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प्रशांत वाजपेई
पिछले सौ वर्ष से जो प्रतीकों को मिटाने में लगे रहे, वे अचानक प्रतीकों को चुराने लगें, तो इससे गहरे में चल रही किसी उथल-पुथल का पता चलता है। मौका था क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान दिवस का, और संदर्भ है वामपंथियों द्वारा भगत सिंह की विरासत पर दावा ठोकने की बेचैन कोशिशों का। एक ओर जहां अपने बलिदान के साढे़ आठ दशक बाद भगत सिंह युवा भारत की धड़कन बनते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत में प्रवेश के नौ दशक बाद वामपंथ की नब्ज टूट रही है। वामपंथी खेमे में हड़बड़ी है और ढहते बुजार्ें पर उधार के झण्डे लगाकर अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने की छटपटाहट साफ दिखाई देती है। छैनी, हथौड़ा और वामपंथ का सांचा लेकर वाममार्गी नए-नए प्रतीकों की प्रदक्षिणा करने में जुुटे हैं। उनका नया ठिकाना है शहीद-ए-आजम भगत सिंह।
गत 23 मार्च को जब सारा देश भगत सिंह को नमन कर रहा था उस समय वामपंथी धड़ा मीडिया की गहमा-गहमी का दोहन करने की जुगत भिड़ा रहा था। भगत सिंह को वामपंथी बताने वाले ट्वीट किए जा रहे थे। टीवी स्टूडियो में बैठे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी भगत सिंह के प्रिय 'बसंती चोले' को लाल दिखाने में जुटे थे। सनद रहे कि रामप्रसाद बिस्मिल का लिखा यह गीत भगत सिंह को प्रिय था और वे अक्सर इन पंक्तियों को गुनगुनाते थे-'मेरा रंग दे बसंती चोला…. इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला। यही रंग हल्दी घाटी में खुलकर था खेला।' स्पष्ट है कि भगत सिंह की प्रेरणाएं सांस्कृतिक थीं। 1922-23 में पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन ने पंजाब की भाषा तथा लिपि की समस्या पर लेख आमंत्रित किए। भगत सिंह ने भी इस स्पर्धा में अपना लेख भेजा। सम्मेलन के मंत्री श्री भीमसेन विद्यालंकार ने भगत सिंह के बलिदान के बाद 28 फरवरी, 1933 के 'हिंदी संदेश' में इस लेख को प्रकाशित करवाया। इस लेख के अंश बताते हैं कि किशोरावस्था में भी भारतीयता, भारतीय भाषा, भारतीय महापुरुष एवं भारत के सांस्कृतिक प्रवाह के प्रति भगत सिंह का कितना गहरा आग्रह था। ये वे शब्द हैं जिन्हें सुन कर किसी भी कॉमरेड को मितली आने लगती है। वामपंथ धर्म और संस्कृति से घृणा करता है। भगत सिंह द्वारा लिखी गईं ये पंक्तियां वामपंथियों के दावे को मुुंह चिढ़ा रही हैं, 'हम नवें गुरु श्री तेग बहादुर जी के उपदेश में पददलित लोगों की हमदर्दी तथा उनकी सहायता के भाव पाते हैं :
बांहि जिन्हां दी पकडि़ए,
सिर दीजिए बाहिं न छोडि़ए।
गुरु तेग बहादुर बोलया,
धरती पर धर्म न छोडि़ए॥
उनके बलिदान के बाद हम एकाएक गुरु गोविंद सिंह जी के उपदेश में क्षात्र धर्म का भाव पाते हैं। जब उन्होंने देखा कि अब केवल भक्ति भाव से ही काम न चलेगा, तो उन्होंने चण्डी की पूजा भी प्रारंभ की और भक्ति तथा क्षात्र धर्म का समावेश कर सिख समुदाय को भक्तों तथा योद्धाओं का समूह बना दिया। उनकी कविता (साहित्य) में हम नवीन भाव देखते हैं। वे लिखते हैं –
सूरा सो पहिचानिए जो लड़े दीन के हेत।
पुरजा-पुरजा कट मरे, कभूं न छांडे़ खेत॥
और फिर एकाएक खड्ग की पूजा प्रारंभ हो जाती है –
खग खंड विहंड,
