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यह वह फाइलें हैं जिनसे धूल हटते ही रत्न सी आभा रखने वाले कुछ नामों की चमक धुंधलाने लगी है। जवाहरलाल नेहरू की विरासत के चमकीले नक्षत्र पर 'नेताजी' की 'जासूसी' का ग्रहण है। सुभाष चंद्र बोस की जासूसी एक ऐसा मुद्दा है जिसके बाद नेहरू-गांधी परिवार के पैरोकार बदहवास हैं। प्रवक्ता गायब हैं। परिवार पर्दे के पीछे जा छिपा है। तथ्यों पर टिकी सच की इस मार ने सादगी और भोलेपन के पीढि़यों पुराने मुखौटे उतार दिए हैं। हालांकि फिर भी कुछ लोग हैं जो ऐसे वक्त भी कुछ उद्धरणों की ढाल आजमा लेना चाहते हैं। पूर्व आईबी प्रमुख बी.एन. मलिक की 1971 में आई किताब 'माइ इयर्स विद नेहरू' का हवाला दिया जा रहा है। इस पुस्तक में मलिक लिखते हैं कि प्रधानमंत्री को इस काम (जासूसी) से इतनी चिढ़ थी कि वह हमें दूसरे देशों के उन खुफिया संगठनों के विरुद्ध भी काम करने की अनुमति नहीं देते थे जो भारत में अपने दूतावास की आड़ में काम करते थे।
इस पर क्या कहा जाए! 16 वर्ष आईबी के प्रमुख रहे जिस व्यक्ति की निगरानी में जासूस दिन-रात बोस परिवार पर पल-पल नजर रखते रहे और जो सीधा प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करता रहा हो वह प्रमुख गुप्तचर अपने पूर्व आका के बारे में और क्या लिखेगा? फिल्म देखने वाला कोई बच्चा भी बता सकता है कि कोई जासूस बयान कब देता है और इसके पीछे उसकी मंशा क्या होती है!
'71 में आई एक किताब भविष्य में भी हवाला देने के लिए संभाल ली जाती है लेकिन 1978 तक देश की संसद अपने अनमोल सपूत के चित्र से भी वंचित रहती है। निश्चित ही प्रश्न उठेंगे, उस वक्त सरकार यदि नेताजी को जीवित मानती थी तो विमान हादसे में मौत की वह कहानी क्या थी जिसे सुनाते हुए नेहरू की आंखें डबडबा जाती थीं? और इसके उलट यदि मौत सच थी तो संसद में नेताजी का चित्र क्यों नहीं था?
संसद में नेताजी के चित्र का अनावरण 1978 में हुआ। कुछ लोग दबी आवाज में तर्क देते हैं कि बोस बाबू की जुझारू-लड़ाकू तस्वीर अहिंसा के उस गांधीवादी दर्शन पर आघात करती थी जिसे अंग्रेजों के समय से ही स्वतंत्रता प्राप्ति का श्रेय दिया जाता रहा। मगर यह भी पचने वाली बात नहीं है। प्रश्न है- 1978 ही क्यों? क्या सरकार तब गांधीवादी दर्शन और इसे बढ़ा-चढ़ाकर श्रेय दिए जाने की लीक से हट गई थी? या बात कुछ और थी! संसद में नेताजी का चित्र यकीनन कांग्रेस के लिए झटका या कहिए दोहरा झटका था। यह वही वर्ष था जब विरोधाभासी साक्ष्यों को पकड़ते हुए प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने शाहनवाज और खोसला पैनल के निष्कर्षांे को खारिज कर दिया था। वैसे, शाहनवाज जांच आयोग के सदस्य नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भाई सुरेश बोस भी जांच के ऐसे निष्कषार्ें से असहमत थे और उन्होंने खोसला आयोग को कहा भी कि उनके भाई 1972 में जिंदा थे!
बोस परिवार, और पूरे देश की भावनाओं के विपरीत नेहरू एक अलग ही उधेड़बुन में थे। यह स्थिति उनकी स्थापित छवि से मेल नहीं खाती। यदि नेहरू वास्तविक जीवन में भी वैसे ही सादा दिल, रूमानी और जासूसी जैसी तुच्छ बातों से ऊपर थे जैसा कि कहा जा रहा है, तो 26 नवंबर, 1957 को उनके द्वारा लिखा पत्र क्या था? विदेश सचिव सुबिमल दत्त को लिखी इस गोपनीय चिट्ठी में बोस के भतीजे, अमिय बोस की गतिविधियों पर नजर रखने को लेकर नेहरू की बेचैनी जैसे एकदम उघड़ पड़ी है।
आईबी सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है।
बीस वर्ष तक नेताजी और परिजनों के बारे में हर खबर सूंघी जाती है। खुद नेहरू सोलह वर्ष इस काम में मशगूल रहते हैं। ऐसी हरकतों को क्या कहा जाए! नेताजी कहीं जिंदा तो नहीं? सरकार आखिर पुष्टि किस बात की करना चाहती थी! इसमें शक नहीं कि बोस परिवार को ढाढस बंधाने नेहरू खुद पहुंचे थे। उनकी आंखें भीगी थीं। लेकिन नेताजी द्वारा 'हादसे के वक्त' पहनी वह खस्ताहाल आयताकार घड़ी नेहरू कहां से लेकर आए थे जिसके बारे में नेताजी के बड़े भाई शरत बोस ने कहा था कि हादसे की कहानी और इस घड़ी पर मुझे भरोसा नहीं, सुभाष मां की दी गोल डायल वाली घड़ी पहनता था।
एक अग्रणी देशभक्त, जो खुद नेहरू से बड़ा कद और नेतृत्व क्षमता रखता था, उसके लापता होने से पूरा देश सदमे में था। जरूरत सच, सदाशयता और संवेदनशीलता की थी, उस परिवार का संबल बनने की थी, लेकिन उन आफत के मारों पर जासूस बैठा दिए गए! सवाल यह भी है कि कांग्रेस नेताजी की मौत की बात प्रचारित करने और जिंदा होने से जुड़ी हर हलचल को पहले ही पकड़ लेने के लिए इतनी उत्सुक क्यों थी?
बहरहाल, देश का राजनीतिक माहौल एक जबरदस्त लहर के साथ बदला है। जिन फाइलों को साठ-सत्तर के दशक में सार्वजनिक करना था लेकिन दबा लिया गया, इतिहास के वे पन्ने आज जनता की आंखों के सामने हैं।
चंद फाइलों से शुरू हुई ऐतिहासिक कलंक कथाओं की यह शृंखला कांग्रेस के अतीत में आजादी से पहले तक जाएगी। जानी भी चाहिए। एक अंग्रेज की सोच से जन्मी, अंग्रेजी राज के हित पोषण के लिए अपने तौर पर काम करती रही पार्टी के इतिहास की खिड़की इस अंक के जरिए खुलती है। बोस परिवार की त्रासदी और स्वतंत्रता प्राप्ति का श्रेय लेने वालों के इतिहास का एक टुकड़ा आपके सामने है। पढि़ए, विचारिए और अपनी राय खुद बनाइए।
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