|
जे. के. त्रिपाठी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी भाजपा की सरकार के नौ महीने पूरे हो चुके हैं। इस दौरान देश की रेल नीति और अर्थव्यवस्था के साथ साथ विदेश नीति में भी बड़े बदलाव के चिह्न परिलक्षित हो रहे हैं। किसी भी देश की विदेशनीति का मूल राष्ट्रहित का संवर्द्धन और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका संचालन होता है। चूंकि एक सुगठित और स्थायी लोकतंत्र में राष्ट्रहित में सामान्यत: कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता(अधिनायकवादी व्यवस्था में या युद्ध जैसी आपातकालीन अवस्था में परिवर्तन तेज होते हैं), इस दृष्टि से भारतीय विदेश नीति में कोई अनपेक्षित या तीव्र परिवर्तन नहीं हुआ है। किंतु विदेश नीति के संचालन की दक्षता, तीव्रता और संबधित उपकरणों की उपादेयता में काफी बदलाव आया है, जो समकालीन संदर्भों में अधिक महत्वपूर्ण एवं स्वागतयोग्य है।
विदेश नीति के अपेक्षित परिणाम-पड़ोसी देशों के साथ मित्रवत् और सुरक्षित संबंध, महत्वपूर्ण और शक्तिशाली देशों के साथ मधुर संबंध, शत्रुवत् देशों को अधिकाधिक अकेला करना, निर्यात और विदेशी निवेश में वृद्धि, प्रेरक संबंध, अप्रवासी भारतीय समुदाय के साथ संबंध वृद्धि-मोदी के कार्यकाल में खूब सकारात्मक हुए हैं।
कार्यकाल के प्रारंभ में ही मोदी की पड़ोसी देशों से संबंध सुधारने की नीति दिखने लगी थी। शपथ ग्रहण समारेह में दक्षेस देशों के शासनाध्यक्षों को आमंत्रण, नेपाल और म्यांमार की यात्रा, विदेश मंत्री द्वारा बंगलादेश की यात्रा आदि ऐसे कदम हैं जिनसे भारत की छवि सुधरी है और 'बिग ब्रदर' होने के पड़ोसियों के आरोप कमजोर साबित हुए हैं। हालांकि पाकिस्तान के रुख में नरमी नहीं दिखी, फिर भी भारतीय विदेश सचिव को इस्लामाबाद भेजना भारत की पाकिस्तान के प्रति सद्भावना को ही दर्शाता है। दक्षेस सम्मेलन में भारत द्वारा प्रक्षेपित तीन लक्ष्यों-संस्कृति,संपर्क और वाणिज्य-पर पाकिस्तान के अतिरिक्त अन्य दक्षेस सदस्यों द्वारा जहां एक ओर भारतीय नीति की स्वीकृति दर्शाता है वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान द्वारा संपर्क के मुद्दे पर भारतीय प्रस्ताव का विरोध पाक की खेल बिगाड़ने वाली छवि को पुष्ट करता है। चीन के साथ संबंधों में अगर गर्मजोशी नहीं आई है, तो खटास भी नहीं हुई है। ली जिंगपिंग की भारत यात्रा के दौरान चुमार के इलाके में चीनी घुसपैठ एकमात्र नकारात्मक घटना थी, जिसे तुरंत ही हल कर लिया गया और इस तरह चीनी प्रमुख की यात्रा असफल होने से बच गई। मोदी की श्रीलंका और मारीशस की यात्रा और श्रीलंका के राष्ट्राध्यक्ष की भारत यात्रा ने भारत के इन देशों से संबंधों पर मुहर लगा दी।
मोदी सरकार को शक्तिशाली देशों के साथ संबंध सुधारने में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। पहले अमरीका की यात्रा और फिर राष्ट्रपति ओबामा की जनवरी 2015 में भारत यात्रा ने दोनों देशों के संबंधों में आश्चर्यजनक सुधार दिखाए हैं। एक अरसे से विवादित खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर अमरीका का भारत की बात मानना सिविल न्यूक्लियर करार पर दोनों देशों की सहमति इस बढ़ती दोस्ती के दो खास उदाहरण हैं।