खल-दल खंड अति रन मंड प्रखंड।
भुज दण्ड अखंड,
तेज प्रचंड जोति अभंड भानुुप्रभं॥
उन्हीं भावों को लेकर बाबा बंदा आदि मुसलमानों के विरुद्ध निरंतर युद्ध करते रहे।' इन पंक्तियों में जो भाव आए हैं, क्या वे किसी वामपंथी के गले उतर सकते हैं? इन पंक्तियों से भगत सिंह की भारत और भारत के इतिहास के प्रति दृष्टि स्पष्ट हो जाती है। कॉमरेड का दु:स्वप्न यहीं समाप्त नहीं होता। वामपंथियों को स्वामी विवेकानंद से शिकायत है कि उन्होंने भारत में हिन्दू नवोदय की नींव रखी। उनके लिए स्वामी रामतीर्थ भी एक और भगवाधारी नाम है। इन दोनों हस्तियों के प्रति भगत सिंह के उद्गार देखिए- 'लगभग एक ही समय बंगाल में स्वामी विवेकानंद तथा पंजाब में स्वामी रामतीर्थ पैदा हुए। दोनों एक ही तरह के महापुरुष थे। दोनों विदेशों में भारतीय तत्वज्ञान की धाक जमा कर स्वयं भी जग-प्रसिद्ध हो गए। स्वामी विवेकानंद का मिशन बंगाल में एक स्थाई संस्था बन गया। पर पंजाब में स्वामी रामतीर्थ का स्मारक तक नहीं दिखता।' उन दोनों के विचारों में भारी अंतर रहने पर भी तह में हम एक गहरी समानता देखते हैं। जहां स्वामी विवेकानंद कर्मयोग का प्रचार कर रहे थे, वहां स्वामी रामतीर्थ भी मस्तानावार गाया करते थे :
हम रूखे टुकड़े खाएंगे,
भारत पर वारे जाएंगे।
हम सूखे चने चबाएंगे,
भारत की बात बनाएंगे।
हम नंगे उमर बिताएंगे,
भारत पर जान मिटाएंगे।
भाषा के प्रश्न पर वामपंथियों के काम विखंडनकारी रहे हैं। उर्दू को उन्होंने मुसलमानों की भाषा बनाकर प्रस्तुत किया और विभाजनकारी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया। जबकि सच यह है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र का मुसलमान हिन्दी भाषी है, महाराष्ट्र का मुसलमान मराठी बोलता है, तमिलनाडु का मुसलमान तमिल बोलता है। इस बहकावे से सावधान करते हुए भगत सिंह लिखते हैं- 'पंजाब की भाषा अन्य प्रांतों की तरह पंजाबी ही होनी चाहिए थी। परंतु यहां के मुसलमानों ने उर्दू को अपनाया। मुसलमानों में भारतीयता का सर्वथा अभाव है, इसीलिए वे समस्त भारत में भारतीयता का महत्व न समझकर अरबी लिपि तथा फारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं। समस्त भारत की एक भाषा और वह भी हिंदी होने का महत्व उनकी समझ में नहीं आता। इसीलिए वे तो अपनी उर्दू की रट लगाते रहे और एक ओर बैठ गए।' भगत सिंह वे सारी बातें कह रहे हैं जो कम्युनिस्टों को 'सांप्रदायिक' लगती हैं। आगे की पंक्तियां तो उन्हें विशुद्ध 'हिन्दूवादी' लगें-'उर्दू लिपि तो सर्वांगसंपूर्ण नहीं कहला सकती, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी भाषा पर है। उर्दू कवियों की उड़ान, चाहे वे हिंदी (भारतीय) ही क्यों न हों, ईरान के साकी और अरब के खजूरों को जा पहुंचती है। काजी नजरुल इस्लाम (बंगाल के राष्ट्रवादी कवि) की कविता में धूर्जटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा तो बार-बार है, परंतु हमारे पंजाबी हिंदी-उर्दू कवि उस ओर ध्यान तक भी न दे सके। इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है। उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती। तो फिर उनके रचित साहित्य से हम भारतीय कैसे बन सकते हैं? मात्र उर्दू पढ़ने वाले विद्यार्थी भारत के पुरातन साहित्य का ज्ञान हासिल नहीं कर सकते़.