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बच्चे अंग्रेजी से बचते हैं, मातृभाषा में मचलते हैं, मगर मां-बाप हैं किमानते नहीं। परभाषा की इस ठेलाठाली ने शिक्षा को बोझ बना दिया और सीखने की राह संकरी कर दी। कंधों पर बोझ लिए छोटे-छोटे बच्चे रोज मानो कोई मोर्चा जीतने निकलते हैं। थोपी हुई भाषा और अटपटे परिवेश में जूझते हैं। किन्तु अब शायद यह स्थिति बदले। रा. स्व. संघ की नागपुर में सम्पन्न (13-15 मार्च) प्रतिनिधि सभा ने मातृभाषा में शिक्षा को लेकर एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया है। वैसे भी भारतीय शिक्षाविद् मांग करते रहे हैं कि शिक्षा मातृभाषा में होने से देश की मेधा अपनी पूरी प्रखरता से सामने आएगी।
प्रशांत वाजपेई/ अरुण कुमार सिंह
भारत में कौन सा ऐसा शहर है जहां महात्मा गांधी की प्रतिमा न लगी हो? कौन सा ऐसा विद्यालय है जहां महात्मा गांधी का चित्र न हो अथवा कौन सा ऐसा पाठ्यक्रम है जिसमें कहीं न कहीं उनका उल्लेख न आया हो? प्रतिदिन गांधी की प्रतिमा के सामने से गुजर कर बालक-बालिकाएं शिक्षा के मंदिरांे में पहुंचते हैं, प्राय: प्रार्थना में उनके प्रिय भजन भी दुहराते हैं और अपनी कक्षाओं में चले जाते हैं। परंतु क्या उनकी शिक्षा वैसी ही है, जैसी गांधी जी ने कल्पना की थी? अथवा जैसी शिक्षा के बल पर रवींद्रनाथ ठाकुर ने निर्भय, स्वाभिमानी, उन्नत मस्तक वाली पीढ़ी का सपना देखा था? जिनके नाम पर प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाता है, क्या उन डॉ़ राधाकृष्णन ने इसी ढर्रे के शिक्षातंत्र की प्रेरणा दी थी? हमारे देश की विडंबना है कि हम व्यक्ति को पूजनीय बनाकर उसके विचारों को तिलांजलि दे देते हैं।
गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता सुरेन्द्र कुमार कहते हैं, 'मातृभाषा में शिक्षा देने के सबसे बड़े आग्रही गांधी जी थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश गांधी जी के मार्ग पर चलता तो आज देश की तस्वीर ही अलग होती। युवा पीढ़ी को देश के विकास में अधिक से अधिक भागीदार बनाने के लिए शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जानी चाहिए। जो लोग तर्क देते हैं कि अंग्रेजी के बिना भारत पिछड़ जाएगा, वे गलत सोचते हैं। विश्व के अनेक देशों (जापान, कोरिया, थाईलैण्ड, चीन आदि) ने मातृभाषा के बल पर ही अपनी प्रतिभा का लोहा पूरी दुनिया को मनवाया है।'
सवाल है, मातृभाषा में शिक्षा के हमारे नौनिहालों के अधिकार का। वे स्वयं के लिए ये मांग नहीं उठा सकते। परंतु क्या हम उनके साथ न्याय कर रहे हैं? शुरुआत महात्मा गांधी के विचारों से। शिक्षा तंत्र पर हावी अंग्रेजी से क्षुब्ध होकर वे कहते हैं,'मैं प्रतिदिन लाखों (बच्चों) पर हमारी झूठी अभारतीय शिक्षा के माध्यम से किये जा रहे निरंतर अन्याय के साक्ष्य देख पा रहा हूं। हम मानने लगे हैं कि अंग्रेजी जाने बिना कोई बोस (वैज्ञानिक जे़ सी़ बोस) जैसा बनने की आशा नहीं कर सकता। मैं इससे बड़े अंधविश्वास की कल्पना नहीं कर सकता। कोई जापानी हमारी तरह स्वयं को असहाय महसूस नहीं करता। (जापानी बच्चे अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करते हैं)।'
