु यह समझाने पर भी उनके समाजवादी मित्रों को यह बात रास नहीं आई।
अभी 14 अप्रैल को राष्ट्रीय विचार के साप्ताहिक 'पाञ्चजन्य' और 'ऑर्गनाइजर' के डॉ़ आंबेडकर विशेषांक के लोकार्पण कार्यक्रम में भी एक ऐसे ही अनुभव से साक्षात्कार हुआ। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि के नाते प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तथा डॉ़ आंबेडकर के विचारों के प्रगाढ़ अभ्यासक डॉ़ नरेन्द्र जाधव उपस्थित थे। उन्होंने भी मंच से अपना यही अनुभव बताया। इन उदाहरणों से वैचारिक अस्पृश्यता बरतने वाले कथित उदार, उदारवादी कहलाने वाले विचारकों की क्षुद्रता ध्यान में आती है।
वैसे, नारद जयंती के कार्यक्रमों में धीरे-धीरे बड़ी संख्या में पत्रकार सहभागी हो रहे हैं। जिस किसी राज्य में पहली बार यह कार्यक्रम होता है तब एक उपहास की प्रतिक्रिया कुछ लोगों द्वारा उठाई जाती है किन्तु अब अनेक राज्यों में यह एक प्रतिष्ठित कार्यक्रम बन गया है। देवर्षि नारद आद्य पत्रकार थे यह संघ की खोज हैं ऐसा मिथ्यारोप कुछ लोग कर सकते है परन्तु यह जान कर उन्हें शायद हैरानी होगी कि भारत का प्रथम हिंदी साप्ताहिक उदंत मातंड 30 मई, 1826 से कोलकाता से प्रारंभ हुआ था। 30 मई 1826 को वैशाख कृष्ण द्वितीया, नारद जयंती थी। उसके प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर संपादक ने आनंद व्यक्त किया था कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रकाशित होने जा रही है। यह घटना संघ की स्थापना के करीब एक शतक (99 वर्ष) पहले की है।
मीडिया का कार्य मुख्यत: सूचना संचार की व्यवस्था करना है़ संचार व्यवस्था के माध्यम बदलने से उसके प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, वेब, सोशल मीडिया आदि अनेक प्रकार हुए हैं। प्राचीन काल में सूचना, संवाद, संचार व्यवस्था मुख्यत: मौखिक ही होती थी और मेले, तीर्थयात्रा, यज्ञादि कार्यक्रमों के निमित्त लोग जब इकट्ठे होते थे तो सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। देवर्षि नारद भी सतत् सर्वत्र संचार करते हुए अलग-अलग जगह के वर्तमान एवं भूत की सूचनाएं लोगों तक पहुंचाते थे। वे अच्छे भविष्यवेत्ता भी थे। इसलिए भूत और वर्तमान के साथ-साथ कभी-कभी वे भविष्य की सूचनाओं से भी लोगों को अवगत कराते थे। यह कार्य वे निरपेक्ष भाव से लोकहित में एवं धर्म की स्थापना के लिए ही करते थे। एक आदर्श पत्रकार के नाते उनका तीनांे लोक (देव, मानव, दानव) में समान सहज संचार था। दो परस्पर युद्धरत खेमो में युद्घकाल में भी वे सहजता से विचरण कर सकते थे। इतना उन पर सभी का विश्वास था उनके द्वारा प्राप्त सूचना को कोई भी हलके में नहीं लेता था। सूचना संचार (कम्युनिकेशन) के क्षेत्र में उनके प्रयास अभिनव, तत्पर और परिणामकारक रहते थे।
कुछ पौराणिक हिंदी फिल्मों में जीवन नामक अभिनेता अक्सर नारद की भूमिका करते थे। उन के व्यक्तित्व और प्रस्तुति के कारण नारद जी की विदूषक जैसी छवि भारतीय जनमानस में बनी दिखती है। परन्तु नारद अत्यंत विद्वान, मर्मज्ञ और भक्त थे। उनके द्वारा रचित भक्तिसूत्र प्रसिद्घ है। स्वामी विवेकानंद सहित अनेक मनीषियों ने नारद भक्ति सूत्र पर भाष्य लिखे हैं। नारद द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ भी हैं।