़. हम तो चाहते हैं कि मुसलमान भाई भी अपने मजहब पर पक्के रहते हुए वैसे ही भारतीय बन जाएं जैसे कि कमाल तुर्क थे।' भगत सिंह उन्हीं कमाल तुर्क की बात कर रहे हैं, जिन्हें इस्लाम विरोधी बता कर खिलाफत आंदोलन का बखेड़ा खड़ा किया गया था और मुस्लिम कट्टरपंथ को हवा दी गई थी। ये बातें भगत सिंह के स्थान पर कोई और कहता तो वामपंथी उसे 'संघी', 'फासिस्ट', 'सांप्रदायिक' आदि विशेषण दे डालते। भगत सिंह के ये 'हिंदूवादी' शब्द वामपंथी टोली के किसी नए रंगरूट का उत्साह भंग कर सकते हैं। परंतु और भी गंभीर सवाल शेष हैं। जिस देश की स्वतंत्रता के लिए भगत सिंह 23 वर्ष की आयु में फांसी पर झूल गए उस देश के प्रति वामपंथियों का क्या रवैया रहा है? ये कम्युनिस्ट ही थे जिनकी आस्था भारत के प्रति न होकर कम्युनिस्ट रूस के साथ थी। वे वहीं से प्रेरणा और दिशानिर्देश प्राप्त करते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के समय वे उस पक्ष के साथ थे जो रूस के साथ खड़ा था। इसलिए जब नाजी जर्मनी से निपटने के लिए रूस और ब्रिटेन एक साथ आ गए, तब भारतीय कम्युनिस्ट भी ब्रिटेन समर्थक बन कर भारतीय क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों की गिरफ्तारियां करवाने लगे। उन्होंने देश के विभाजन की मुस्लिम लीग की मांग को पूरा समर्थन दिया। इतना ही नहीं, भारत के कम्युनिस्टों ने भाषा के आधार पर देश के सत्रह टुकड़े करने की मांग उठाई। स्वतंत्रता के बाद जब भारत पर कम्युनिस्ट चीन का हमला हुआ तो भारत के वामपंथी आक्रमणकारी चीन के समर्थन में उतर आए। वामपंथी मजदूर संगठनों ने रक्षा उत्पादन कारखानों में हड़ताल करवाने का प्रयास करके मोर्चे पर लड़ते जवानों की पीठ में छुरा घोंपने का काम किया। इस सवाल का जवाब कोई स्कूली छात्र भी दे सकता है कि ऐसे लोगों के साथ भगत सिंह क्या करते।
भगत सिंह को वामपंथी बताने वाली कोशिशों के बेदम नजर आने का एक कारण भगत सिंह का वामपंथी संगठनों से दूर-दूर तक कोई नाता न होना है। खिलाफत आंदोलन के विफल होने के साथ ही भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा के कदम पड़ गए थे। 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंण्डिया की स्थापना हुई। सीपीआई का दावा है कि 1920 में उनका दल अस्तित्व में आ गया था। संस्थापक सर मानवेंद्र रॉय ने देश के अनेक भागों में कम्युनिस्ट पार्टी की इकाइयों का गठन किया। पंजाब और सिंध में गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला इसका काम देख रहे थे। भगत सिंह ने कभी इनसे जुड़ने का प्रयास नहीं किया। इसके उलट भगत सिंह के मानस पर स्वामी दयानंद सरस्वती, लाला लाजपत राय और तिलक जैसे राष्ट्रवादियों का गहरा प्रभाव था। वामपंथियों द्वारा भगत सिंह को वामपंथी बताए जाने के पीछे उनके द्वारा लिखे गए एक-दो पत्रों का आधार है जिसमें उन्होंने मजदूरों और किसानों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। साथ ही विश्व की महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख करते हुए रूस की क्रांति का भी उल्लेख किया है। लेनिन का भी उल्लेख आया है। वे साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष की बात करते हैं। यहां एक विरोधाभास है।
