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असमय वर्षा से हुई फसल की बर्बादी से त्रस्त हो लगभग एक हजार किसानों ने हाल में आत्महत्या की है। यह तो सिनेमा का ट्रेलर है। आने वाला समय बहुत ही कष्टप्रद होगा। धरती का तापमान बढ़ रहा है। पिछले 100 वर्षों में भारत में तापमान 0.6 डिग्री बढ़ा है। अनुमान है कि इस सदी के अन्त तक इसमें 3.4 डिग्री की वृद्धि होगी जो कि पिछली सदी में हुई वृद्धि का चार गुना है। दुनिया के तमाम देशों द्वारा स्थापित 'इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज' ने अनुमान लगाया है कि बाढ़, चक्रवात तथा सूखे की घटनाओं में भारी वृद्धि होगी। विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार जो भीषण बाढ़ अब तक 100 वर्षों में एक बार आती थी वैसी बाढ़ हर दस वर्षों में आने की संभावना है। पूरे वर्ष में होने वाली वर्षा लगभग पूर्ववत् रहेगी। परन्तु इसका वितरण बढ़ता जाएगा। वर्षा के बाद लम्बा सूखा पड़ सकता है। पिछले वर्ष तापमान में मामूली वृद्धि से हजारों किसान आत्महत्या को मजबूर हुए हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि चार गुना वृद्धि से कितनी तबाही मचेगी!
यह दुष्प्रभाव असिंचित खेती पर ज्यादा पड़ेगा। देश के बड़े इलाके में बाजरा, मक्का तथा रागी की खेती होती है जो कि पूर्णतया वर्षा पर निर्भर रहती है। वर्षा का 'पैटर्न' बदलने से ये फसलें चौपट होंगी। किसानों की मांग होगी कि सिंचाई का विस्तार हो। फलस्वरूप वर्तमान में सिंचित क्षेत्रों की सिचांई की मांग बढ़ेगी। लेकिन पानी की उपलब्धता घटेगी। अनुमान है कि पहाड़ी क्षेत्रों में पड़ने वाली बर्फ की मात्रा कम होगी। गर्मी के मौसम में यह बर्फ ही पिघलकर हमारी नदियों में पानी बनकर बहती है। बर्फ कम गिरने से गर्मी के मौसम में नदियों में पानी की मात्रा कम होगी। लगभग पूरे देश में टूयूबवेल की गहराई बढ़ाई जा रही है। चूंकि भूमिगत जल का अतिदोहन हो रहा है। जितना पानी वर्षा के समय भूमि में समाता है उससे ज्यादा निकाला जा रहा है। भूमिगत जल का पुनर्भरण कम हो रहा है चूंकि बाढ़ पर नियंत्रण करने से पानी फैलता रहा है और भूमि में रिस नहीं रहा है।
सरकार की नीति है कि वर्षा के जल को टिहरी तथा भाखड़ा जैसे बांधों में जमा कर लिया जाए। बढ़ते तापमान के सामने यह रणनीति भी फेल होगी चूंकि इन तालाबों से बड़ी मात्रा में वाष्पीकरण होगा जिससे पानी की उपलब्धता बढ़ेगी। अमरीका के 2 बड़े तालाबों के अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि वाष्पीकरण में नौ प्रतिशत की वृद्धि होगी। यह ठंडे देश की बात है। भारत जैसे गरम देश में वाष्पीकरण से पानी का स्राव ज्यादा होगा। हम हर तरफ से घिरते जा रहे हैं। सिंचाई की मांग बढ़ेगी। बर्फ कम गिरने से गर्मी में पानी कम होगा। बाढ़ नियंत्रण करने से भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं होगा। बढ़े बांधों से वाष्पीकरण होने से पानी की हानि ज्यादा होगी। साथ में तूफान तथा चक्रवात जैसी घटनाएं बढ़ेंगी। जैसा कि हाल में देखा गया है।
इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि यूरोप तथा उत्तरी अमरीका के देशों की कृषि के लिए वैश्विक ताप का प्रभाव सकारात्मक होगा। वर्तमान में यहां ठंड ज्यादा पड़ती है। तापमान में कुछ वृद्धि से इन देशों का मौसम कृषि के अनुकूल हो जाएगा। अत: विकसित देशों का पलड़ा भारी हो जाएगा। वहां उत्पादन बढ़ेगा जबकि हमारे यहां घटेगा। साठ के दशक में हमें अमरीका से खाद्यान्न की भीख मांगनी पड़ी थी। वैसी ही स्थिति पुन: उत्पन्न हो सकती है।
इस उभरते संकट का सामना करना होगा। हरित क्रांति के बाद हमने खाद्यान्नों की अपनी पारम्परिक प्रजातियों को त्यागकर हाई ब्रीड प्रजातियों को अपनाया है। इससे खाद्यान्न उत्पादन तो बढ़ा है, परन्तु ये प्रजातियां पानी के संकट को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं। उत्पादन मूल्य प्राय: बढ़ जाता है। तुलना में हमारी पारम्परिक प्रजातियां मौसम की मार को झेल लेती हैं यद्यपि उत्पादन कम होता है। अपनी खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम खाद्यान्नों की पारंपरिक प्रजातियों को अपनाएं। ये पानी कम मांगती हैं। प्रश्न है कि इनकी खेती से उत्पादन में भारी गिरावट की भरपाई कैसे होगी? उपाय है कि अंगूर, लाल मिर्च, और गन्ने जैसी जल सघन फसलों पर कर लगाकर इनका उत्पादन कम किया जाए अथवा केरल जैसे प्रचुर वर्षा वाले क्षेत्रों में इनकी खेती को सीमित कर दिया जाए। इन उत्पादों का आयात भी किया जा सकता है। इन फसलों का उत्पादन कम करने से पानी की आवश्यकता कम होगी। इस पानी का उपयोग पारंपरिक प्रजातियों से खाद्यान्न का उत्पादन करने के लिए किया जा सकता है। तब हमारी खाद्य सुरक्षा स्थापित हो सकेगी। तूफान, सूखा तथा बाढ़ के समय हमारे किसानों को कुछ उत्पादन मिल जाएगा और वे आत्महत्या को मजबूर नहीं होंगे। हां विलासिता की वस्तुएं बहुत महंगी हो जाएंगी। खाद्यान्न भी कुछ महंगे होंगे चूंकि प्रति हेक्टेयर उपज कम होगी जबकि मांग लगभग पूर्ववत् रहेगी। अपनी खाद्य सुरक्षा और सामरिक क्षमता बनाए रखने के लिए हमें खाद्यान्नों की छोटी मूल्य वृद्धि को स्वीकार करना चाहिए। मध्यम वर्ग को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने के लिए देश की खाद्य सुरक्षा तक को दांव पर लगाना चाहिए।
दूसरा विषय जल संसाधनों का है। मानसून के पानी का भंडारण जरूरी है परंतु बड़े बांधों में भंडारण करना हानिप्रद है चूंकि इनसे वर्षा करण अधिक होता है। उपाय है कि धरती के गर्भ में विशाल तालाब होते हैं जिन्हें एक्वीकर कहा जाता है। वर्षा के जल का भंडारण भूमिगत एक्वीकरों में किया जाए।
वर्षा के पानी को ट्यूब वेलों के माध्यम से इन एक्वीकरों में रखा जा सकता है। नदियों द्वारा पहाड़ से लाए जा रहे पानी को भी 'डाइवर्ट' करके इन ट्यूबवेलों में डाला जा सकता है। एक्वीकर में पड़े पानी का वाष्पीकरण नहीं
होता है।
विशेष यह कि देशभर में बाढ़ के नियंत्रण के लिए नदी के किनारों पर बने सभी तटबंधों को तोड़ देना चाहिए। बाढ़ के पानी को फैलने देना चाहिए जिससे एक्वीकर का पुनर्भरण हो। गांव ऊंचे स्थानों पर तथा मकानों को तट पर बनाना चाहिए जिससे बाढ़ से जान माल का नुकसान न हो। गन्ने जैसी नकद फसलें उगाने तथा बड़े बांध बनाकर पानी के भंडारण करने की घातक नीति को तत्काल त्यागना चाहिए। तूफान आदि से होने वाले भयंकर नुकसान से किसानों को राहत दिलाने के लिए सरकार खजाना खोल दे तो भी देश की खाद्य सुरक्षा तो स्थापित नहीं होगी। – डॉ. भरत झुनझुनवाला
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