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मुजफ्फर हुसैन
मानव जाति की असली पहचान तो उसकी धरती और उसका देश है, लेकिन इस यथार्थ को भूला नहीं जा सकता है कि इंसान ने देश से अपनी पहचान को दूसरा क्रम दिया है और जिस धर्म या पंथ का वह अनुयायी है उसे प्राथमिकता मिलती है। धर्म के प्रचार प्रसार में चूंकि भाषाओं की बड़ी भूमिका रही है इसलिए इस बात को भी बार-बार दोहराया जाता है कि कौन सी भाषा अधिक से अधिक प्रचलित है। धर्म, धरती और भाषा मिलकर ही संस्कृति का निर्माण करते हैं। इसलिए जाने-अंजाने में भाषाएं और धरती धर्म से जुड़ जाती हैं। आज की दुनिया में रहने वाले मनुष्यों का जब धार्मिक आधार पर विश्लेषण किया जाता है तब पता लगता है कि विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या ईसाई मतावलम्बियों की है। उसके पश्चात इस्लामी अनुयायियों अर्थात मुसलमानों का नम्बर आता है। एक समय था कि धर्म ही कायदे कानून का स्रोत हुआ करता था। लेकिन जब हमारी दुनिया अन्तरराष्ट्रीयता में विश्वास रने करने लगी तब हर देश की सभ्यता पर भी धर्म पंथ अथवा मजहब की परछाइयांं लम्बी होती दिखलाई देने लगीं। सभ्यता के टकराव में धर्म की भूमिका सबसे अधिक रही है इसलिए भौगोलिक आधार पर जो देश बने वे किसी न किसी धर्मस्थली अथवा पंथ या मजहब के केन्द्र बन गए। हजरत मूसा, ईसा और मोहम्मद ने अरबस्थान की भूमि पर जन्म लिया। इसलिए उनके पैगम्बरों की कर्मस्थली भी उन देशों की सीमाओं में बंध गई। यातायात और संचार के साधनों से दुनिया के अन्य भागों को पता लगने लगा तो उन पर अधिकार जमाने के लिए भी धर्मों का ही उपयोग हुआ। आगे चलकर आस्था के बीच जब संघर्ष होने लगे तो वे सभ्यता के टकराव के केन्द्र बन गए। पश्चिमी दुनिया में यदि इन तीन पंथों का शिकंजा बढ़ता रहा तो एशिया के दक्षिण पूर्वी भागों में हिन्दू और बौद्ध धर्म की विचारधारा ने अपनी पकड़ जमा ली। उनकी संस्कृति चूंकि कृषि पर आधारित थी इसलिए उनमें टकराव नहीं हुए। लेकिन मध्यपूर्व में तो मत-पंथ साम्राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से गए। यद्यपि आज भी वे सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में धर्म के हस्तक्षेप की नीति को स्वीकार नहीं करते। लेकिन भीतर से झांका जाए तो यह पश्चिम का पाखंड ही दिखाई पड़ता है। जबकि ठीक इसके विपरीत बौद्ध, हिन्दू और जैनियों ने अपने साम्राज्य स्थापित किए भी लेकिन अपनी सहअस्तित्व की नीति को अपनाकर उन्होंने उसे सत्ता की साधन प्राप्ति का साधन नहीं बनाया। बल्कि उसे सांस्कृतिक मूल्यों में सजाकर मानवता का चहुमुखी विकास किया। यही कारण है कि पश्चिम के देशों ने जहां भाषा को भी अपनी सत्ता का आधार बनाया वहां संस्कृत विकास करने के लिए जब राजनीतिक दबदबे की आवश्यकता महसूस हुई तो पश्चिमी राष्ट्रों ने भाषा को भी अपना माध्यम बना लिया। जहां भाषा होगी लौटकर उस पर आधारित धर्म भी आ जाएगा। भारत में मुसलमानों ने उर्दू को अपने अस्तित्व का सहारा बना लिया। इसलिए उर्दू समाचार जो लिखते हैं उसे सच मानना ही पड़ता है। एक ऐसा ही कड़वा सच पिछले