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दिन 25 अप्रैल, दोपहर के 11 बजकर 41 मिनट का समय था, शनिवार को अवकाश के कारण बहुत से लोग घरों में थे। बच्चे खेल रहे थे। कोई किसी काम में व्यस्त था तो कोई किसी काम में। अचानक सब कुछ बदल गया। पृथ्वी के गर्भ में हलचल हुई और फिर… भरभराकर इमारतें ढहने लगीं। कुछ खुशकिस्मत थे वे बाहर निकल आए और बच गए मगर, जिनकी किस्मत खराब थी व९ इमारतों के मलबे में जमींदोज हो गए। हिमालय के पश्चिमी छोर से लेकर पूर्वी सिरे तक सारा इलाका भूकंप संवेदनशील है उसे चाहे आप सीस्मिक जोन 4 कहें या फिर 5, दोनों में समस्याओं की स्थिति लगभग एक जैसी है। शायद यही कारण है कि हमारे पारंपरिक रूप से घर लकड़ी के होते थे। आज भी नेपाल, भूटान, भारत में कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तर बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, में ऐसे परंपरागत घर मिल जाएंगे जिनकी छत, फर्श यहां तक कि दीवारें लकड़ी या फिर बांस, बेंत पर चूना या फिर चिकनी मिट्टी का लेप लगाकर बनाई गई हंै। लेकिन 19वीं सदी मे खासकर हिमाचल में जहां पत्थरों का उपयोग हुआ नतीजा घातक रहा।
इस विषय पर बातचीत करें तो यह भी पाएंगे कि दार्जिलिंग जैसे शहर में इतना विशाल विधानसभा भवन बनाया गया है जिसे देखकर लगता है 'कितना उचित है ये निर्माण करना' मिट्टी का भरभरापन, सपाट मैदान बड़ी से बड़ी इमारतों को खा जाता है तो पहाड़ी इलाकों में इसका क्या परिणाम होगा। प्रश्न यह उठा है कि कंकरीट के जंगल बनाना कहां की समझदारी है। शहरीकरण तो 'नियोजन या क्रियान्वयन' में है। पश्चिम में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, चीन, नेपाल और भूटान से होते हुए हिमालय पर्वत श्रृंखला पांच देशों से होते हुए करीब 2400 किलोमीटर लंबा है। जिसकी चोटियां पश्चिम की ओर कहीं 400 किलोमीटर तो पूर्व में 150 किलोमीटर तक हैं। इन पर्वत श्रृंखलाआंे में जहां समुद्र तल से 8000 मीटर की ऊंचाई वाली 14 पर्वत चोटियां हैं जिसमंे एवरेस्ट भी शामिल है तो सिंधु, चिनाब गंगा, व्यास, सतलुज, तीस्ता, संकोश, ब्रह्मपुत्र, दिबांग जैसी सालभर पानी से सराबोर रहने वाली नदियां हैं जिन्हें हिमालय के 'ग्लेशियर' अनेक हिमखण्डों से वर्ष भर पानी मिलता है। यही वरदान इस भारतीय प्रायद्वीप के लिए घातक साबित होगा। पाकिस्तान, नेपाल, भारत और भूटान को ही लें तो यहां पानी, बिजली को ही सोना मान लिया गया है। मानों सऊदी अरब की तरह कच्चा तेल निकाल के ले जाओ और उसकी एवज में सोना और अपार धन दे जाओ। विकास की ओर अग्रसर इन देशों में स्थिति अंध अनुसरण वाली है और कोई वैकल्पिक साधनों और संसाधनों पर ध्यान नहीं दे रहा। इस क्षेत्र में (हाइड्रो) परियोजना के मौजूदा 21 बांध हैं जिसमें से 15 तो सिर्फ भारत में हैं, जबकि 19 निर्माणाधीन हैं जिसमें से 16 भारत में ही हैं। अचरच नहीं कि भारत अपनी अर्थव्यवस्था के कारण अभी भी 34 और बांध बनाने के विचार में है, जबकि कुल 46 परियोजनाआंे के लिए विचार हो रहा है। निश्चित ही इन बांध परियोजनाआंे की अपनी अलग व्यवस्था है जैसे पैसा कौन देगा, ऋण का भुगतान कब तक होगा, कितनी भूमि पानी के नीचे चली जाएगी, कितने लोग बेगार हो जाएंगे, कितनी खेतिहर जमीन डूब जाएगी, यहां तक कि उत्तर-पूर्व भारत में तो इस बात पर भी विरोध है कि आखिर कितना जंगल डूब जाएगा जहां खेती करने वाले वनवासियों को परेशानी होगी।