परिवर्तन को अत्यावश्यक बताते हुए वे कहते हैं, 'शिक्षा का माध्यम एक बार में ही बदल देना चाहिए और किसी भी कीमत पर प्रादेशिक भाषाओं को उनका उचित स्थान दिया जाना चाहिए। मैं प्रतिदिन की जा रही इस आपराधिक बर्बादी की तुलना में उच्च शिक्षा में अस्थाई (कुछ समय की) उथल-पुथल को चुनूंगा।' बच्चों और देश पर पड़ रहे दुष्परिणामों की ओर इंगित करते हुए गांधीजी कहते हैं, 'विदेशी माध्यम से दी जा रही शिक्षा अत्यधिक तनाव पैदा करती है और हमारे बच्चे इसकी बड़ी कीमत चुकाते हैं। प्राय: वे किसी अन्य भार को उठाने की क्षमता को खो देते हैं। वे एक अनुपयोगी भीड़ में बदल जाते हैं, जो शरीर से कमजोर होते हैं, काम के प्रति उत्साह नहीं रहता और होता है मात्र पश्चिम का अंधानुकरण।' आगे वे अन्य व्यावहारिक समस्याओं के बारे में समझाते हुए कहते हैं, 'उनकी मौलिक शोध या गहन चिंतन में कम रुचि होती है तथा साहस, दृढ़ता और निर्भयता जैसे गुणों का अभाव होता है। यही कारण है कि हम (भारतीय) नई योजनाएं बनाने में अक्षम हैं। अपनी कल्पनाओं को साकार करने में हमें कठिनाई होती है।' गांधीजी के उठाए मुद्दे आज भी जस के तस हैं।
कुछ ही दिन पूर्व आईआईटी, मुंबई के कम्प्यूटर विज्ञान विभाग के श्रीधर अय्यर और योगेंद्र पाल ने इस आवाज को नया स्वर दिया है। अपने शोध-पत्र में उन्होंने कहा है कि हिंदी अथवा अपनी मातृभाषा में पढ़ने से छात्रों की योग्यता पांच गुना तक बढ़ जाती है। 'कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग' क्षमता से संबंधित इस शोध में यह सिद्ध हुआ कि जब छात्रों ने हिंदी में 'प्रोग्रामिंग' की तो उन्हें लगातार नए-नए विचार आ रहे थे और उन्होंने पांच गुना अधिक क्षमता का प्रदर्शन किया। इसके विपरीत जब वे अंग्रेजी में 'प्रोग्रामिंग' कर रहे थे तो वे कोई नया विचार नहीं कर पा रहे थे। वे केवल पहले से बताए तथ्यों पर ही काम कर रहे थे। सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी की कार्यकारी निदेशिका कोरिना चांग ने एक शोध का हवाला देते हुए कहा कि स्कूल स्तर पर हिंदी और तमिल विषय लेने वालों का उच्च शिक्षा में प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर देखा गया है। उन्होंने कहा, 'हमने उच्च शिक्षा में हिंदी को बढ़ाने का प्रस्ताव भी दिया है।' इसी प्रकार भारतीय भाषा रिसर्च संस्था, वडोदरा के प्रमुख एवं भाषाविद् श्री गणेश सेवी का वक्तव्य है, 'हमने कई बार देखा है कि यदि शोध मातृभाषा में किए जाते हैं तो उनकी गुणवत्ता बेहतर होती है, जबकि अंग्रेजी में यह औसत ही रहती है। यही कारण है कि रूस, जापान, फ्रांस आदि में शोध अपनी भाषाओं में ही होते हैं।'
सारी दुनिया में, फिलीपींस से लेकर स्वीडन तक और दक्षिण अफ्रीका से लेकर हांग-कांग तक, बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने की मांग जोर पकड़ रही है। यूनाईटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन (यूनेस्को) द्वारा सारी दुनिया में 'मातृभाषा में शिक्षा' विषय पर प्रकाशित ऑल ग्लोबल मॉनीटरिंग रिपोर्ट, 2005 कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डालती है। पहले पैरा में ही रिपोर्ट कहती है कि विदेशी भाषा में शिक्षा देना बच्चों को तैरना सिखाने के नाम पर पानी में उनका सिर जबरदस्ती डुबाए रखने जैसा है। इससे गंभीर समस्याएं पैदा होती हैं जिससे पढ़ना-पढ़ाना अत्यधिक कठिन हो जाता है।़.