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संगम के दूसरे दिन के प्रथम सत्र को संबोधित किया सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने। उन्होंने कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करते हुए कहा, जो लोग सेवा में जुटे हैं उन्हें देखकर हमारा आगे का मार्ग प्रशस्त होता है। राष्ट्रीय सेवा भारती आज इसलिए है क्योंकि 1925 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम चला और आजकल मुझे उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से सरसंघचालक का काम दिया गया है। उन्होंने सेवा संगम में आए सभी प्रतिनिधियों से सेवा प्रकल्पों और उनके कार्यों की संख्या बढ़ाने का आह्वान किया। साथ ही परामर्श दिया कि कामकाज का सिंहावलोकन कर सेवा करने वाले देश के सभी सज्जन व्यक्तियों को अपने साथ जोड़कर चलें।
श्री भागवत ने आगे कहा कि सेवा भारती और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। संघ का जन्म जिसके द्वारा हुआ उन संघ निर्माता के जीवन के यदि शुरुआती 15 वर्षों को छोड़ दिया तो जाए तो उनका बाकी सारा जीवन सेवा को ही समर्पित रहा है। सेवा हमारी परंपरा है। यही नहीं ये विश्व का सत्य भी है। सभी सुखी हों, सभी निर्भय हों, किसी को भी दुख-कष्ट न हो, इसलिए सभी को एक अनुशासन का पालन करना है। उस अनुशासन का नाम है धर्म, धर्म यानी पूजा नहीं, धर्म यानी सबको जोड़कर रखने वाला, सबको ऊपर उठाने वाला, सबको इस लोक में और परलोक में सुख प्राप्त करा देने वाला।
उन्होंने कहा कि हम यदि केवल अपने हित की चिंता करेंगे तो धर्म नहीं होगा। सबको साथ रहना है, सबको साथ चलना है। सबको आगे बढ़कर यशस्वी होना है, ये भान रखकर हम चलेंगे तो ही धर्म होगा, समाज की धारणा होगी, सब सुखी होंगे। अपनी क्षमताओं का उपयोग हम अपने लिए करते हैं। हम सब प्राणी की श्रेणी में आते हैं। आहार, निद्रा सबके लिए समान है। यदि केवल धर्म नहीं हो तो, लेकिन मनुष्य विचार करता है कि मेरे जीवन से सब सुखी हों, सबके जीवन सुखी होने में मेरा जीवन है। ऐसा जो मनुष्य होता है उसकी कहानियां हम लोग अपने बच्चों को बताते हैं। यही मनुष्य जीवन का कर्तव्य है।
सरसंघचालक ने आगे कहा कि सेवा के अभाव के कारण ही आज तक देश में दुर्बल वर्ग बना रहा है, लेकिन अब इस वर्ग में बदलाव आ रहा है और यह वर्ग समर्थवान बन रहा है। संघ का अर्थ ही सेवा है। हमारा उद्देश्य कुछ पाना नहीं, यदि ऐसा होता तो हमें देश से बाहर सेवा करने की क्या जरूरत थी। आज हम देश में नहीं बल्कि देश के बाहर भी सेवा कार्य कर रहे हैं। श्री भागवत ने आगे कहा कि सेवा के अनेक रूप हो सकते हैं । हम ऐसी सेवा चाहते हैं कि जिसकी सेवा करें वह भी दूसरे की सेवा करने में समर्थ बने। पिछले 25 वर्षों में सेवा भारती का यह स्वरूप बना है। लेकिन हमें अभी बहुत कार्य करना है। अभी तक हमने जो किया वह ऊंट के मुंह में जीरे के ही समान है। हमें समाज को ऐसा बनाना है कि समाज का सारा रूप, सारा अंग सुंदर बनें।
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