देश का नवरत्न मुहाने पर - निवेश के लिए कोष नहीं, कैसे चलेगा एमटीएनएल
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देश का नवरत्न मुहाने पर – निवेश के लिए कोष नहीं, कैसे चलेगा एमटीएनएल

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May 2, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2015 13:59:40

कभी सरकार को सबसे ज्यादा फायदा देने वाला उपक्रम एमटीएनएल आज डूबने के कगार पर है। पिछले पांच छह वर्षों से एमटीएनएनएल लगातार घाटे में जा रहा है। कमाई घटती जा रही है जबकि खर्चे बढ़ते जा रहे हैं। जितनी कंपनी की कमाई है उससे ज्यादा उसका घाटा है, इसके चलते एमटीएनएल का निजीकरण किए जाने की मांग भी उठने लगी है। वहीं बाजार में नई आई प्राइवेट कंपनियां लगातार फायदे में जा रही है। इन तमाम पहलुओं को लेकर हमने एमटीएनएल के सीएमडी (अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक) श्री पीके पुरवार से बातचीत की प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश
 एमटीएनएल के घाटे में जाने के क्या कारण है ?
देखिए किसी भी कंपनी को चलाने के लिए 'इनवेस्टमेंट' की जरूरत होती है। जैसे जैसे तकनीक बढ़ रही है वैसे वैसे 'इन्वेस्टमेंट' भी बढ़ रहे हैं लेकिन एमटीएनएल में ऐसा नहीं हो रहा है। यहां खर्चें बढ़ रहे हैं लेकिन कमाई नहीं बढ़ रही है। ऐसा इलिए हो रहा है क्योंकि पिछले सात वर्षों के दौरान एमटीएनएल की तरफ से कमाई बढ़ाने के लिए कोई बड़ा निवेश नहीं किया गया है। इसलिए हम घाटे में जा रहे हैं।
 निवेश न किए जाने का क्या कारण है?
दरअसल एमटीएनएल के पास निवेश के लिए पैसा ही नहीं है। वर्ष 2010 में एमटीएनएल के पास 5 हजार करोड़ रुपए थे। तब सरकार की तरफ से हमें स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए कहा गया जिसमें शर्त रखी गई कि एमटीएनएल स्पेक्ट्रम की नीलामी में भाग नहीं लेगा। नीलामी में जो प्राइवेट कंपनियां बोली लगाएंगी उसी के हिसाब से हमें रकम देनी होगी। हमें 3 जी और 2जी के स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए लगभग साढ़े 11 हजार करोड़ रुपए चुकाने पड़े। इसके लिए एमटीएनएल को खुद के पास के पांच करोड़ रुपए में से चार हजार करोड़ रुपए खर्च करने पड़े और साढ़े सात हजार करोड़ रुपए बैंक से कर्ज लेना पड़ा। इतने बड़े खर्च से एमटीएनएल की कमर टूट गई और वह लगातार घाटे में जाने लगा।
क्या स्पेक्ट्रम खरीदना जरूरी था और स्पेक्ट्रम खरीदने के बाद घाटा होने का क्या मतलब?
एमटीएनएल एक सरकारी उपक्रम है ऐसे में यदि सरकार की तरफ से कोई आदेश मिलता है तो उसे मानना ही पड़ता है। जहां तक स्पेक्ट्रम खरीदने के बाद घाटा होने के बाद है तो एमटीएनएल ने 6600 करोड़ रुपए 3जी सर्विस के लिए खर्च किए थे जबकि 4500 करोड़ रुपए 4जी के लिए खर्च किए थे। 3जी सर्विस तो एमटीएनएल आज भी दे रहा है। उस स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल भी कर रहा है लेकिन 4जी सर्विस सफल नहीं हो सकी। एमटीएनएल ने वर्ष 2014 में स्पेक्ट्रम सरकार को वापस दे दिया। इसके बाद सरकार ने एमटीएनएल का रुपया तो वापस कर दिया लेकिन उसका ब्याज नहीं दिया। एमटीएनएल बैंक से उस कर्ज का आज तक ब्याज चुका रहा है।
इसका अर्थ यह हुआ कि एमटीएनएल पर स्पेक्ट्रम का खर्च जबरन थोपा गया?
