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पाञ्चजन्य ब्यूरो
भारत के गौरवशाली इतिहास का साक्षी रहा जयपुर नगर अब तो सामान्यत: तेज रफ्तार ट्रेफिक और कोलाहल के लिए जाना जाता है, किन्तु पिछले सप्ताह यह चार दिन के लिए ज्ञात विश्व इतिहास के आतंकवाद पर रखे गए एक बड़े सेमिनार का भी साक्षी बना। बहुत अच्छे ढंग से विचार कर योजना बनाने का परिणाम ही है कि यह सेमिनार अंतरराष्ट्रीय इतिहास का गंभीर हिस्सा बनने जा रहा है। इसका विषय आतंकवाद को समझना और उससे निबटने की योजना बनाना था। ऐसे सभी देशों, जो आतंकवाद से प्रभावित हैं, का उपयुक्त और आवश्यक प्रतिनिधित्व इस चार दिन के सेमिनार में हुआ। थलसेना के लेफ्टिनेंट जनरल ए. एस. कालेकट, लेफ्टिनेंट जनरल के़ टी़ परनायक, लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन, मेजर जनरल अफसिर करीम (जिनका जीवन आतंकवाद से लड़ते, जूझते गुजरा), भारतीय पुलिस बल के श्री पी़ एस़ गिल, श्री एऩ सी़ पाधी, श्री प्रकाश सिंह, श्री पी़ सी़ डोगरा, श्री राजन मेढेकर, श्री उज्ज्वल निकम जैसे वरिष्ठतम अधिकारी (जिन्होंने इस बल को स्वरूप दिया), नौसेना के कोमोडोर उदय भास्कर, वाइस एडमिरल शेखर सिन्हा जैसे अधिकारियों (जिनकी उपस्थिति 26/11 के मुंबई-भारत पर हुए आक्रमण को समझने के लिए अनिवार्य थी) सहित भारत सरकार के श्री पी़ एस़ पिल्लै जैसे वरिष्ठतम अधिकारी, सुरक्षा सलाहकार वहां मौजूद थे। श्रीलंका, भूटान, नेपाल, बंगलादेश, सिंगापुर, बर्मा, थाईलैंड, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, रूस, सर्बिया, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, यूनान, अमरीका, इस्रायल जैसे देशों से ले कर सीरिया के अधिकारी और विद्वान वहां उपस्थित थे। भारत के संदर्भ में माओवादी आतंकवाद तथा अंतरराष्ट्रीय समस्या बने इस्लामी आतंकवाद का गहन विश्लेषण चर्चा का विषय था। इस्लामी आतंकवाद के उपजने का स्रोत, उसे जीवन देने वाला नशीली दवाओं का कारोबार, जाली मुद्रा, अवैध शस्त्रों का व्यापार और उससे निबटने के विभिन्न उपाय गहन मंथन के विषय बने रहे।
अल कायदा, बोको हराम, आई़ एस़ आई़ एस. को शक्तिहीन करने, उसे नष्ट करने के उपायों पर विचार-मंथन हुआ। इक्का-दुक्का स्वर ऐसे भी उभरे कि आज जब सीरिया, ईराक और लीबिया केवल नक्शे पर बचे हैं और भूमि पर इनकी कोई यथार्थता नहीं बची है तो क्या यह उपयुक्त नहीं है कि किसी इस्लामी समूह से बात की जाये और सभ्य समाज इस क्षेत्र में राष्ट्र-राज्य को कोई स्वरूप दे? ऐसे विचारों का प्रत्येक सत्र के अंत में होने वाले प्रश्न-उत्तर के समय ही तुरंत खंडन कर दिया गया। अल कायदा की मरणासन्न स्थिति को देखते हुए बोको हराम, आई़ एस़ आई़ एस. चर्चा का प्रमुख केंद्र बने रहे। विशेष रूप से आई़ एस़ आई़ एस. के पास विकसित देशों के आधुनिकतम शस्त्रों की उपलब्धता चिंता का विषय थी। ईराक, सीरिया की तेल रिफायनरियों में अब तक उत्पादन होना और उन पर आई़ एस़ आई़ एस. का नियंत्रण होना, आई़ एस़ आई़ एस. द्वारा पैट्रोल, गैस का बेचा जाना विद्वानों की दृष्टि में बहुत गंभीर चिंता का केंद्र था। इन आतंकवादियों के पास पश्चिमी देशों के आधुनिकतम हथियारों का होना इस संघर्ष को न केवल कठिन बना रहा है बल्कि इनसे संघर्ष कर रहे स्थानीय बलों को नैतिक रूप से हतोत्साहित करने भी वाला है।
