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नकद मदद ही इलाज

by
Apr 25, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Apr 2015 13:20:23

शांता कुमार
भारत सरकार लगभग आधी शताब्दी से न्यूनतम मूल्य निर्धारित करती रही है। किसानों से अन्न खरीदती है और उसे गरीब उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का काम करती है। किसानों द्वारा खेती का उत्पादन बढ़ाने के लिए खाद पर सरकारी छूट देती है। इस सारी व्यवस्था पर लगभग दो लाख करोड़ रुपये खर्च होते हैं।
एक धारणा यह रही है कि इस सारी व्यवस्था से भारत के आम गरीब किसान को लाभप्रद मूल्य मिल रहा है। सारी व्यवस्था किसानों व गरीबों के कल्याण के लिये की जाती है। प्रधानमंत्री द्वारा गठित कृषि एवं कृषकों से सम्बंधित विशेषज्ञ कमेटी ने जब इस विषय की पूरी जांच की तो बहुत निराशा हुई। सचाई यह है कि इस पूरी व्यवस्था से केवल 6 प्रतिशत बड़े किसानों को ही लाभ पहुंचता है। खाद्य निगम देश के 29 प्रदेश ओर 7 केन्द्रशासित प्रदेशों में से केवल 6 प्रदेशों से ही पूरी तरह से अनाज खरीदत है। देश में कुल लगभग 9 करोड़ किसान हैं। उनमें से केवल 54 लाख किसानों का अनाज ही खरीदा जाता है। बहुत से प्रदेशों में किसान अपनी उपज को कम भाव में बिचौलियों को बेचने पर विवश होता है। यह दुर्भाग्य और हैरानी की बात है कि पूरी व्यवस्था पर दो लाख करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी लगभग ढाई लाख किसान आत्म हत्या कर चुके हैं और यह सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है।
विश्व के अधिकतर देशों में किसानों को कृषि से जोड़े रखने के लिए उन्हें सीधे आय सहायता दी जाती है क्योंकि कृषि व्यवसाय न तो लाभप्रद है न आकर्षक है। परन्तु अनाज के उत्पादन के बिना कोई देश जी नहीं सकता। इसलिए अधिकतर देशों में सरकारें किसानों को सीधे नकद आय सहायता देती हैं। अमरीका में कुल 21 लाख किसान है परन्तु किसानों के पास कृषि फार्म बहुत बड़े-बड़े हैं। 2012 में कुल 2565 हजार करोड़ रुपये की सीधे आय सहायता सब किसानों को दी गई। प्रत्येक किसान को 73 लाख रुपये वार्षिक की सहायता भारत के लिये हैरानी की बात है। क्योंकि कृषि प्रधान देश होते हुए भी भारत में किसान को कोई आर्थिक सहायता नहीं दी जाती। चीन में खाद अनुदान के रूप में 17 बिलियन डॉलर दिया जाता था। अब वहां यह पूरा धन सीधे किसानों को नकद सहायता के रूप में दिया जाता है। उत्पादन में कभी चीन भारत से पीछे था आज चीन में प्रति एकड़ उत्पादन भारत से दुगुना हो गया है। खाद अनुदान के लिए सरकार प्रति वर्ष लगभग 70 हजार करोड़ रुपये खर्च करती है। इस अनुदान का अधिक लाभ बड़ी-बड़ी खाद कम्पनियों को मिलता है, वे कई गलत तरीकों से यह धन लेती हंै। यूरिया अधिक सस्ता होने के कारण पड़ोसी देशों को तस्करी में जाता है और यूरिया के आवश्यकता से अधिक उपयोग के कारण भूमि की उर्वरता काफी कम हो रही है। इस खाद अनुदान का किसानों को सीधा लाभ बहुत कम होता है।