बहरहाल समस्या इतनी ही नहीं है युवा और कमजोर हिमालय पर इतना बोझ लादकर निश्चित रूप से हम प्रलय को न्यौता दे रहे हैं। इसका एक उदाहरण हम 2013 में उत्तराखंड में देख चुके हैं। ऐसा नहीं हिमालय की आदिकाल की झीलें टूटने से प्रलय तो होगी ही, फिर भी हमने सोचा तो इसमें किसका दोष। ये विकासशील अर्थव्यवस्था औद्योगीकरण के लिए अगले 20 वर्षों में 150000 मेगावाट पन बिजली के उत्पादन के सपने देख रहे हैं मगर उसके कारण से उसकी खेतिहर व्यवस्था पर क्या असर होगा नहीं समझ रहा। नेपाल और भूटान को तो इतनी पन बिजली परियोजनाओं की आवश्यकता ही नहीं, आज भी उसकी 65 फीसद जनता को बिजली ही नहीं मिलती। उसकी क ोई बड़ी औद्योगिक परियोजना नहीं है। दोनों देश पन बिजली का भारत को निर्यात करना चाहते हैं जिसकी एवज में तेल मुख्य रूप से आयात किया जाएगा। राष्ट्रों को वास्तव में छोटे किसान के विषय में सोचना होगा, वे अपने रोजगार के लिए खेती करते हैं न कि बाजार में बेचने के लिए। इस कारण हिमालय की समृद्धि जैविक विविधता पर कितना विपरीत असर होगा उसकी परवाह नहीं। संरक्षणकर्त्ताओं का कहना है कि हिमालय पर पेड़-पौधों की करीब दस हजार प्रजातियां हैं जिसमें से 3160 पूर्णत: स्थानीय हैं। भारतीय पर्यावरण मंत्रालय मानता है कि केवल अरुणाचल प्रदेश ही, जो विश्व के 18 जैव विविधता के प्रमुख केन्द्रों में से एक है, लेकिन जलमग्न होने से जैविक व्यवस्था डगमगा जाएगी जो एक-दूसरे की पूरक है। वैसे ही जंगल में शेर के लापता होते ही उसके शिकार की संख्या पर नियंत्रण टूट जाता है।
हमने ये परिस्थिति सरिस्का में देखी है। लगातार हिमालय के पोखरों से गाद और मिट्टी उतर रही है वह अपने रंग दिखलाएगी। सुरंगों को बनाने के लिए जिस पैमाने पर इन पोखरों में विस्फोट के लिए किए जाते हैं उनका असर सबसे पहले स्थानीय लोगों पर पड़ता है। उससे आसपास की जमीन धंसने लगती है, धीरे-धीरे भूस्खलन होते हैं। जायज है जान और माल का नुकसान होता है जो टिहरी में देखा है। ये तो सबसे चौकाने वाला संदर्भ है। हिमांशु ठक्कर के अनुमान के अनुसार भारत के 'ग्रीन हाउस गैस ई मिशन' में से करीब 18.7 बड़ी पनबिजली योजना हैं। बांधों की विश्व योजना के अनुसार भारत में बांध परियोजनाआंे द्वारा विस्थापित 75 फीसद लोगों को अभी तक पुन:स्थापित नहीं किया तो समझ लीजिए कि नेपाल जैसे देश का क्या होगा। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जितना इन बांधों से अपेक्षा की जा रही है क्या वे उतना विकास वास्तव में लेकर आएंगे। जबकि विस्थापन के कारण बहुत दूरगामी परिणाम होते हैं, चाहे वह एक बड़े जन समुदाय के संदर्भ में हो। जैसा कि अभी हो रहा है नेपाल में इसके फलस्वरूप कई ऐसे अवसर आएंगे जो दूसरे राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर दबाव डालेंगे। नेपाल में आपदा आते ही भारतीय मदद पहंुचने में देर नहीं लगी तो गत कई वर्षों से हमारी सरकार और उसके तंत्र में हो रहे विकास का नतीजा है। हमने गुजरात में आये भूकंप और 2004 की सुनामी से सबक लिया है, आगे खतरे को भांपने की जरूरत है। -निधि सिंह
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