ऐसा मैं कैसे कह सकता हूं लेकिन जिस तरह एमटीएनएल एक सरकार उपक्रम है। ऐसे में यदि ' रिजर्व रेट' पर उसे स्पेक्ट्रम सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाता तो निश्चित तौर पर एमटीएनएल घाटे में नहीं जाता। एमटीएनएल के पास जो पांच हजार करोड़ रुपए की रकम थी उसका इस्तेमाल नए टावर लगाने व अन्य जरूरी कामों के लिए किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और नतीजतन आज हम घाटे में जा रहे हैं।
इसका अर्थ हुआ कि पिछली सरकार की पॉलिसी की वजह से एमटीएनएल घाटे में गया?
देखिए मेरा जो काम है वह मैं कर रहा हूं। एमटीएनएल भी अपनी कार्यशैली के अनुसार ही काम कर रहा है। इसके लिए किसी को दोष देना ठीक नहीं है फिर चाहे पिछली सरकार हो या फिर वर्तमान सरकार।
ल्ल कभी आप सबसे आगे थे लेकिन आज आप पिछड़ गए हैं ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं है कि हम पिछड़ गए हैं। हम सिर्फ मोबाइल सेवा में पीछे हुए हैं। जहां तक 'लैंडलाइन' फोन और 'ब्राडबैंड' की बात तो उसमें हम कल भी सबसे आगे थे और आज भी सबसे आगे हैं। बाजार में इन दोनों क्षेत्रों में हम ' मार्केट लीडर' हैं।
मोबाइल सेवा के क्षेत्र में पिछड़ने का ही क्या कारण है?
देखिए हर जगह काम करने का एक तरीका होता है। जहां तक प्राइवेट कंपनियों में हमसे आगे जाने की बात है तो उन्हें वर्ष 1995-96 में लाइसेंस मिले थे। जबकि एमटीएनएल को वर्ष 2000 में लाइसेंस मिला। इसके बाद भी हम मोबाइल सेवा में 'मार्केट लीडर' रहे 22 प्रतिशत बाजार पर हमार कब्जा रहा लेकिन प्राइवेट कंपनियां अपने टावर बढ़ाती गई। उनके खर्चे कम थे तो कमाई बढ़ती गई लेकिन हमारे खर्चे भी बढ़ते गए। प्राइवेट कंपनियों के मुकाबले हम टावर नहीं लगा पाए इसलिए हम लोग पीछे हो गए।
टावर नहीं लगे तो आप पिछड़ गए इस बात का क्या अर्थ हुआ?
आपको बता दूं एमटीएनएल के दिल्ली और मुंबई के मिलाकर कुल 35 हजार कर्मचारी हैं। जिनकी सालाना तनख्वाह लगभग 2 हजार करोड़ रुपए बैठती है। क्या किसी प्राइवेट कंपनी में ऐसा हो सकता है, नहीं हो सकता। हमारी जितनी कमाई है उसका एक बड़ा हिस्सा तो लोगों की तनख्वाह देने में चला जाता है। बात घूम फिर कर वहीं आ जाती है जब निवेश के लिए पैसा ही नहीं लग पा रहा है तो कमाई कैसे बढ़ेगी। इसलिए हम मोबाइल सेवा के क्षेत्र में दूसरी कंपनियों के मुकाबले पिछड़ रहे हैं। हमारी कमाई लगभग 3 हजार करोड़ रुपए है और घाटा हर वर्ष करीब 5 हजार करोड़ रुपए का हो रहा है। ऐसे में निवेश हो पाना संभव नहीं हो पा रहा है। नया निवेश नहीं हो पा रहा तो कमाई भी नहीं बढ़ पा रही।
यूनियन का कहना है कि हर बार सीएमडी बदल जाते हैं, हमारी बातों पर गौर नहीं किया जाता, तकनीकी निदेशक का पद भी दो वर्षों से रिक्त पड़ा हुआ है। इस बारे में आपका क्या कहना है?