इन तथ्यों के प्रकाश में कमेटी ने यह सिफारिश की है कि यह 70 हजार करोड़ रुपए 9 करोड़ किसानों को 'इनपुट सब्सिडी' के रूप में सात हजार रुपये प्रति किसान प्रति हैक्टेयर सीधा उनके खातों में दे दिया जाए। गरीबी और कर्जे के दबाव में सिसक रहे बहुत से किसानों को यह अनुदान एक वरदान सिद्घ होगा। बहुत सी आत्महत्याएं रुक सकती हैं। किसान अपनी इच्छा से आवश्यकतानुसार खाद का उपयोग करेगा और जैविक खेती की ओर भी प्रोत्साहित होगा। केवल 8 प्रदेशों में पूरी तरह से मुख्य अनाज खरीद का कार्य प्रदेश सरकारें करती हैं और वे खरीद के पूरे कार्य को संभालने को भी तैयार हैं। इसलिए कमेटी ने सिफारिश की है कि इन प्रदेशों में किसानों से अनाज खरीदने का पूरा काम प्रदेश की सरकारें करें और खाद्य निगम उन प्रदेशों में अनाज खरीद का काम करें जहां खरीद व्यवस्था न होने की बजह से किसानों को कम मूल्य पर अनाज बेचने को विवश होना पड़ता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे प्रदेशों का किसान अन्न पैदा कर रहा है परन्तु उचित खरीद की व्यवस्था न होने के कारण निराश और हताश है। यदि पंजाब और हरियाणा की तरह इन प्रदेशों में भी अनाज खरीद का काम किया जाए तो भारत में दूसरी हरित क्रान्ति आ सकती है।
भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में विपक्षी दल गरीब किसानों को गुमराह कर रहें हैं। जो किसान धरने व रैलियों में आ रहे हैं, उनमें से अधिकतर को कानून का कुछ पता नहीं, उतनी भूमि भी नहीं। पर गरीबी व कर्ज में दबा किसान निराशा में उनके साथ जा रहा है। यदि सरकार ऊपर की दो सिफारिशों को स्वीकार कर ले और सभी 9 करोड़ किसानों को 7 हजार रुपये वार्षिक अनुदान देना शुरू कर दें और अन्य प्रदेशों में भी उपज खरीद करने का निर्णय करें तो इस आन्दोलन की बहुत हवा निकल जायेगी।
खाद्य व्यवस्था का दूसरा उद्देश्य देश के गरीब लोगों को सस्ता अनाज देना था। इस संबंध में भी सचाई बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। योजना आयोग की मूल्यांकन रपट के अनुसार चालीस से पचास प्रतिशत अनाज गरीबों तक पहुंचता ही नहीं है। इतना ही नहीं पूरी व्यवस्था पर अत्यधिक व्यय भी होता है। योजना आयोग की ही एक मूल्यांकन रपट के अनुसार एक रुपये का अनाज मण्डी से लेकर उपभोक्ता तक पहुंचाने में सरकार तीन रुपये पैंसठ पैसे खर्च करती है। भारत जैसे गरीबों के देश में क्या यह आपराधिक फिजूलखर्ची नहीं है। इसलिए इस संबंध में कमेटी ने सिफारिश की है कि सस्ता अनाज देने से होने वाले लाभ के बराबर की नकद सहायता गरीब उपभोक्ता के खाते में सीधे जमा करा दी जाये। इससे वितरण में होने वाली चोरी पूरी की पूरी रुक जायेगी।
इस सिफारिश के पीछे एक और भी महत्वपूर्ण कारण है। जिन गरीब उपभोक्ताओं को सरकार अनाज देती है उनमें से आधे से अधिक स्वयं किसान हैं और उनके अपने खेत से भी अनाज पैदा होता है। अब उनमें से अधिकतर अपना अनाज न्यूनतम मूल्य-14 रुपये गेहंू, 20 रुपये चावल के भाव सरकार को दे देते हैं और अपने लिए सरकार से 2 रुपये किलो गेहूं और 3 रुपये किलो चावल ले लेते हैं। दूसरे शब्दों में इस व्यवस्था से करोड़ों लोगों को एक नई प्रकार की बेईमानी सिखाई जा रही है। इस पुनर्चक्र (फीू८ू'्रल्लॅ) से पूरी व्यवस्था में एक विरोधाभास भी पैदा हो रहा है। कमेटी को एक प्रदेश में बताया गया कि प्रदेश का कुल उत्पादन साठ लाख टन है परन्तु उस वर्ष कुल अनाज खरीद अस्सी लाख टन हुई। पूरा उत्पादन खरीदा भी नहीं जा सकता है फिर बीस लाख टन अधिक खरीद हो ही नहीं सकती। कुछ प्रदेशों में अधिक बोनस के कारण भी ऐसा होता है।
यदि गरीब उपभोक्ता को सीधे नकद सहायता उसके बैंक खाते में पहुंचाई जाए तो यह विरोधाभास भी रुकेगा और यह बेईमानी भी समाप्त होगी। जो गरीब अपने परिवार के लिए अनाज आप पैदा कर लेता है वह इस धन का प्रयोग परिवार की बाकी आवश्यकताओं के लिए करेगा। दूसरे शब्दों में देश के अति गरीब लोगों की और अधिक सहायता होगी। विश्व के अधिकतर देश गरीबों की सहायता करते हैं परन्तु सब सीधे आय सहायता करते हैं। भारत की तरह की पेचीदा उलझन भरी भ्रष्टाचार बढ़ाने वाली व्यवस्था कहीं पर नहीं है। सहायता मूल्य आधारित (ढ१्रूी २४स्रस्रङ्म१३) नहीं अपितु आय आधारित (्रल्लूङ्मेी २४स्रस्रङ्म१३) वाली होती है।
