|
अकबर खान राणा
अगर हमारा अतीत गौरवमयी है तो उस पर गौरवान्वित होना स्वाभाविक है। अतीत से मेरा मकसद हमारे पूर्वजों व उनके द्वारा किए गए कार्यों से है। मैं कहीं दूर उत्तर प्रदेश में एक पंचायत में गया हुआ था। वहां एक व्यक्ति ने मेरे बारे में पूछा। जब उन्हें मेरे क्षेत्र व गांव के बारे में बताया गया तो बरबस ही उस व्यक्ति के मुंह से निकला कि यह तो फलां व्यक्ति का गांव है। वह व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि मेरे दादा जी ही थे, जिनके नाम से मेरे गांव का नाम जाना जाता रहा हैै। 1947 में मेरे दादाजी के हिन्दू राजपूत भाईचारे ने उन्हें पाकिस्तान जाने से रोक लिया। हालांकि जिला जींद में हमारी बिरादरी का हमारा एकमात्र परिवार है, परंतु पुरखों के पाकिस्तान न जाने के फैसले से हम बहुत प्रसन्न हैं तथा बड़े मान-सम्मान के साथ अपना जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं।
किसी देश का अतीत, वर्तमान तथा भविष्य उस देश में रह रहे लोग बनाते हैं। अगर अभी आप अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान का हाल देखें तो क्या सोचते हैं? क्या वहां की आने वाली पुश्तें अपने देश के इतिहास पर गर्व करेंगी? यह बात सर्वविदित है कि वहां पर क्या होता रहता है। एक बात तो तय है कि बनिस्पत औरों के अपने देश व समाज के प्रति हमारा दृष्टिकोण ज्यादा बेहतर है। बहुत ज्यादा मेहनत करने की बजाय अपने आप में बस थोड़े से बदलाव की दरकार है। बस इस देश को दिल से प्यार कीजिए। जब आप अपने भारत देश को दिल से चाहेंगे तो इस सांस्कृतिक विरासत से बाहर कदम नहीं रखेंगे। फिर तो स्वत: ही राष्ट्रहित में अहम लगने वाली बातों पर अमल करना शुरू कर देंगे।
मैंने अपने दादा-परदादा व गांव की बात की थी। अब देश की बात है तो हमें भारत के दादाओं-परदादाओं की भी बात करनी होगी। प्रतिनिधि दादाओं के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, जिन्होंने मर्यादा और वचन की खातिर भरे-पूरे राजपाट को छोड़कर 14 साल का वनवास ग्रहण किया था। योगिराज श्रीकृष्ण, जिन्होंने कुरुक्षेत्र के रण में अपने श्रीमुख से श्री गीता ज्ञान देकर इंसान को जीने का मार्ग दिखाया। महावीर स्वामी, जिन्होंने लोगों को हिंसा, त्याग व तपस्या के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया। ऐसे महापुरुषों के जीवन का अनुसरण करने पर ही हम भारत को सर्वश्रेष्ठ बनाए रख सकते हैं तथा उसी में हम सबकी भलाई निहित है।
आस्था यानी जिसे हम धर्म कहते हैं, यह मामला बहुत ही व्यक्तिगत होना चाहिए। अगर इसकी सार्वजनिकता की कहीं पर आवश्यकता भी पड़ती है। जैसे माना कि पर्वों आदि पर किसी धर्म, मजहब, पंथ के लोगों का इकट्ठा होना आवश्यक भी हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में वहां पर वही बातें होनी चाहिए जो इंसान को इंसान से जोड़ती हों, तोड़ती न हों।
इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि हमारी शिक्षा में संस्कारों को विशेष स्थान दिया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ लोगों का सुशिक्षित होना भी बेहद जरूरी है। अगर हम अपनी पुरातन संस्कृति को दृढ़ता से अपना लें तो सब समस्याएं अपने आप ही हल हो जाएंगी। इन सब बीमारियों की एक ही दवा है और वह है, भारतवर्ष की पुरातन या सनातन संस्कृति। अब हमें समझना होगा कि आखिर यह संस्कृति है क्या? किसी भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों का रहन-सहन, खानपान, पहनावा और यहां तक कि उठने-बैठने, चलने-फिरने का तरीका, जीवन के प्रति उनका दर्शन उस क्षेत्र की संस्कृति कहलाती है। हमारी सुदृढ़, पुरातन, गौरवमयी, पुरखों द्वारा अपनाई व प्रदत्त 'हिन्दू-संस्कृति' है।
इन सब विषयों पर बात करने के उपरांत पाकिस्तान बनने के बाद भारत में रह रहे मुसलमानों की बात करना भी बेहद जरूरी है। भारत देश में सभी को समान रूप से हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के समान अधिकार प्राप्त हैं। फिर क्या कारण रहे कि मुसलमान इतने पिछड़ गए? मुझे लगता है कि मुसलमानों ने अपने आप में एक निष्क्रियता का भाव पैदा कर लिया है। इस देश में जड़ें होने के बावजूद इसे नहीं अपना पाना, पराएपन का एहसास, तटस्थ रवैया अपनाना या एहसाए-ए-कमतरी का शिकार होना। यह न सिर्फ इस देश के साथ, बल्कि उनके खुद के साथ भी एक तरह का अन्याय है। फिर उसी बात पर आना पड़ेगा कि अगर हिन्दू शब्द प्रथम दृष्ट्या एक मजहब भी लगता है, तो इसमें भी कोई शक नहीं कि हम अधिकतम भारतीय मुसलमानों के पूर्वज तो धार्मिक तौर पर भी हिन्दू ही थे। इसलिए हम सब भारतवासी एक ही हैं।
हिन्दू-संस्कृति ऐसी सलाद की प्लेट की भांति है, जिसमें कोई भी सुंदर फल सजाया जा सकता हैै। बशर्ते उसमें किसी प्रकार की कड़वाहट न हो। मैं मुसलमानों से दरख्वास्त करूंगा कि अगर आप अपनी कोई संस्कृति अलग भी मानते हैं तो इस प्लेट में सजा करके तो देखिए। हिन्दू-संस्कृति किसी को नष्ट किए बगैर आत्मसात कर लेती है, बशर्ते आप इसमें आत्मीयता का भाव पैदा करें।
अब अगर हम विचार करें कि हम भारतवासी कौन हैं और कौन थे, तो मेरा स्वयं के उदाहरण के साथ बड़ा स्पष्ट, सही और बेझिझक जवाब है कि हम हिन्दू थे। अट्ठारह पुश्त पहले मेरे पुरखे हिन्दू थे। मेरा गोत्र मुढ़ाड है। हमारे क्षेत्र में राजपूतों में सिर्फ मेरे गोत्र के ही 360 गांव थे, जिनमें से लगभग 330 गांवों ने इस्लाम कबूल कर लिया था। तकरीबन 30 गांव हिन्दू मुढ़ाड राजपूत आज भी भारत में मौजूद हैं, जबकि मुस्लिम लोग पाकिस्तान चले गए थे। इसी तरह मेरी माताश्री चौहान राजपूत तथा मेरी ससुराल वाले पंजाब के जिला रोपड़ के चंदेल हैं। मेरी बहन की शादी उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर की तहसील बुढ़ाना में हुई, जो कि कुशवाहा राजपूत हैं। इस गोत्र के हिन्दू-मुस्लिम लोगों का 24 गांवों का एक पुरातन संगठन है, जो कि उनकी 'चौबीसी' कहलाता है। इस 'चौबीसी' का मुखिया जिले का सबसे बड़ा गांव जौला है। जिसके छोटे बच्चे को भी बाकी के 23 गांवों के लोग आदर भाव के साथ बाबा कहकर पुकारते हैं।
हम लोग बड़े ही आनंद से इस सुहानी फिजा में फलफूल रहे हैं। हम जानते हैं कि हमारे पूर्वज हिन्दू थे। अपने पुरखों की इज्जत करना हमारा परम कर्तव्य बनता है। अंतत: यही बात है कि हम धार्मिक तौर पर हिन्दू थे और सांस्कृतिक तौर पर हिन्दू ही हैं। ल्ल
टिप्पणियाँ