भारत के सन्दर्भ में यह बात अधिक बड़ी समस्या के रूप में सामने आई कि हम दोनों समस्याओं से ग्रसित हैं। यहां माओवाद का आतंकवाद और इस्लामी आतंकवाद, दोनों हैं। केंद्र सरकार में कार्यरत अधिकारी एम़ ए़ गणपति ने तुरंत उग्रवाद और आतंकवाद के अंतर को स्पष्ट किया और माओवाद को उग्रवाद बताते हुए उससे निबटने के लिए भिन्न योजना की वकालत की। उन्होंने माओवादी उग्रवाद से अत्यधिक प्रभावित महाराष्ट्र के एक जनपद गढ़चिरौली का उदाहरण देते हुए बताया कि वहां तैनात जिला पुलिस अधिकारी ने पूरे जनपद से कुछ समय में ही माओवादियों और उनकी योजनाओं को नष्ट कर दिया। पुलिस द्वारा उग्रवादियों से खाली करवाये गए स्थानों को अतिरिक्त थानों द्वारा भरा जाना, विकास की योजनाओं द्वारा पिछड़े हुए स्थानीय समाज को राज्य के उदार स्पर्श का अनुभव कराया जाना इस समस्या के स्थाई समाधान के लिए आवश्यक है। सड़कें, स्कूल बनाना अनिवार्य है। टी़ वी़ टॉवर, मोबाइल नेटवर्क वापस स्थापित करने हैं। विकास की धारा का प्रवाह स्थानीय पिछड़े समाज तक पहुंचाए बिना इस समस्या से निबटना अत्यंत कठिन है। अब माओवाद की मीडिया में उपस्थिति नगण्य हो गयी है और 3-4 वर्ष में यह धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगा। माओवादी उग्रवाद या ऐसा ही कोई समूह दुबारा न उभरे, इसके लिए विकास की योजनाएं और उनका प्रभावी क्रियान्वन अनिवार्य है। इसे मुलायम हाथ से ठीक किया जायेगा, वहीं उनका मत था कि आतंकवाद से निबटने का एक ही तरीका है कि उन लोगों को समूल नष्ट किया जाये।
आतंकवाद एक शुद्ध व्यवसाय बन गया है। कई विद्वानों का विचार था कि आर्थिक विषमता आतंकवाद के लिए उर्वरा भूमि उपलब्ध कराती है। तुरंत ही आतंकवाद के स्रोत, कारण को जानने-समझने वाले विद्वान इसका खंडन कर देते थे।
अफगानिस्तान से आये अमरुल्लाह सालेह ने अफगानिस्तान में तालिबान के उभार के बारे में बहुत विस्तार से बताया। उनके अनुसार, हम अपने वतन के लिए जिहाद करने पर तुले। हमारा जिहाद अफगानिस्तान की मुक्ति के लिए था। उससे छूटे तो पाकिस्तान ने तालिबान के नाम से अपनी सेना हमारे देश में भेज दी। हम उनसे भी लड़े। जब अमरीका की नीति तालिबान का पक्ष लेने की थी, हमने तब भी तालिबान का विरोध किया। 9/11 के बाद अमरीका की नीति बदली और उसने हमसे कहा 'अब तालिबान का काल समाप्त हो गया। जो हमारे साथ नहीं है वह हमारा विरोधी है।' अमरीका ने प्रजातंत्र, स्त्रियों के अधिकार, न्याय के शासन का आश्वासन दिया। हम अमरीका के साथ मिल कर तालिबान से लड़े। पाकिस्तान की नीयत अफगानिस्तान होते हुए मध्य एशिया में अपने पैर जमाने, अपनी स्थिति मजबूत करने की है। इसके लिए अफगानिस्तान में कमजोर सरकार उसके इरादों के लिए आवश्यक है। उसने हमारी और अमरीका की योजना पर पानी फेरने के लिए 'नाटो' की कार्यवाही के विरुद्ध तालिबान को कराची, पेशावर, क्वेटा इत्यादि क्षेत्रों में बुला लिया। इसी कारण 'नाटो' सफल नहीं हुआ। अब इतनी कुर्बानियां देने के बाद हम अफगानों को अमरीका ही तालिबान से समझौता करने के लिए कह रहा है। इन शैतानों के साथ समझौते की बात ही इन्हें उभार रही है। इस लड़ाई में लाखों अफगानी