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डॉ. गुलरेज शेख
विश्वभर के राष्ट्रों पर यदि दृष्टि डालें तो भारत की भांति ही कई राष्ट्र हैं जिन पर समय-समय पर विदेशी आक्रमणों से लेकर, विदेशी साम्राज्य स्थापित रहे। पर एक बात भारत को इन अधिकांश राष्ट्रों से पृथक बनाती है, वह है हमारी संस्कृति, जो सदियों के आक्रमणों तथा पराधीनता के पश्चात भी जीवित है। सभी पंथों तथा विचारधाराओं के प्रति अति उदार यह सांस्कृतिक हिन्दू, राष्ट्र आज भी अपनी संस्कृति को जीवित रखते हुए स्वयं में अन्य पंथों तथा विचारधाराओं का समावेश करने की क्षमता रखता है। हमारे राष्ट्र की इस अपार शक्ति का स्रोत हमारे समाज में अनादि काल से धर्म आधारित संस्कृति का प्रभुत्व विद्यमान होना है। जबकि हमारे अन्य प्रतिरूप चाहे वह रोम हो या मिस्र या फिर यूनान हो या फ्रांस या इराक (मेसोपोटामिया) यहां भी महान संस्कृतियां पनपीं पर चूंकि ये संस्कृतियां धर्म आधारित न होते हुए पंथ आधारित थीं अत: विदेशी पंथों के आगमन ने इन राष्ट्रों की पंथ आधारित संस्कृतियों का सफाया कर दिया।
जहां रोम तथा यूनान (ग्रीक) की मूल संस्कृतियों को ईसाई पंथ के आगमन ने धराशायी किया वही कार्य इस्लाम पंथ के आगमन ने मिस्र, इराक तथा फ्रांस की संस्कृतियों के साथ किया परन्तु इनमें भी अपवाद रहा-विश्व की सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या वाला इंडोनेशिया जिसने अपनी मूल संस्कृति को संजोए रखा, जो उसके नाट्य, नृत्य, साहित्य आदि से लेकर उसकी जीवन शैली यहां तक कि नामों में भी जीवंत है, इंडोनेशियाई मानव संसाधन एवं संस्कृति मंत्री पुआन महारानी हैं तथा राष्ट्रीय एयरलाइन 'गरुड़' है और मेघावती सुकर्णो पुत्री का नाम कौन भूल सकता है?इंडोनेशिया की मूल संस्कृति के जीवंत होने का मूख्य कारण वहां की धर्म आधारित हिन्दू संस्कृति का प्रभुत्व होना ही है, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण रामायण आधारित वहां के लोक नृत्य हैं। चाहे फिर वह आधुनिक भारत के कैप्टन अब्दुल हमीद हों या फिर महाराणा प्रताप के संग बाबर से लोहा लेने वाला भूमिपुत्र एलन खान मेवाली या फिर पानीपत के प्रथम युद्ध में उसी तुर्के-मंगोल आक्रमणकारी बाबर से टकराने वाले पंजाबी (पख्तून मूल के) इब्राहिम लोदी तथा उनके साथी ग्वालियर के राजा विक्रमजीत तथा सनातन पंथियों से बहुल इब्राहिम लोदी की फौज, जिन्होंने बाबर की आग उगलती तोपों के सामने मां भारती की रक्षा के लिए पंथों को भुलाकर एक साथ संघर्ष किया और एक साथ आत्मोत्सर्ग, यही कारण था कि मुगलों ने फारसी को शासकीय भाषा बनाया तथा फारसी एवं तुर्की संस्कृति को न केवल प्रोत्साहन दिया बल्कि अपनी संस्कृति को इस्लामिक पंथ से जोड़ना शुरू किया ताकि मुस्लिमपंथी हिन्दू स्वयं का परिचय किसी और विदेशी संस्कृति में ढंूढने लगें और इस खुराफात में वे बहुत सीमा तक सफल भी रहे, ये सभी प्रयोग मुस्लिमपंथी हिन्दूओं को स्वयं की संस्कृति से दूर करने के लिए थे, जो कि पंथ की चादर ओढ़े उस सियार की भांति थे, जिसने शेर की खाल छोड़ ली थी। परन्तु देश की संस्कृति से खिलवाड़ की खुराफात का असली सुल्तान यदि कोई था तो वह था लॉर्ड मैकाले, जिसकी खुराफाती भावना तथा योजना के तथ्य के लिए उसके द्वारा सन् 1835 में ब्रिटिश संसद में दिया गया भाषण पर्याप्त है जिसमें वह कहता है कि इस भारत देश को हम उस समय तक परास्त नहीं कर सकते जब तक इसकी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत जो इस देश (भारत) की रीढ़ की हड्डी है, नहीं तोड़ देते। हम भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली एवं संस्कृति में बदलाव करें ताकि वे यह विचार करने लगें कि जो कुछ भी विदेशी एवं अंग्रेजी है वह उच्च है। ऐसा होने पर वे आत्मसम्मान तथा भारतीय संस्कृति विहीन होकर वही बन जाएंगे जो हमारी इच्छा है 'एक पूर्णत: गुलाम राष्ट्र'। और आज भी हम स्वयं को लॉर्ड मैकाले की योजना से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं कर पाए हैं। अत: प्रशासनिक गुलामी से मुक्ति प्राप्ति के पश्चात अब आवश्यकता है मानसिक गुलामी के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम की और जहां तक हम भारतवंशी मुस्लिमपंथी हिन्दुओं का प्रश्न है तो हमें स्वयं को पंथ पर आधारित संस्कृति के जाल से मुक्त कर, इंडोनेशिया के मुस्लिमपंथियों की भांति ही, अपने पंथ पर रहते हुए, धर्म आधारित संस्कृति का अनुसरण करना चाहिए। यही हसन खान मेवाती, राजा विक्रमजीत, अशफाक उल्लाह खान, कैप्टन अब्दुल हमीद जैसे अनगिनत भूमिपुत्रों को सही श्रद्धाञ्जलि होगी और तभी हम कह सकेंगे कि आया होगा बाबर हम तो 'महा' भारत के लोग हैं। ल्ल
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