ब्राजील में गरीबों को सीधे आय सहायता दी जाती है परन्तु उसके साथ एक महत्वपूर्ण शर्त भी लगाई गई है। यह सहायता उन्हीं परिवारों को मिलेगी जिनके बच्चे स्कूल जाते हैं और उनका आवश्यक टीकाकरण किया गया है। आय सहायता के साथ दो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्यक्रम भी पूरे हो जाते हंै इस कार्यक्रम से उस देश की आर्थिक असमानता 17 प्रतिशत कम हुई है। भारत में भी आय सहायता के साथ यह कहा जा सकता है कि 6 मास के बाद यह सहायता उन्हीं को मिलेगी जो ये दो शर्तें पूरी करते हैं। यह एक बहुत बड़ी सचाई है कि भोजन सुरक्षा किसान सुरक्षा के बिना नहीं हो सकती। मुंशी प्रेमचन्द के प्रसिद्घ उपन्यास गोदान में कर्ज में डूबे किसान होरी की कर्ज में मृत्यु हुई थी। आज के देश के किसान होरी को यदि इस संकट से बाहर निकालना है तो कुछ विशेष करना होगा।
भारतीय खाद्य निगम की सारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हंै। गोदामों में करोड़ों रुपयों का अनाज खराब होता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार फटकार लगाई है। इस दृष्टि से कमेटी ने सिफारिश की है कि अनाज के भण्डारण व परिवहन के काम को स्पर्द्धा के आधार पर केन्द्र व राज्यों की एजेन्सियों और निजी क्षेत्रों को दिया जाये। खाद्य निगम अनाज का पूरा व्यापार लगभग 9 से 15 प्रतिशत कमीशन व अन्य करों से करती है जबकि देश का निजी क्षेत्र 2 प्रतिशत से भी कम कमीशन पर व्यापार करता है। सरकार किसान के गेहूं 14 रुपये किलो और चावल 20 रुपये किलो लेती है। सरकार का एक किलो गेहंू पर खर्च 8 रुपये और एक किलो चावल पर 10 रुपये आता है इसलिए सरकार का आर्थिक मूल्य (एूङ्मल्लङ्मे्रू ूङ्म२३) गेहूं 22 रुपये और चावल 30 रुपये हो जाता है। कमेटी ने यह अनुभव किया कि नये खाद्य सुरक्षा कानून में 67 प्रतिशत लोगों को अनाज देने की बात कही गई है जो बहुत अधिक है।
कमेटी ने सिफारिश की है कि इसे 40 प्रतिशत तक कर दिया जाये। खाद्य मंत्री के रूप में मेरा अनुभव यह रहा था कि गरीबी रेखा से ऊपर (अढछ) को दिया जाने वाला अनाज या तो राज्य सरकारें पूरा नहीं ले जाती हैं, या जो ले जाती हैं वह पूरा बंटता नहीं और वह चोरी होता है। 40 प्रतिशत कवरेज में देश के वे सभी गरीब आ जाते हैं जिन्हें खाद्य सुरक्षा की आवश्यकता है। योजना आयोग के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे 26 प्रतिशत लोग हैं फिर 67 प्रतिशत को इस दायरे में लाने की आवश्यकता नहीं है।
नये कानून में जहां 67 प्रतिशत को अनाज देने की बात कही गई है वहीं अनाज की मात्रा सात किलोग्राम प्रतिव्यक्ति से कम करके पांच किलोग्राम प्रतिव्यक्ति कर दी गई है। हमारी कमेटी ने जहां चालीस प्रतिशत की सिफारिश की वहां पांच किलोग्राम की जगह सात किलोग्राम राशन देने की भी सिफारिश की है। उद्देश्य यह है कि जो गरीब हंै उन्हें पूरा दिया जाये और जिन्हें भोजन सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है उन्हें न देकर धन बचाया जाये। देश की आर्थिक स्थिति की सचाई यह है कि कुल आय 11 लाख करोड़ और कुल व्यय 16 लाख करोड़ है। पांच लाख करोड़ रुपये का घाटा है। गांव व गरीब के विकास के लिये सरकार को सब तरफ से बचत करके धन निकालना चाहिये।
