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अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
युवराज वापस आ गए! भक्तजन हों या विरोधी गण, सब हर्षविह्वल हो गए। पिछले दो महीनों से भक्तगण आतंकित थे कि क्या उनकी सवा सौ साल पुरानी, बुढ़ापे से जर्जर पार्टी में केवल खा-पीकर अघाए हुए बूढ़े शेर ही रह जाएंगे? उनके बूते तो अब पार्टी के दिन पलटने वाले नहीं। कभी वे दिन भी थे कि तीन पीढि़यों तक लगातार दादी, दादी के पिताजी और दादी के भी दादा जी का नाम लेते ही वोटों की झड़ी लग जाती थी। अब वंश के नाम को छोड़कर बचा ही क्या था वहां? ऐसे में लगातार पिट कर थका हुआ वंश का आखिरी चिराग भी राज-पाट की उम्मीदें त्यागकर कहीं स्थायी रूप से फरार हो गया तो पीछे छूटे दरबारियों का क्या होगा? शेर की जूठन ही गीदड़ों के लिए पर्याप्त होती है, पर लगातार लहूलुहान होने से तंग आया हुआ शेर स्वयं जंगल छोड़ किसी दूर देश के सर्कस में भर्ती होने के लिए निकल भागता तो उन परजीवियों का क्या होता! पर अब फिर से उम्मीद जग गई है। वे वापस आये हैं, तो स्वास्थ्यलाभ करके ही लौटे होंगे! पता नहीं थाईलैंड के समुद्रतट पर लहरों से खेलकर थकान मिटा रहे थे कि दक्षिणी फ्रांस में भूमध्यसागर के किनारे ऐशगाहों में कायाकल्प करा रहे थे। कहीं भी रहे हों शिराओं में रक्तप्रवाह कुछ तो बढ़ा ही होगा!
उधर विरोधियों के खेमे से भी ठहाके ही सुनायी पड़ रहे थे। देश के राजनीतिक रंगमंच पर बहुत दिनों से कोई कॉमेडी नाटक नहीं हुआ था। उनके हास्यास्पद संवाद भूख और गरीबी से लड़ते हुए दर्शकों को भी गुदगुदा जाते थे। उनके बिना सब कुछ फीका-फीका सा लग रहा था। आ गए हैं तो अब आएगा असली मजा!
पर वे आये तो एकदम बदले हुए से लगे। कुछ दिन पहले एक और सज्जन ने कायाकल्प से मधुमेह कम कर लिया था और रुंधे गले की फुसफुसाती आवाज की डेसीबेल क्षमता बढ़ा ली थी। पर इनके कायाकल्प की तो बात ही कुछ और थी। कल तक वे संसद में बोलने से कतराते थे। समाचार चैनलों के घुटे हुए संपादकों के आगे तो मिमियाते पर मुश्किल से इकट्ठा किये कुछ सौ लोगों को संबोधित करके 'बीसों का सर काट लिया' वाली अनुभूति से गर्वान्वित हो जाते थे। अब उन्हें देख-देखकर सबकी जुबान पर दशकों पुरानी फिल्म 'चौदहवीं का चांद' का सदाजवान गीत मुखर हो रहा था 'बदले बदले मेरे सरकार नजर आते हैं' आगे 'घर की बर्बादी के आसार नजर आते हैं' कहकर गीत का मुखड़ा पूरा करने की हिम्मत या तो केवल 'पंजाब दे पुत्तर' किसी फौजी कप्तान में थी, या किसी पुराने चाटुकारिता चैम्पियन में।
बहुत से लोग चुप ही रहे कि देखें ऊंट किस करवट बैठता है। फिर देखेंगे कि ज्यादा बर्बादी खानदान के हाथों हो चुकी थी या कुलदीपक के हाथों होनी बाकी थी। मुंह बाद में खोलेंगे, पहले देख तो लें दहाड़ना सीखकर घर लौटा युवराज अब क्या करता है। उन्होंने ज्यादा समय बर्बाद नहीं किया। पुराने खिदमतगारों से कहा 'मेरी वह मोटरसाइकिल कहां है जिस पर सवार होकर मैं भट्टा पारसोल के किसानों के समर्थन में मोर्चा खोलने ग्रेटर नोएडा गया था?' उसे निकालो, तेल ग्रीज करके फिर चलाने लायक बनाओ' सारे नौकर चुप! फिर एक हिम्मत करके बोला 'आपने अपने पैसे से खरीदकर कब किसी गाड़ी की सवारी की है? वह मोटरबाइक तो जिसकी थी फोटो सेशन के बाद वापस ले गया था।'
वे बोले 'कोई बात नहीं, किसानों को पता है कि हम उनके सबसे बड़े हितैषी हैं। बुलाने पर वे खुद आ जायेंगे, भट्टा पारसोल को मुलायमियत से छोड़ दो। इस बार हरियाणा के किसानों को बुलाते हैं। उन्हें हम समझाएंगे कि किस तरह से उनकी जमीनें हड़प लेने के लिए केंद्र सरकार तुली हुई है।
खिदमतगार दौड़े गए गुड़गांव तक। किसानों को बताना था कि उनका सबसे बड़ा हितैषी कौन है। पर कुछ ही घंटों में वे वापस लौट आए, बोले 'सर' गुडगांव के किसान कहते हैं जमीन हड़पने के बारे में हमें जो कुछ सीखना था वह तो जीजाजी पहले ही सिखाकर जा चुके हैं। अब क्या सीखना समझना बाकी है?
उन्हें सकपकाते देख वह मुंहजोर बोला 'और सर, जान बक्शी जाए तो अर्ज करूं, ये सूट बूट का जिक्र मत किया करिए आप तो कुरते पायजामे में हैं पर कोयले की खदानें और टू जी स्पेक्ट्रम की लूट हमने सूटबूट वालों के साथ ही मिलकर की थी।'
वे चिंता में पड़ गए। पर जल्दी समाधान सूझ गया. बोले 'अरे, गाडि़यां भेजो किसानों और मजदूरों को लिवा लाने के लिए। सबसे कहो दिल्ली फ्री में घूमने का सुनहरा मौका हाथ से न गंवाएं। आने वालों को जेबखर्च के अलावा सर पर बांधने के लिए एक-एक नयी पगड़ी या साफा भी मिलेगा।'
अब स्वयं पार्टी फण्ड से दुनिया घूम आने वाले को दूसरों को भी फ्री में दिल्ली घुमाने का विचार आया तो आश्चर्य ही क्या?
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