़ अपनी ही भाषा में पढ़ाए जाने से छात्र भाषाई अभिव्यक्तियों के मनोविज्ञान को समझ पाते हैं। स्वयं को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर पाते हैं। जबकि विदेशी माध्यम में पढ़ते हुए उन्हें पढ़ाई गई बातों का शाब्दिक अर्थ समझने में ही सालों लग जाते हैं। रिपोर्ट आगे कहती है कि अपनी भाषा में पढ़ने पर छात्र बेहतर अभिव्यक्ति तो करते ही हैं, साथ ही शिक्षक को पता लग जाता है कि क्या सीख लिया गया है और क्या सिखाया जाना है तथा किन छात्रों को सहायता की आवश्यकता है। इसके विपरीत पराई भाषा में विषय की पढ़ाई और भाषा की कठिनाई मिलकर शिक्षक और छात्र दोनों के लिए समस्या खड़ी करते हैं। छात्र विषय को समझने के स्थान पर भाषा से कुश्ती लड़ता रहता है। शिक्षक को भी समझ नहीं आता कि छात्र को विषय समझ नहीं आ रहा था, भाषा समझ नहीं आ रही थी या उसके पढ़ाने के तरीके में ही खोट है। उक्त रिपोर्ट दुनिया भर के ऐसे देशों के शिक्षा तंत्र पर प्रकाश डालती है जो कभी न कभी यूरोपीय देशों के गुलाम रहे हैं। इसी प्रकार कनाडा की सेंट थॉमस यूनिवर्सिटी और दि असेंबली ऑफ फर्स्ट नेशन्स ने 'मातृभाषा में शिक्षा-स्थानीय भाषाओं को बचाने का एकमात्र रास्ता' विषय पर विचार गोष्ठी (3-6 अक्तूबर, 2005) का आयोजन करवाया, जिसमें वक्ताओं ने विदेशी भाषा में शिक्षा को बच्चों के मानवाधिकर का हनन और भाषाई नरसंहार की संज्ञा दी है। भाषाविदों एवं शिक्षाविदों ने चेतावनी दी कि इस उपनिवेशवादी शिक्षा के कारण इक्कीसवीं सदी के अंत तक विश्व की 95 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी।
कुछ ऐसा ही विचार गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ. प्रणवा पण्ड़्या का है। वे कहते हैं, 'भारत में 1947 में ही शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाया जाना चाहिए था। हमारे यहां अंग्रेजी की अंधी नकल हो रही है। आज हमने दुनिया में जो स्थान बनाया है वह अंग्रेेजी के कारण नहीं, बल्कि अपनी प्रतिभा के कारण बनाया है। भारत की प्रतिभा प्राचीनकाल से ही विख्यात रही है। मातृभाषा का स्थान और कोई भाषा नहीं ले सकती है।'
मातृभाषा में शिक्षा को लेकर दुनिया भर में जागृति आ रही है। गौर करने योग्य बात है कि कनाडा, जो स्वयं एक अंगे्रजीभाषी देश है, में दुनिया के बच्चों पर अंगे्रजी अथवा दूसरी यूरोपीय भाषाएं थोपने के दुष्परिणामों पर शोध हो रहा है। स्वीडन, दक्षिण अफ्रीका जैसे दर्जनों देशों में इस पर चर्चा चल रही है। शिक्षा ब्यूरो, हांग-कांग की वेबसाइट पर उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों के लिए दिशानिर्देश जारी किए गए हैं, शीर्षक है-हमें मातृभाषा में शिक्षा क्यों देनी चाहिए? आगे इसकी बिंदुवार व्याख्या करते हुए कहा गया है कि हांग-कांग समेत दुनियाभर में हुए शैक्षिक अनुसंधान बताते हैं कि बच्चे अपनी मातृभाषा में बेहतर ढंग से सीखते हैं। इसका बच्चों पर बहुत खराब असर पड़ता है। मातृभाषा में सीखने वाले बच्चे अंगे्रजी माध्यम के बच्चों की तुलना में अच्छा प्रदर्शन करते हैं। भारत में अंगे्रजी समर्थक वर्ग कहता है कि आज चीन भी हमारी तरह अंग्रेजी सीखने पर जोर दे रहा है। यह अर्धसत्य है। वास्तव में चीन ने अपने वैश्विक संपर्क बढ़ाने के लिए अपने छात्रों को अनेक विदेशी भाषाएं सिखाने के लिए बजट आवंटित किए हैं, परंतु वे अपनी इस मूल शैक्षिक अवधारणा से रंच मात्र भी नहीं हिले हैं कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए और ऐसा न करना बच्चों के प्रति मानसिक क्रूरता करने जैसा है। वहां पर सरकार विद्यालयों में चीनी बोली को प्रोत्साहन देती है और 'मिक्स्ड कोड' अर्थात् चीनी-अंगे्रजी मिश्रित शिक्षा को हतोत्साहित करती है।