20वीं शताब्दी सर्वाधिक रक्तरंजित शताब्दी रही है। इस शताब्दी में करोड़ों लोगों ने युद्ध, नस्लीय, भाषाई, मजहबी एवं राजनीतिक नरसंहारों में जान गंवाई। इनमें 7 से 8 करोड़ लोग केवल कम्युनिस्टों के हाथों या उनके कारनामों के कारण मारे गए। इन नरसंहारकर्ताओं में रूसी कम्युनिस्ट क्रांति के मुखिया लेनिन और उसकी बोल्शेविक पार्टी का भी बड़ा हाथ है जिनका भगत सिंह ने जिक्र किया है। सवाल ये उठता है कि ऐसे लोगों से भगत सिंह जैसा भाव-प्रधान इंसान प्रेरणा किस प्रकार ले सका? दरअसल, इसके लिए उन दिनों की परिस्थितियों को समझना आवश्यक है। पर पहले एक नजर उस पर जो उन दिनों हो रहा था। इस पर कार्ल मार्क्स का कहना था कि यूरोप के तेजी से विकसित हो रहे उद्योग जगत के कारण तेजी से आकार में बढ़ रहा मजदूर वर्ग कम्युनिस्ट क्रांति लाएगा। परंतु ऐसा हो न सका। 1871 में फ्रंेको-प्रशियन युद्ध में फ्रांस की हार के कारण उत्पन्न हुई अराजकता के चलते स्थानीय कम्युनिस्ट गुटों ने कुछ समय के लिए पेरिस पर कब्जा कर लिया। पूरे शहर में अराजकता और हिंसा का दौर शुरू हो गया। थोडे़ ही समय में उपद्रवी कम्युनिस्टों का पहला प्रयोग ही तबाही मचा कर समाप्त हो गया और आने वाले समय में (मार्क्स की भविष्यवाणी के उलट) रूस, चीन, कम्बोडिया जैसे उद्योगरहित समाजों में ही फला-फूला। रूस में जब लेनिन के नेतृत्व में कम्युनिस्टों के हाथ में सत्ता आई तो उसके लिए रूस के आंतरिक कारण और प्रथम विश्व युद्ध में रूसी सेना की सिलसिलेवार पराजय का योगदान था।
बहुत छोटी सी तख्ता पलट की घटना, जिसमें बमुश्किल सौ लोगों ने भाग लिया था, से बोल्शेविक सत्ता में जम गए। बाद में बोल्शेविक प्रचार तंत्र ने इस घटना को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हुए झूठा इतिहास गढ़ डाला कि लेनिन के तूफानी भाषणों से प्रभावित होकर हजारों-लाखों रूसियों ने इस क्रांति को अंजाम दिया था। आने वाले 3 वर्ष तक रूस में गृह युद्ध चलता रहा। साम्यवाद का विरोध करने वालों से निपटने के लिए लेनिन ने रेड-आर्मी और कुख्यात एवं क्रूर खूफिया पुलिस 'चेका' का गठन किया। लेनिन ने सभी क्रांति विरोधियों को गोली मार देने के निर्देश जारी किए। दसियों हजार नागरिक यातनाएं देकर मौत के घाट उतार दिए गए।
प्रसिद्ध रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की ने लेनिन के इस आतंकराज का वर्णन करते हुए लिखा है, 'लोगों को बाएं हाथ और बाएं पैर में कीलंे ठोककर पेड़ों पर टांग दिया जाता, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता 'क्रांति-विरोधियों' को पकड़कर उनके पेट में चीरा लगाते, फिर आंत को थोड़ा बाहर निकालकर कीलों से पेड़ में ठोक देते। फिर उस व्यक्ति को घूंसे मार-मार कर पेड़ के चारों तरफ घूमाते ताकि आंतंे पेट में से निकलकर पेड़ के चारों तरफ लिपट जाएं।' लेनिन के बोल्शेविक शासन को मान्यता न देने वाले शहर, कस्बे और गांव जला डाले गए।
रूस में जब कम्युनिज्म आया तब रूसी ग्रामीण पेट भरने लायक अन्न उपजा रहे थे। 1918 में लेनिन ने निजी संपत्ति की समाप्ति की घोषणा कर दी। खुफिया पुलिस 'चेका' के अधिकारी गांव-गांव में जाकर, बंदूक की नोंक पर पशु और अनाज छीन कर लाने लगे। विरोध करने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाता। लाभ की आशा खत्म हो जाने से रूसी किसानों ने केवल अपने खाने लायक अनाज बोया। फलस्वरूप 1920 तक रूस का अन्न उत्पादन 74 मिलियन टन से घटकर 20 मिलियन टन पर आ गया। लेनिन ने इसे किसानों का क्रांति विरोधी षड्यंत्र माना और बहुत सारे इलाकों में किसानों से अन्न का एक-एक दाना छीनकर परिवार सहित भूखों मरने को छोड़ दिया। 5 लाख लोग भूख के कारण मर गए।