दिनों उर्दू प्रेस ने दर्शाया है। भारत में मुस्लिम जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। इतना ही नहीं आज के अल्पसंख्यक आने वाले दिनों में बहुसंख्यक बन सकते हैं और बहुसंख्यक अल्पसंख्यक बन जाएं तो आश्चर्य की बात नहीं। मातृभाषा दिवस हमेशा की तरह इस बार भी भारत में मनाया गया। उक्त अवसर पर अनेक ऊर्दू के समाचार पत्रों ने इस बात को प्रकाशित किया है कि भारत में अन्य धर्मावलम्बियों की तुलना में मुसलमानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इस सम्बंध में कुछ उर्दू दैनिकों का विश्लेषण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले दैनिक सियासत और मंुसिफ ने इस गंभीर विषय पर अपनी टिप्पणियां प्रकाशित की हैं।
23 जनवरी का दैनिक सियासत लिखता है कि भारत में मुसलमानों की जनसंख्या में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। साथ ही वह यह भी लिखता है कि इस तुलना में भारत में अन्य समुदाय की जनसंख्या में मात्र 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। यानी 6 प्रतिशत की दर से मुसलमान बढ़े हैं। भारत में सबसे अधिक मुसलमान जम्मू-कश्मीर में हैं, वहां कुल मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 68.3 प्रतिशत है। इसके पश्चात् मुसलमानों की आबादी का सबसे बड़ा प्रतिशत असम में है जिसका अनुपात 34.2 प्रतिशत है। पश्चिम बंगाल तीसरे नम्बर पर है। वहां मुसलमानों की आबादी 27 प्रतिशत है। इस उर्दू दैनिक ने यह भी तथ्य स्वीकारा है कि 1991 से लगाकर 2001 के बीच मुसलमानों की आबादी में बढ़ोत्तरी 29 प्रतिशत हुई है। उसके बाद एक समय ऐसा भी आया जबकि यह वृद्धि घटकर 24 प्रतिशत रह गई। असम में मुस्लिम जनसंख्या बहुतायतना से बढ़ी है। 2001 में असम में मुस्लिम जनसंख्या की बढ़ोत्तरी ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं जो 30.9 से बढ़कर 34.3 तक बढ़ गई। जनसंख्या में इस वृद्धि का कारण असम में बंगलादेशियों की घुसपैठ बतलाई जाती है, लेकिन असम के ही निकट बसे मणिपुर में यह औसत घटा है। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की जो जनसंख्या 2000 में 25.2 प्रतिशत थी वह 2011 में 27 प्रतिशत पर जा पहुंची। इन आंकड़ों को देखकर यह कहा जा सकता है कि अन्य स्थानों की तुलना में असम में मुस्लिम आबादी दो गुनी हो गई। उत्तराखंड में यह जनसंख्या 11.9 से बढ़कर 13.9 पर जा पहुंची। अपने 2 फरवरी के अंक में नई दिल्ली में प्रकाशित साप्ताहिक नई दुनिया ने मुसमलानों में जनसंख्या की बढ़ोत्तरी का सच स्वीकार किया है। पत्र का कहना है कि अपनी गरीबी के कारण मुसलमान परिवार नियोजन को नहीं अपनाता है। मुसलमानों के घरों में एक नए बच्चे के जन्म लेने का अर्थ यह माना जाता है कि उनके यहां एक कमाने वाला और पैदा हो गया है। गांव में आज भी यही सोच है कि जिसके पास अधिक बच्चे होंगे वह अधिक दबंग और हौसलेमंद होगा। पत्र कहता है कि यदि सरकार मुसलमानों में परिवार नियोजन चाहती है तो उसे शिक्षा एवं रोजगार की व्यवस्था अधिक करनी होगी। जिससे पुराने भ्रम टूट जाएंगे। पत्र का मानना है