लोग मारे गये। हमारी स्त्रियों पर बलात्कार हुए। हम अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़े थे। अब हमें असहनीय स्थिति में डाला जा रहा है। पाकिस्तान चाहता है कि हमारे देश में भारत की स्थिति को कमजोर किया जाये। भारत ने मध्य एशिया से हमारे देश में बिजली की लाइनें बिछाई हैं। वह हमारा संसद भवन बना रहा है। हजारों छात्रों को छात्रवृत्ति दे रहा है। भारत यह सहायता बिना किसी मांग के केवल सदाशयता से कर रहा है। जबकि पाकिस्तान हमारे देश में जनतंत्र को कमजोर करना चाहता है। हमारे विकास कायोंर् में लगीं भारतीय कम्पनियों को निकालना चाहता है और वहां अपनी कंपनियों को स्थापित करना चाहता है। उसकी इच्छा अफगानिस्तान की राजनीति में तालिबान को विशेषाधिकार दिलवाकर स्थापित करने की भी है। इस समस्या को समाप्त करना है तो तालिबान को किसी तरह का भी राजनैतिक समर्थन नहीं मिलना चाहिए। कोई भू-राजनैतिक बढ़त नहीं मिलनी चाहिए। उन्हें प्रजातांत्रिक ढंग को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। ऐसा होते ही ये तुरंत चित हो जायेंगे। विश्व इतिहास में पहली बार एक पूरा देश सेना के पीछे है। हमारी सेना देश के लोगों के विकास का काम कर रही है। लोक संस्थानों को बहाल करने का कार्य कर रही है।
कई सामरिक विशेषज्ञों, विशेष रूप से अमरीका से पधारे कैली बी़ ओल्सन, की चिंता थी कि आतंकवादियों ने रासायनिक तथा परमाणु शस्त्रों पर आंखें गड़ा रखी हैं और इन शस्त्रों को पाने की कोशिश कर रहे हैं। इस समस्या को अनिवार्य रूप से स्थानीय समस्या न मानते हुए अंतरराष्ट्रीय समस्या समझकर निबटने की जरूरत है। इटली से आये प्रोफेसर आंद्रिया मर्गेल्लित्ति के अनुसार, इसके लिए एक-दूसरे की सहायता, आपस में गुप्त सूचनाओं का आदान-प्रदान, सांझी रणनीति बना कर काम करना है और इस विष-बेल को नष्ट करना है। सभ्य संसार जिस परेशानी को झेल रहा है वह चुनौती भी है और एक बड़ा अवसर भी है। हमें एक-दूसरे के साथ हाथ में हाथ लेकर आगे बढ़ना है।
कश्मीर के संदर्भ में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ लगभग एक मत थे। कश्मीर घाटी में सैन्य पद संभाले रहे लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन के अनुसार, वहां पाकिस्तान को आतंकवादी भेजने की आवश्यकता ही नहीं है। घाटी में माफ किये गए हजारों तथाकथित पूर्व आतंकवादी मौजूद हैं। पाकिस्तान को केवल उनसे दुबारा सम्पर्क साधने और हथियार देने का काम करना होता है। कश्मीर में काम कर चुके भारतीय सेना के अनेक अधिकारियों ने बताया कि ऐसा अतीत में होता रहा है। आतंकवादी हिंंसक विचारधारा से प्रेरित हैं और उन्हें समाज में खुला छोड़ना अपनी गर्दन पर तलवार लटकाने के बराबर है। विचारधारा को वैचारिक पराजय देना तो आवश्यक है ही, मगर इसके लिए प्रभावी कार्यवाही अनिवार्य है। द्वितीय विश्व युद्ध बरसों से चल रहा था और उसके समाप्त होने की शुरुआत जापान पर दो परमाणु बमों के प्रहार ने की। सदैव प्रबल सैनिक पराजय ही आत्यंतिक पराजय देती है। कुल मिलाकर सशक्त, सबल सैनिक कार्यवाही की सामूहिकता और उसकी रणनीतिक योजना की आम सहमति के पक्ष में ये चार दिवसीय सेमिनार खत्म हुआ।
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