कनाडा की शिक्षाविद् जेसिका बाल विश्व प्रसिद्ध शिक्षाविद हैं। वे बाल शिक्षा विशेषज्ञ हैं और इस विषय पर उनके 100 से अधिक लेख, शोध पत्र और पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। 21 फरवरी, 2014 को उन्होने एक लेख लिखा था-'चिल्ड्रन लर्न बेटर इन देयर मदर टंग'। इस लेख में यूनेस्को की 2008 की रिपोर्ट का हवाला देते हुए जेसिका ने लिखा, 'अनुसंधान बता रहे हैं कि शिक्षा के प्रसार और विषय की समझ बढ़ाने के लिए मातृभाषा सवार्ेत्कृष्ट है। अपने अनुभवों के आधार पर वे कहती हैं कि ज्यादातर बच्चे विदेशी भाषा के कारण पढ़़ाई छोड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, इसके दूसरे नकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहे हैं, जैसे कि बच्चे भाषा ज्ञान में अपने अभिभावकों से पिछड़ रहे हैं। वे अपने समाज से कट रहे हैं और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूर जा रहे हैं। वे आगे कहती हैं-'यदि बच्चे अपनी मातृभाषा को लगातार विकसित करते जाएं जबकि विद्यालय में द्वितीयक भाषा सीखते जाएं तो ऐसा (नुकसान) नहीं होता। उपरोक्त शिक्षा के कारण बच्चे अपने माता-पिता, दादा-दादी इत्यादि से रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों के अलावा और कोई संवाद करने में असमर्थ हो जाते हैं। परिणामरूप विश्व के भाषायी प्रवाह, संवाद और इसके माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी जाने वाले सांस्कृतिक ज्ञान का तेजी से हृास हो रहा है। यूनेस्को ने प्रारंभ (1953) से ही मातृभाषा में शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। शोध बता रहे हैं कि मातृभाषा में शिक्षा आधारित द्विभाषाई मॉडल सारी दुनिया में सफल रहे हैं।'
बहुभाषी होना आज के युग में एक विशेष योग्यता है। अंग्रेजी समेत अन्य दूसरी भाषाएं सीखना बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। लेकिन इसकी क्या आवश्यकता है कि अंगे्रजी सिखाने के लिए हम अपने बच्चों को गणित, विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि सारे विषय अंग्रेजी में पढ़ाएं? और उन्हें विषय को समझने के स्थान पर रटने के लिए प्रेरित करें? क्या हमारी शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नयी पीढ़ी को अंग्रेजीभाषी बनाना रह गया है? ऐसा होना तो नहीं चाहिए। लेकिन यदि ऐसा है भी तो नई शोध के परिणाम आपको चौंका सकते हैं, जो ये बताते हैं कि जो बच्चा अपनी मातृभाषा अच्छी तरह सीखता है, वह अन्य भाषाएं भी अच्छी तरह ग्रहण कर लेता है। अपनी भाषा के विकास से अन्य भाषाओं के अध्ययन में सहायता ही मिलती है। 2004 में प्रकाशित 'दि पावर ऑफ रीडिंग : इन्साइट फ्राम दी रिसर्च' में स्टीफन डी़ क्रेशन उपरोक्त तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि अध्ययन का कौशल एक भाषा से दूसरी भाषा में स्थानांतरित होता है। अपनी भाषा में पढ़कर विश्व के बारे में जो ज्ञान मिलता है उससे अन्य भाषाओं में किया जाने वाला अध्ययन भी सहज हो जाता है। साथ ही अध्ययन में मिलने वाला आनंद भी दूसरी भाषा तक स्थानांतरित हो जाता है। संक्षेप में कहें तो मातृभाषा में दी गई शिक्षा बच्चे की अंगे्रजी समेत दूसरी भाषाएं सीखने की क्षमता बढ़ाएगी ही। इसके लिए गणित, विज्ञान आदि की बलि चढ़ाने की आवश्यकता नहीं है।