भारत के मानस की एक विशेषता है। भारत का जीवन का विचार या विश्व दृष्टि का आधार आध्यात्मिकता है। स्वामी विवेकनद जी ने कहा है ह्यरस्र्र१्र३४ं'्र३८ ्र२ ३ँी २ङ्म४' ङ्मा कल्ल्रिं.ह्ण भौतिक समृद्घि के साथ-साथ यह आध्यात्मिक या दैवी अधिष्ठान होने के कारण ही समृद्घि के शिखर प्राप्त करने पर भी यहां प्रकृति या पर्यावरण का संतुलन बना रहा। यहां आने वाले हर परकीय समुदाय के साथ भारत के लोगों का व्यवहार सम्मानपूर्ण तथा स्वागत का रहा और भारत ने किसी पर राज्य तृष्णा के लिए कभी आक्रमण नहीं किया।
सुप्रसिद्घ संत रामदास स्वामी का एक कथन प्रसिद्घ है़
'सामर्थ्य आहे चळवळीचे। जो जे करील तयाचे। परंतु तेथे भगवंताचे। अधिष्ठान पाहिजे।।'
सामर्थ्य के साथ एक दैवी अधिष्ठान होना आवश्यक है। तभी वह लोककल्याणकारी होगा। इसलिये प्रत्येक कार्य के लिये एक अधिष्ठात्रा देवता होता है यह भारत की परंपरा हैं। इसीलिये विद्या के उपासक गणेश जी या सरस्वती का आह्वान कर कार्य आरंभ करते हंै। शक्ति के उपासक हनुमान जी या दुर्गा का आह्वान कर अपनी उपासना आरंभ करते हैं। संगीत, नृत्य, नाट्य के कलाकार अपनी कला प्रस्तुति से पहले सरस्वती या नटराज का आह्वान करते हंै। विविध उद्योगकर्मी विश्वकर्मा का आशीर्वाद लेते है। वैद्य शास्त्र से जुड़े लोग धन्वंतरि की उपासना करते हंै। इस दृष्टि से 'उदंत मार्तंड' के संपादक द्वारा कार्य प्रारंभ करते समय देवर्षि नारद का आह्वान करना भारतीय परंपरा के अनुसार स्वाभाविक ही है।
मनुष्य इस सिृष्ट की विशाल संरचना का एक हिस्सा मात्र है। एक ही चेतना की विविध रूपों में अभिव्यक्ति के कारण इस संरचना के सभी घटक सभी में व्याप्त इस चेतना के द्वारा परस्पर जुड़े हैं। सभी के अपने-अपने कार्य हैं, कार्यक्षेत्र हैं, दायित्व हैं, योगदान हैं। अपने-अपने कार्यक्षेत्र में (दायरे में) अपना निश्चित कार्य करते हुए, अन्यों के कार्य में बाधा या अवरोध खड़े न करते हुए इस सम्पूर्ण वैश्विक संरचना को ठीक दिशा में चलाना या चलने देना यह प्रत्येक का कर्त्तव्य है। इन सबके बीच एक संतुलन, सामंजस्य का बने रहना प्रत्येक कार्य के स्वतंत्र, सुचारु चलने के लिए आवश्य् ाक है। प्रत्येक का यह कर्त्तव्य तथा यह संतुलन एवं सामंजस्य बनाये रखने का प्रयास इसको हमारे यहां धर्म कहा गया है और यह अंग्रेजी 'रिलीजन' शब्द से बहुत भिन्न एवं व्यापक है। इस धर्म का प्रत्येक के द्वारा पालन होने से प्रत्येक का कर्त्तव्य भी पूर्ण होगा तथा परस्पर सहयोग, सामंजस्य एवं सौहार्द भी बना रहेगा। इस धर्म का पालन करने हेतु सम्पूर्ण संरचना का आधार एक परम चेतना शक्ति है यह मानना आवश्यक है। प्रत्येक क्षेत्र या कहें विधा के अनुसार इस परम चेतना की द्योतक शक्ति, अधिष्ठात्री देवी या देवता के आधार पर यह परस्पर संतुलन एवं सामंजस्य बना रहता है। इसलिए भारतीय परंपरा में अपना-अपना कार्य प्रारंभ करने से पहले उसकी अधिष्ठात्री दैवी शक्ति का आवाहन, नमन, पूजन करने की परम्परा है।