कि गरीबी में अधिक संतानें पैदा होती हैं। अमीर मुसलमानों के यहां बच्चे क्यों कम पैदा होते हैं जब इस पर विचार करेंगे तो तस्वीर सामने आ जाएगी। असम और पश्चिम बंगाल हमेशा से घुसपैठियों की शरणस्थली रहे हैं। इसलिए जब तक अवैध लोग आना बंद नहीं होंगे। मुसलमानों पर से यह आरोप नहीं धुल सकता है। सरकार यदि सीमा पर से घुसपैठ रोक दे तो यह अभिशाप आज समाप्त हो सकता है। हिन्दू परिवारों में शिक्षा तेजी से प्रसारित हो रही है। इसलिए वे इससे दूर हैं। हिन्दुओं के वंचित और पिछड़े वर्गों को आर्थिक सहायता ठीक ढंग से मिलती है। इसलिए वे अपना जीवन स्तर बनाए रखते हैं लेकिन मुसलमान उस अनुपात में प्रोत्साहन न मिलने के कारण तेजी से पिछड़ते जा रहे हैं।
सरकार यदि इस दिशा में सक्रिय हो तो मुसलमान भी हिन्दुओं की तरह प्रगतिशील बन सकते हैं और परिवार नियोजन अपना सकते हैं। साप्ताहिक नई दुनिया का कहना है कि हिन्दू संगठन बारम्बार यह नारा लगाते हैं। यदि मुसलमान इसी प्रकार बढ़ता रहा तो देश में हिन्दू बुरी तरह से अल्पमत में आ जाएगा। इसलिए मुसलमान हमेशा इस मामले में अपमान का शिकार हो जाते हैं। लेकिन दिल्ली से प्रकाशित होने वाले जमाते इस्लामी के पत्र 'दावत' का कहना है कि इस प्र्रकार के समाचार एक षड्यंत्र के तहत प्रकाशत किए जाते हैं। मुसलमानों पर झूठे आरोप लगवाना भारत में बहुसंख्यक जनता और समाचार पत्रों का एक सोचा समझा षड्यंत्र हो गया है। इसलिए मीडिया में इस प्रकार की बेतुकी बातें आना और छपना आए दिन का कार्य हो गया है।
यहां प्रस्तुत किया गया विश्लेषण तो अपने स्थान पर प्रासंगिक है ही लेकिन इस बात को नहीं भुलाया जा सकता है कि परिवार नियोजन से दूरी का प्रमुख कारण शरीयत से भी सम्बंधित है। इस्लामी मौलाना और विद्वानों का यह मत है कि मुसलमान समाज में परिवार नियोजन को मजहब के आधार पर उचित नहीं माना जाता है। उनका यह विश्लेषण है कि किसी जीव को अस्तित्व में आने से रोकना मजहब की कसौटी पर वैध नहीं हो सकता है। सामान्य मुसलमान को कुरान और हदीस के हवाले से बड़ी सरलता से गुमराह किया जा सकता है।
आज तक इस विषय पर मुसलमानों के बीच में इजमा (जनमत संग्रह) नहीं हुआ है, न ही इस पर किसी ने फतवा जारी किया। यदि किसी प्रकार की पांबदी आए तो वह निश्चित ही सामान्य आदमी के गले से उतर सकती है। लेकिन ऐसा प्र्रयोग विश्व में किसी भी मुस्लिम राष्ट्र में नहीं हुआ है। इसलिए मजहब को आगे रखकर अपनी जनसंख्या बढ़ा लेने में वे कोई आपत्ति नहीं समझते। जब पोलियो की डोज के सम्बंध में सरकार मुस्लिम मोहल्लों में सफल नहीं होती है तो फिर परिवार नियोजन के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता। इसलिए अपने वोट बैंक को कौन मूर्ख होगा जो प्रतिबंधित करने का साहस करे? परिवार नियोजन के मामले में सफलता प्राप्त करना है तो अधिक शंकाएं हैं। अत: एव यदि किसी को इस मामले में सफलता प्राप्त करनी है तो अधिक बच्चों के उत्पादन के सम्बंध में जो मजहबी धारणाएं बना ली गई हैं उनको समाप्त करना बहुत अनिवार्य है। ल्ल
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