पेंटागन द्वारा हाल में ही प्रकाशित अफगानिस्तान में सुरक्षा एवं स्थायित्व रिपोर्ट में पाकिस्तान को स्पष्ट रूप से भारत में आतंकवाद फैलाने का दोषी करार दिया गया है, जो कि पाकिस्तान के प्रति भारतीय दृष्टिकोण की पुष्टि करता है। जापान के साथ संबंधों में सुधार और आस्ट्रेलिया के साथ आणविक आपूर्ति ग्रुप पर सहमति विशेष सकारात्मक मायने रखती हैं।
भारत में निवेश और तकनीकी आदान-प्रदान की संभावनाओं की खोज जापान को हमारा महत्वपूर्ण साथी बना देती है। चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा, विदेश सचिव की चीन यात्रा हमें अपने इस ताकतवर पड़ोसी से बराबरी के स्तर पर बात करने का मौका देती है। हालांकि चीन के साथ कई अहम मुद्दे अभी भी विवादित हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कूटनीति में विवादों का समाधान तुरंत नहीं होता।
अमरीका के साथ विवादित मसलों को सुलझाने में कई साल लग गए। इसी प्रकार चीन के साथ विवाद सुलझाने में समय लगेगा, किंतु मोदी की पहल इस दिशा में सकारात्मक कदम है। आर्थिक लाभ की दृष्टि से देखें तो मोदी के शासनकाल में विदेशी निवेश के दरवाजे खुले हैं। पश्चिम की लगभग सभी बड़ी कंपनियों के प्रमुख भारत का एकाधिक दौरा कर चुके हैं। मुद्रास्फीति में कमी और आर्थिक वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी इस बात के संकेत हैं कि विदेश नीति के संचालन का प्रभाव अर्थव्यवस्था पर काफी अच्छा पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की अध्यक्ष का यह बयान कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर जल्दी ही चीन को पछाड़ देगी, काफी उत्साहजनक है। ऐसी स्थिति में जब विश्व में शिक्षित युवाओं की जनसंख्या घटती जा रही है, भारत का पूर्ण प्रशिक्षित युवाओं का सबसे बड़ा भंडार होना उसे दुनिया की आर्थिक व्यवस्था में एक खास स्थान दिला सकता है। इस जगह को पाने की सारी जरूरी सामग्री तो हमारे पास है ही, बस कमी एक अच्छी नीति की थी जो मोदी सरकार अपनाने को कृत-संकल्प दिख रही है।
प्रवासी भारतीय समुदाय के साथ ऐसा सीधा अनिरुद्ध संबंध बनाने का कार्य जो मोदी ने किया है, संभवत: नेहरू के बाद कोई नहीं कर पाया था। अनिवासी भारतीय समुदाय से सीधा संपर्क कर मोदी ने उन्हें इसका स्पष्ट एहसास करा दिया कि यह समुदाय भारत सरकार के लिए कितना महत्वपूर्ण है। अनिवासी भारतीय समुदाय ने भी प्रत्युत्तर में मोदी को बिना किसी लाग-लपेट अपना लिया। ध्यान रहे कि अनिवासी भारतीय समुदाय अपनी कर्मभूमि में रहकर वहां के जनमत को भारतीय नीतियों के पक्ष में मोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है और उससे मधुर संबंध इस प्रक्रिया को तीव्रगामी ही करेंगे।
अक्सर यह कहकर आलोचना भी की जाती है कि मोदी का अब तक का कार्यकाल बहुत तेज किंतु बहुत कम उपलब्धियों वाला रहा है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि विदेश नीति के क्षेत्र में परिणाम शीघ्रगामी नहीं, दूरगामी होते हैं। नौ महीने के कार्यकाल में सकारात्मक परिणाम आने शुरू हो गए हंै। यही मोदी की बड़ी उपलब्धि है। ल्ल
टिप्पणियाँ