आज मीडिया जगत में इसकी बहुत आवश्यकता है। एक बार इस विशाल जैविक संरचना से मनुष्य कट जाता है, अलग-थलग हो जाता है तो उसका नैतिक पतन शुरू होता है़ औजार, यंत्र, स्वचालित यंत्र और चिप ऐसी तंत्रज्ञान की प्रगति के साथ साथ मनुष्य की संचार की गति भी बढ़ती गयी। इससे मानव लाभान्वित तो हुआ, परन्तु इसके साथ ही जैसे मनुष्य की गति बढती गयी वैसे मनुष्य प्रकृति से, निसर्ग से, अपने ही मानव समुदाय से, इतना ही नहीं अपने आप से भी, कटता, दूर (अ'्रील्लं३ी) होता चला गया। ़इसके परिणाम स्वरूप मनुष्य का पर्यावरण के साथ ही नहीं, अपितु अपने मानव समुदाय के साथ भी व्यवहार अधिक अहंकारी (अ११ङ्मॅंल्ल३) और अधिक हिंसक (श्ङ्म्र'ील्ल३) बनता चला गया़ और सृष्टि नामक जिस विशाल जैविक संरचना का वह एक जीवंत हिस्सा है उस प्रकृति को ही नहीं अपितु मानव को भी वह महज एक संसाधन मात्र मानने लगा। इस कारण केवल स्पर्द्धा में टिकना या अपना निहित स्वार्थ यही उसके निर्णय की कसौटी बनते गए परिणामस्वरूप उसका नैतिक पतन शुरू हुआ।
अपने सिवाय व्यापक इकाई के साथ स्वयं को जोड़ने की दृष्टि ही नैतिकता का आधार है। भारत में इसी को धर्म (रिलीजन नहीं) कहा गया है। धर्म अपने आप को दूसरों से जोड़ता है। इसीलिए दूसरों के लिए बनाया मकान धर्मशाला कहलाता है और सभी के उपयोग हेतु कुआँ, तालाब, नदी पर घाट आदि बनवाना धर्म कार्य कहलाया़। मीडिया समाज में केवल सूचना पहुँचाने तक सीमित न रहे बल्कि, समाज को योग्य दिशा में विचार करने के लिए प्रेरित करे यह भी मीडिया का कर्त्तव्य (धर्म) बनता है।
मीडिया समाज से बाहर कोई अलग इकाई नहीं है। केवल वही समाज को देना यह उसका कर्त्तव्य नहीं है। समाज के हित में क्या है वह भी मीडिया द्वारा समाज को दिया जाना चाहिए। जो बिकता है वही हम देंगे, जो चलता है वही हम देंगे ऐसी राय रखना ठीक नहीं है।
दो शब्द हैं, श्रेयस और प्रेयस
प्रेयस वह जो प्रिय है। यह आवश्यक नहीं कि जो प्रिय हो हमेशा वह हितकर या लाभकारी भी हो। दूसरी ओर श्रेयस वह है जो हितकर है गुणकारी है, हो सकता है वह प्रिय न भी हो। इसलिए केवल प्रेयस्कर ही कह देना पर्याप्त नहीं है। जो श्रेयस्कर है वह भी देने का प्रयास करना चाहिए। इतना ही नहीं श्रेयस उसे अच्छा यानी प्रेयस लगने लगे ऐसा प्रयास करते हुए समाज की रुचि को भी विकसित करने का प्रयास मीडिया को करना चाहिए। लोकशिक्षा या सतत् प्रबोधन से यह संभव है। समाज को आज प्रिय न भी लगे परन्तु यदि वह हितकर है तो उसे वह नई-नई पद्धति से देने का प्रयास करना चाहिए। इस बारे में अपने प्रचारक जीवन का एक अनुभव मुझे स्मरण है। वड़ोदरा(गुजरात) में एक किशोर स्वयंसेवक के घर माह में एक बार भोजन करने जाने का क्रम था। मैंने देखा कि उस स्वयंसेवक की मां हर समय करेले की सब्जी बनाती थी। मुझे करेले पसंद हैं यह तो है, परन्तु फिर भी हर बार करेला क्यों यह प्रश्न मेरे मन में आता था। बाद में मुझे इस का रहस्य समझ आया। बात यह थी की उस स्वयंसेवक को करेला बिल्कुल पसंद नहीं था। वह करेले की सब्जी कभी खाता ही न था।
परन्तु उसकी मां ने देखा कि जब प्रचारक घर में आते है तब उनका बेटा थाली में जो भी परोसा जाए, सब चुपचाप खा लेता है। इसलिए उस मां ने यह तरकीब ढूंढ निकाली कि जो उसके बेटे के लिए श्रेयस्कर है वह उसे प्रेयस्कर ना होते हुए भी कैसे खिलाया जाये। पुत्र के बारे में आत्मीयता तथा उसका जीवन स्वस्थ और उन्नत हो यही इसके पीछे उसका उद्देश था। बेटा मां के लिए संसाधन या ग्राहक नहीं था। कुछ ऐसी ही भूमिका में मीडिया को समाज को सूचना के माध्यम से श्रेयस की और अग्रसर करना चाहिए। रामायण, महाभारत, उपनिषद् गंगा जैसे टेलीविजन के अनेक धारावाहिकों के द्वारा मीडिया ने यह किया है। पंजाब केसरी के प्रथम संपादक