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अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
राजधानी दिल्ली देश की सांस्कृतिक गतिविधियों का भी केंद्र है। देश के सुदूर कोनों में गाए जाने वाले गीतों की प्रतिध्वनि यहां भी सुनाई पड़ती है और यहां गाए जाने वाले गीतों के बोल सारा देश दोहराता है। पिछले दिनों यहां एक आयोजन में चूंचूं के मुरब्बे की तरह नौटंकी, तमाशा, नुक्कड़ एकांकी, कव्वाली जैसी अनेकों विधाओं का अनोखा सम्मिश्रण देखने को मिला। इसकी अनुगूंज देश के कोने-कोने तक नहीं पहुंच सकी क्योंकि मुख्य कलाकार बड़बोले दावों के बावजूद थे तो तृतीय श्रेणी के अदाकार ही। फिर भी उस अद्भुत सांस्कृतिक कार्यक्रम के डांस मास्टर जी का नृत्य संयोजन और फाइट मास्टर के स्टंट और फाइट के दृश्य बेहद दर्शनीय थे। चलिए आपको इस रंगारंग कार्यक्रम का आंखों देखा विवरण सुना डालूं।
जब मैं पहुंचा तब तक नायक और विदूषक का दोहरा रोल अदा करने वाला हीरो आया नहीं था मगर उसके चमचे और लठैत पहले से जमा थे। मुझे आश्चर्य हुआ। लठैतों की क्या जरूरत? पता चला हीरो ने अन्य सारे पात्रों के संवाद काट छांट कर इतने छोटे करवा दिये थे कि बेचारों को मूक चलचित्रों का युग याद आ गया। सारे संवाद हीरो ने अपने किरदार के संवाद में शामिल करवा लिए थे। स्क्रप्टि बदलने में मदद मिली एक गीतकार जी से जिनके ऊपर नायक को पूरा 'विश्वास'था। गीतकार जी थे तो डेढ़ पसली के ही पर हौसला बुलंद रखते थे। नायक के चढ़ा देने पर एक बार वाराणसी में एक सांड से टक्कर ले बैठे थे। खैरियत थी कि पटकनी खाने के बाद किसी तरह फिर चलने फिरने लायक हो गए थे। बहरहाल लठैत इसलिए बुलाए गए थे कि फिल्म के सारे संवाद या तो हीरो जी बोलें या उनके लठैतों की लाठियां।
मैंने सोचा था संवाद न सही कम से कम अन्य पात्र देखने को तो मिलेंगे, पर पता चला कि उनमे से कई मैदान छोड़ कर पहले ही भाग चुके थे। एक प्रौढ़ा चरित्र अभिनेत्री को कुछ दिन पहले ही 'बचाओ- बचाओ'कह कर मंडली के दफ्तर से भागते देखा गया था। पता चला कि वैसे उन्हें कोई खास खतरा नहीं था। बस 'नर्मदा बचाओ-नर्मदा बचाओ' चिल्लाते रहने की उनकी पुरानी आदत थी। लाखों एकड़ धरती पर पानी को तरसते किसानों ने उन्हें भगाया तो नई जमीन पर झाड़ू फेरने की चाहत से वे इस कंपनी में आई थीं. पर यहां का हाल देखकर उनकी आशा पर झाड़ू फिर गयी थी कि उनके शहर में यह नाटक खेला जा सकेगा। मंडली छोड़ कर जाने वालों में एक बहुत सुन्दर अभिनेत्री भी थी और भी न जाने कितने जाने पहचाने नाम थे नाटक के हीरो को भी समझ में आ गया था कि नाटक के दूसरा अंक खेले जाने की आशा ही न हो तो उन्हें छोड़कर सिर्फ कव्वाली की तर्ज पर ' हाँ जी हाँ, हाँ हाँ हाँ , हाँ जी हाँ' दोहराते हुए ताली बजाने वाले, एक हरमुनिया मास्टर, एक सारंगी वादक और एक तबलची से काम चल जाएगा।
नाटक शुरू हुआ तो दो पुराने ऐक्टर जिनके संवाद काट दिए गए थे वहां जाकर 'हम आपके हैं कौन' फिल्म के संवाद बोलने लगे। बस फाइट और स्टंट मास्टर की बन आयी। लठैतों ने सबसे पहले जिस छोटे कलाकार की कुटाई की उसे हिन्दू मुस्लिम एकता वाले सीन में काम करना था। पर हीरो का कहना था कि जब पूरा ड्रामा एकता के खिलाफ सन्देश दे रहा था तो हिन्दू- मुस्लिम एकता लेकर उसे चाटेंगे? फिर तो सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष की सारी हिदायतों को भुलाकर कमीने, साले आदि शब्द संवाद तो क्या नाटक की आत्मा तक में घुस गए. स्थिति इतनी बिगड़ी कि फौज बुलाने की जरूरत पड़ गई, फौज वाले तो ऐसी सांस्कृतिक गतिविधियों से दूर ही रहते हैं पर नौसेना के एक एडमिरल साहेब को आते देखकर उम्मीद बंधी कि वे अमन चैन कायम कर सकेंगे। पर अफसोस! एडमिरल साहेब ने बताया कि आने के पहले ही उनका बेड़ा गर्क हो चुका था।
लग रहा था फाइट वाले सीन समाप्त ही न होंगे पर हीरो जी के आकर गरजने के बाद सब लठैत शांत हो गए। हीरो जी का डायलॉग था 'जिन कमीनों को मेरी जरूरत नहीं है वे दफा हों' पर किसी और के दफा होने के पहले वे स्वयं दफा हो गए। वे जल्दी में थे। एक दूसरे फिल्म के सेट पर उनकी प्रतीक्षा हो रही थी जिसमें आत्महत्या पर उतारू एक पायलट दूसरे पायलट को कॉकपिट से निकालकर अन्दर सिटकिनी लगा लेता है फिर जहाज का ऑटोपाइलट पर्वतशिखरों से टकरा जाने वाली निचाइयों तक उतारने के लिए सेट कर लेता है. इस धांसू रोल के लिए इससे बढि़या कलाकार मिलता भी कौन? बहरहाल फाइट वाले सीन के समाप्त होने पर म्यूजिक डायरेक्टर ने नाटक को नौटंकी में बदलते देखा तो फटाफट किसी सार्थक किरदार के लिए तरसते दोनों मुख्य सहायकों को पार्श्वसंगीत पर मुंह चलाते हुए एक मशहूर नौटंकी गीत गाने के लिए स्टेज पर खडा कर दिया। गीत के जाने पहचाने बोल थे 'भरतपुर लुट गयो रात मेरी अम्मा!' ल्ल
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