श्रीमान जहां तक सीएमडी की बात है तो वह सरकारी नुमाइंदा होता है। सरकार को जो भी व्यक्ति उपयुक्त लगता है उसे वह जिम्मेदारी सौंपी जाती है। तकनीकी निदेशक , निदेशक एचआर और निदेशक फाइनेंस चारों पदों पर सीधे केंद्र द्वारा नियुक्ति की जाती है। इसलिए इस बारे मैं कुछ नहीं कह सकता कि पद दो वर्षों से क्यों खाली पड़ा हुआ है। जहां तक सीएमडी के बदलने की बात है तो वह भी सरकार के ऊपर भी निर्भर करता है कि किसको कितने दिनों तक जिम्मेदारी दी जाती है। रही बात यूनियन की मुझसे पूर्ववर्ती भी यहां पर सीएमडी रहे हैं। फिलहाल तो ऐसी कोई बात नहीं है यदि किसी की कोई समस्या होती है तो उसका पूरा समाधान किया जाता है।
अब आप सीएमडी हैं तो एमटीएनएल को घाटे से बाहर लाकर फिर से फायदे का उपक्रम बनाने के लिए क्या योजना है?
फिलहाल तो हम 800 2जी व 1080 टावर 3जी के टावर लगाने जा रहे हैं। वर्ष 2015-2016 तक के लिए हमारी यह योजना है। इसके बाद हमारे पास जो भी साधन उपलब्ध होंगे उसके हिसाब से हम काम करेंगे। इसके अलावा एमटीएनएल के पास जो संपत्तियां हैं उन्हें किराए पर देकर भी हम कुछ कमाई बढ़ाने की कोशिश में जुटे हैं। पिछले वर्ष हमने एमटीएनएल की इमारतों को किराए पर देकर लगभग 90 करोड़ रुपए कमाए थे। इस वर्ष इसे और बढ़ाने की कोशिश रहेगी।

'कन्वर्जन बिलिंग कस्टमर रिलेशनशिप मॉड्यूल' भी नहीं रहा कारगर
'कन्वर्जन बिलिंग कस्टमर रिलेशनशिप मॉड्यूल' (सीबी.सीआरएम) व्यवस्था 2005-06 में शुरू की गई थी। यह 500-600 करोड़ की योजना थी। इसके तहत एमटीएनएल के अनेक कनेक्शन का एक ही बिल तैयार कर जमा किया जा सकता था। उदाहरण के लिए जैसे कि यदि एक परिवार में पांच कनेक्शन हैं तो उन सभी का एक ही बिल तैयार होगा। लेकिन तकनीक के साथ-साथ नया सुधार न होने से यह योजना भी असफल रही।
'ट्रम्प' के कूपन नहीं मिलते
'ट्रम्प' कनेक्शन के कूपन की सप्लाई बाजार में बहुत कम है। इस कारण उपभोक्ता मजबूरन नंबर 'पोर्ट'करा लेते हैं। अधिकांश समय 'सर्वर डाउन' होने के कारण कई बार कूपन रिचार्ज तक नहीं हो पाते हैं और यदि होते भी हैं तो दूसरी मोबाइल कंपनियों की तुलना में बहुत अधिक समय लेते हैं। निजी कंपनियों के मुकाबले 'ट्रम्प' के कूपन की सप्लाई भी कम रहती है और 'नेटवर्क' अच्छा नहीं होने से उपभोक्ता परेशान रहते हैं।
-राजेश अवाना, रुद्रा मोबाइल गैलेरी, बदरपुर

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