लाला जगतनारायण ने पंजाब के आतंकवाद की भीषण त्रासदी के बीच निर्भयता पूर्वक समाजहित की बात की तो उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी। इसके बावजूद उनके स्थान पर आये उनके सुपुत्र श्री रमेश ने वही भूमिका निडरतापूर्वक रखी। १९७५ में आपातकाल के काले दौर में सरकारी दमन से बिना डरे लोकतंत्र की बहाली हेतु इंडियन एक्सप्रेस के मालिक एवं संपादक श्री रामनाथ गोयनका की भूमिका सब जानते है। ऐसे असंख्य उदाहरण मीडिया जगत में विद्यमान है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से असहमत लोग, विचारक, पत्रकार संघ के विचार का विरोध करते है। उसके लिए वे अपने तर्क भी देते है। यह उनका अधिकार एवं स्वतंत्रता भी है। संघ का सिद्घांत के आधार पर वैचारिक विरोध करने वाले लोग भी कम नहीं हैं। ऐसे लोगों के विरोध के बावजूद, और उनकी इच्छा के विपरीत संघ कार्य की समाज में स्वीकृति और स्वागत लगातार बढ़ ही रहा है। इसलिए उनका उद्वेलित होना भी समझ में आता है। उसके लिए वे और अधिक तथ्यों के और तकोंर् के साथ संघविचार का विरोध अवश्य करें परन्तु तथ्यहीन, निराधार कपोल-कल्पित बातें लिखकर संघ के बारे में भ्रम फैलाने का प्रयास अवांछनीय, भर्त्सनीय है।
समाज से ही हर प्रकार के लोग संघ में आते है। थोड़ा नजदीक आकर ध्यान से देखेंगे तो संघ की आलोचना करने के लिए उन्हें अनेक बातें मिल सकती हैं। परन्तु ऐसा न करते हुए, मनगढ़ंत, तथ्यहीन, निराधार समाचार-'स्टोरी' बनाकर प्रकाशित करने का प्रयास अनैतिक है़ खासकर तब,जब समाचार-स्टोरी में कोई अधिकृत सूत्र नाम भी नहीं है। अन्तस्थ सूत्र, वरिष्ठ कार्यकर्ता, नजदीकी सूत्र ऐसे निर्गुण, निराकार सूत्रों के हवाले मनगढ़ंत समाचार-स्टोरी लिखने से समाज के कुछ वर्ग को कुछ समय के लिए दिग्भ्रमित अवश्य किया जा सकता है। पर इससे उस माध्यम की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े होते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हाल ही में मार्च 2015 में संपन्न अ़खिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में संघ कार्य के बढ़ते व्याप एवं प्रभाव के समाचार के पश्चात ड४३'ङ्मङ्म' नामक साप्ताहिक में संघ को लेकर ऐसी ही मनगढ़ंत, निराधार दो स्टोरी प्रकाशित हुईं। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि स्टोरी में कहीं भी किसी सूत्र का, अधिकृत व्यक्ति का नाम तक नहीं था। अपने कार्यालय में बैठकर ऐसे ेङ्म३्र५ं३ीि समाचार लिखकर समाज का तो कोई हित हुआ ऐसा नहीं लगता है। उनका स्वयं का क्या हित हुआ, वे किसको प्रसन्न करने के लिए ऐसा कर रहे हैं यह वे ही जानें लेकिन इससे उस पत्रिका की और मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न खड़े होते हैं यह बात शायद वे नहीं जानते।
ऐसे समय नारद जी का स्मरण फिर से होता है जो कि व्यापक धर्म स्थापना के लिए ही सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। नारद जयंती का भी यही महत्व है। गड़बडि़यों, खामियों का हँ्र२३'ी ु'ङ्म६ी१ होने के साथ-साथ सूचना के माध्यम से समाज का प्रबोधन, जागरण करते हुए समाज को ठीक दिशा में ले जाना, समाज की विचार प्रक्रिया (ळँङ्म४ॅँ३ स्र१ङ्मूी२२) को सही दिशा देना यह भी मीडिया का कर्त्तव्य है। -मनमोहन वैद्य
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