इस विचार से लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में पुराण और इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. इच्छाराम द्विवेदी सहमत हैं। उनका कहना है, 'यदि हम मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाते हैं तो उससे दो वस्तुएं बड़ी तीव्रता से हमसे जुड़ती हैं। एक, छात्र से बिना अतिरिक्त परिश्रम कराए उसे हम नई तकनीक की जानकारी दे सकते हैं। दूसरी, हम देश के प्रत्येक क्षेत्र की सभ्यता, संस्कृति, आहार-विहार और मर्मस्पर्शी लोक साहित्य को आसानी से नई पीढ़ी तक पहंुचा सकते हैं। कम आयु में ही बालक को प्राविधिक और व्यावहारिक ज्ञान उपलब्ध होने पर उसकी कल्पना और उत्पादन क्षमता में तीव्र विकास होता है। वह राष्ट्र, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय अस्मिता के क्षेत्र में समर्थ होकर प्रवेश करता है।'
इस विषय को लेकर हमारे देश में अनेक भ्रम व्याप्त हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय भाषाओं में विज्ञान की पढ़ाई उतने अच्छे से नहीं हो सकती। अगर ये सच होता तो डॉ. अब्दुल कलाम कभी महान वैज्ञानिक न बन पाते। यदि विज्ञान का ठेका अकेले अंगे्रजी के पास होता तो रूस की शस्त्र तकनीक, जापान के रोबोटिक्स और कोरिया के हार्डवेयर का कोई अता-पता न होता। न ही हिब्रू और मंदारिन जैसी प्राचीन भाषाओं में अपने छात्रों को अध्ययन करवाने वाले क्रमश: इस्रायल और चीन के युवा एवं वैज्ञानिक कम्प्यूटर और विज्ञान के क्षेत्र में अपने झण्डे गाड़ रहे होते। अंगे्रजी में अध्ययन को भारत की आर्थिक उन्नति से जोड़ने जैसी हास्यास्पद बातें भी सुनने मंे आती हैं, परंतु अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा और जीडीपी में क्या संबंध है, ऐसा कोई शोध कभी देखने में नहीं आया। हां, इससे अंगे्रजीभाषी होने न होने अथवा अंगे्रजों जैसी अंग्रेजी बोल पाने या न बोल पाने पर आधारित नई अपमानजनक वर्ग व्यवस्था जरूर फली-फूली है, जिसमें धोती-कुर्ता, आंचलिक बोली, परंपरागत व्यवसाय आदि पिछड़ेपन के प्रतीक और हास्य के विषय बना दिए गए हैं।
विश्व नागरी विज्ञान संस्थान के महासचिव और निदेशक डॉ. कृष्ण कुमार गोस्वामी इस मानसिकता का कड़ा विरोध करते हैं। वे कहते हैं, 'मातृभाषा पालने और सामाजीकरण की भाषा है। मातृभाषा के माध्यम से पढ़ने वाला बच्चा अभिव्यक्ति कौशल का धनी होता है और वह अपने समाज के साथ आसानी से जुड़ जाता है। वह अपनी बात को सही रूप से रख सकता है। हम घर में जिस बच्चे के साथ मातृभाषा में बोलते हैं उसको अन्य भाषा के माध्यम से शिक्षा दिलाकर अन्याय करते हैं। उसका स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है।'
अंग्रेजी के बोलबाले का प्रभाव हमारे समाज के अन्य क्षेत्रों में भी पड़ा है। रूस, जापान, यूरोपीय देश, अमरीका और कनाडा आदि का साहित्य, उनकी फिल्में, वैज्ञानिक परिकल्पनाओं से अटी पड़ी हैं। उनकी अपनी भाषा में पढ़ाया गया विज्ञान उनके समाज में गहरे तक प्रवेश कर गया है। भारत में ऐसा नहीं हो सका। यहां विज्ञान और समाज के बीच में अंगे्रजी की दीवार खड़ी है। पश्चिमी देशों का वैज्ञानिक अपने समाज से सीधा जुड़ा है। वह अपने पाठकों के लिए सीधे लिखता है। अपनी भाषा में उनसे संवाद करता है। इसलिए स्टीफन हॉकिंग को