हमारी सिफारिशों का सारांश यह है कि हमारे देश के लगभग पचास करोड़ अति गरीब और किसानों को लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये सीधे नकद सहायता के रूप में उनके बैंक खातों में जमा करवाये जाएं। गरीब की मदद करने का यही सही तरीका है। जो जिसको देना है वह सीधा उसे प्रत्यक्ष रूप में पहुंचे। बीच में कोई भी बिचौलिया न रहें। इतनी नकद सहायता करने के बाद इसके लिए सरकार को बजट में कोई अतिरिक्त प्रावधान करने की आवश्यकता नहीं है। जो धन भ्रष्टाचार में व अनावश्यक प्रशासनिक खर्चे में व्यय होता था उसी को समेट कर सीधे किसानों और लाभार्थियों को पहुंचाने की सिफारिश की गई है। इतना ही नहीं गरीबों की इतनी अधिक सहायता करने के बाद भी सरकार को लगभग तीस हजार करोड़ रुपये वार्षिक बचत भी होगी।
इन 50 करोड़ गरीबों व किसानों को सीधे नकद सहायता देने का एक और लाभ भी होगा। विपक्ष आलोचना कर रहा है कि करोड़ों गरीबों के जन धन योजना में बैंक खाते तो खोल दिये पर वे शून्य बैलेंस पर चल रहे हंै। उन में विशेष आर्थिक लेन-देन नहीं हो रहा। कमेटी की इस सिफारिश को लागू करने के बाद प्रति मास 50 करोड़ गरीबों के बैंक खातों में लगभग 12 हजार करोड़ रुपए जमा हुआ करेंगे। जमा होंगे तो निकाले भी जायेंगे। ये सब खाते सक्रिय हो जायेंगे।
कृषि उत्पादन और किसान के हितों की दृष्टि से न्यूनतम मूल्य तय होना चाहिए और किसानों से उपज की खरीद भी होनी चाहिए। आज 23 फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित होता है परन्तु सरकारी खरीद गेहंू ओर चावल की ही होती है। उन दो फसलों की खरीद निश्चितता के कारण उत्पादन बढ़ गया परन्तु तिलहन और दलहन का उत्पादन इतना कम हो गया कि देश को 80 हजार करोड़ रुपयों का आयात करना पड़ता है इसलिए कमेटी ने दालों और तिलहन को प्रोत्साहन देकर खरीदने की सिफारिश की है ताकि देश इसमें भी आत्मनिर्भर हो सके।
खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सरकारी गोदामों में अनाज की निश्चित मात्रा सदा रहनी चाहिए परन्तु आवश्यकता से अधिक नहीं रखा जाना चाहिए। इस समय 'बफर स्टॉक' के मानकों के अनुसार 30 लाख टन भण्डार रहना चाहिए जबकि देश के गोदामों में 70 लाख टन तक अनाज भी रहता है। यह अनाज खराब होता है। कमेटी ने सिफारिश की है कि 'बफर स्टॉक' से अधिक भण्डार होने पर एक निश्चित समय में अनाज का निर्यात किया जाए या देश के बाजार में खुली बिक्री में बेच दिया जाए। अटलजी की सरकार में मैं जब खाद्य मंत्री था तो ऐसे अतिरिक्त अनाज को काम के बदले अनाज (ऋङ्मङ्मि ाङ्म१ ६ङ्म१') कार्यक्रम में दिया गया था। बहुत से पिछडे गांवों की सड़कें बनी थीं। खुले बाजार में अनाज बेचने से बाजार भाव में स्थिरता भी लाई जा सकती है। इस कमेटी की इन सिफारिशों को लागू करने का एक और सुखद परिणाम भी होगा। सिफारिशों के अनुसार 1 एकड़ तक के प्रत्येक किसान को 7 हजार रुपये वार्षिक मिलेगा। प्रत्येक गरीब को लगभग 6 हजार रुपये वार्षिक मिलेगा। जिससे उनकी आय में एक निश्चित बढ़ोत्तरी होगी। इस समय लगभग 8 हजार रुपये वार्षिक आय वाले व्यक्ति को गरीबी की रेखा से नीचे (इढछ) कहा जाता है। कमेटी की सिफारिशंे लागू होने के बाद करोड़ांे गरीब जो किसान भी हैं गरीबी रेखा से ऊपर हो जायेंगे।
(लेखक प्रधानमंत्री द्वारा गठित कृषि एवं कृषकों से सम्बंधित विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष एवं लोक सभा सांसद हैं।)

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