इस भयंकर मानव त्रासदी को कम्युनिस्ट क्रांति के लिए शुभ बताते हुए लेनिन ने 19 मार्च, 1922 को पोलित ब्यूरो को लिखा, 'वर्तमान परिस्थिति हमारे लिए लाभप्रद है। जो लोग भूख से मर रहे हैं, जिन्होंने भूख के कारण एक-दूसरे को खाना शुरू कर दिया है, जो लाखों की संख्या में मर रहे हैं, और जिनकी लाशें देशभर में सड़कों के किनारे सड़ रही हैं उनकी मदद से हम चर्च की संपत्ति छीन लेंगे। इस अकाल के कारण लोगों में व्याप्त निराशा हमारी एकमात्र आशा है जिसके कारण वे हमें आशा से देखेंगे।'(रशियन सेंटर फॉर दी कंजरवेशन एंड स्टडी ऑफ हिस्टॉरिक डॉक्यूमेंट, मॉस्को 2/1/22947/1-4) लेनिन की मौत के बाद 1924 में स्टालिन के हाथ सत्ता आई। स्टालिन ने लेनिन को पीछे छोड़ते हुए आतंक के इस साम्राज्य को अभूतपूर्व ऊंचाइयां दीं तथा कम्युनिस्ट क्रांति के नाम पर करोड़ों रूसी श्रमिकों और किसानों को मौत के घाट उतार डाला। आने वाले वषार्ें में यह कहानी चीन सहित दूसरे कई देशों में दुहराई गई।
क्या भगत सिंह इन भयंकर कारनामों और ऐसी पैशाचिक सोच का समर्थन कर सकते थे? क्या निदार्ेष मानवों के रक्त और आंसुओं में डूबी ऐसी शोषक व्यवस्था भगत सिंह का आदर्श हो सकती थी? जिन्होंने भगत सिंह को पढ़ा है, वे जानते हैं कि इस विश्वविख्यात क्रांतिकारी का हृदय वास्तव में कितना कोमल था। उन दिनों रूस और कम्युनिज्म की इन भयानक सच्चाइयों के बारे में दुनिया में कोई नहीं जानता था। लोगों को नहीं पता था कि मजदूरों और किसानों के साथ न्याय और समानता के शब्दों के पीछे लाशें छिपाई जा रही थीं।
लोग नहीं जानते थे कि साइबेरिया के श्रम शिविरों में क्या चल रहा था। उत्साही आदर्शवादी युवकों को वंचितों के साथ न्याय किए जाने के सिद्धांत आकर्षित कर रहे थे परंतु इन शब्दों के आडंबर के पीछे छिपे भयंकर सच कोे दुनिया ने कई दशकों बाद जाना। युवकों में रूस की क्रांति के प्रति सहानुभूति होने का एक और कारण यह भी था कि नई रूसी व्यवस्था ब्रिटेन और यूरोप की दूसरी साम्राज्यवादी व्यवस्थाओं को चुनौती देती प्रतीत होती थी। विडंबना यह है कि आने वाले समय में बोल्शेविक उपरोक्त सारी शक्तियों से कहीं ज्यादा क्रूर और उतने ही साम्राज्यवादी सिद्ध हुए। कम्युनिज्म के झंडाबरदारों द्वारा उद्योग स्तर पर किए जा रहे नरसंहारों और विशाल दमन तंत्र की थर्रा देने वाली सच्चाइयां दशकों तक शेष दुनिया से छुपी रहीं और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही कुछ जानकारियां रिस-रिसकर बाहर आना शुरू हुईं। यह सिलसिला आज तक जारी है।
आज समय बदल गया है। सूचनाओं के इस युग ने बंद दरवाजों को धक्का मारकर गिरा दिया है। अब लेनिन का अनुसरणकर्ता कहकर या बोल्शेविकों का समर्थक कहकर भगत सिंह के नाम पर धब्बा नहीं लगाया जा सकता। फिलहाल वामपंथ के खण्डहरों में बैठे लोग उनसे मीलों आगे समय से कुछ पल चुराने की शतरंजी चालें सोच रहे हैं। वे 'शह' चिल्ला रहे हैं, लेकिन 'मात' का डर उनकी कोशिशों पर हावी है।
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