दुनिया जानती है। ऐसे प्रकाशन 'जनरल साइंस' के नाम से प्रसिद्ध हैं। हमारे पास ऐसे प्रकाशन नगण्य हैं। किसी रूसी, जापानी, फ्रांसीसी या ब्रिटिश व्यक्ति की तुलना में एक आम भारतीय की अर्थव्यवस्था के मामले में समझ बहुत पीछे है क्योंकि आर्थिक चर्चाएं आम भारतीय की बोलचाल की भाषा में नहीं होतीं। इसीलिए हमारा वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री समाज से अलग-थलग खड़ा है। नुकसान दोनों पक्षों को होता है। ऐसा भी कहा जाता है कि अंगेे्रजी में पढ़ने वाले पाठक या विद्यार्थी के लिए पुस्तकों और अन्य साहित्य के ज्यादा विकल्प मौजूद रहते हैं, यह बात सही है। लेकिन सवाल यह है कि उस साहित्य तक पहुंचने के लिए इस तंत्र के माध्यम से कितने लोग तैयार हो पाते हैं? किसी माली के बगीचे में दो-चार फूल बहुत अच्छे खिलें, शेष सैकड़ों-हजारों पेड़ मुरझाए रहें तो क्या हम उसे अच्छा माली कहेंगे? दूसरा, भारतीय भाषाओं में सब प्रकार से जानकारी विपुलता से उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी किसकी है? ये भाषा का दोष तो नहीं है। हिन्दी में उपलब्ध पाठ्य पुस्तकें भी बहुधा अंग्रेजी पुस्तकों का शब्दश: अनुवाद होती हैं जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है। 'होल्ड योर टंग' का शब्दार्थ 'जीभ को पकड़ो' होगा। ऐसा मजाक हिंदी माध्यम के छात्रों के साथ होता रहता है।
स्वभाषा के प्रयोग से देश के आर्थिक विकास पर क्या फर्क पड़ता है, इसके लिए एक मजेदार तथ्य देखा जा सकता है। प्रति व्यक्ति आय में विश्व के सर्वप्रथम 20-25 देशों की सूची बनाते हैं, जैसे स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी, डेनमार्क, जापान, संयुक्त राज्य अमरीका, फिनलैंड, नीदरलैंड, ऑस्ट्रिया, फ्रांस, बेल्जियम, ब्रिटेन, इटली, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण कोरिया आदि। इन सभी देशों में एक समानता है। ये सब अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा देते हैं। सार्वजनिक जीवन में भी उसी का प्रयोग करते हैं। अब विश्व के सबसे गरीब देशों की सूची बनाते हैं-जैसे कांगो, बुरुंडी, नाइजर, चाड, मोज़ाम्बीक, माली, मैडागास्कर, तंजानिया, नाइजीरिया, अंगोला, टोगो, युगांडा आदि। इन सभी देशों में भी एक समानता है कि ये सभी अपनी मूल भाषाएं छोड़कर अपने पूर्व उपनिवेशीय यूरोपीय मालिकों की भाषाओं को मान्यता देते हैं। कांगो, बुरुंडी, नाइजर, मैडागास्कर, टोगो इत्यादि में फ्रेंच चलती है। मोज़ाम्बीक में पुर्तगाली जबकि नाइजीरिया और युगांडा में अंग्रेजी चलती है।
अंग्रेजी और विश्व व्यापार का संबंध भी जोड़ा जाता है। यह तर्क अगर सही होता तो अपनी भाषाओं में प्राथमिक तथा उच्च शिक्षा देने वाले जापान, चीन, ताईवान, दक्षिण कोरिया जैसे देश कहीं न खड़े होते। न ही होंडा, टोयोटा, सोनी और सैमसंग जैसी कंपनियों के हमने नाम ही सुने होते। क्या हमने कभी सोचा है कि इस भाषायी अत्याचार के कारण कितना बड़ा सामाजिक, आर्थिक भेद-भाव पैदा होता है? जापान या चीन के किसी गांव का छात्र एक बड़ा चिकित्सक बनने का सपना देख सकता है। क्या हम भारत के संबंध में ऐसा कह सकते हैं? सॉफ्टवेयर क्षेत्र में भारत की उपलब्धि को अंगे्रजी शिक्षा से जोड़कर देखने का चलन है। इस बात में यदि दम होता तो हिब्रू पढ़कर जवान हुए इस्रायल के सॉफ्टवेयर इंजीनियर दुनिया में धूम न मचा रहे होते। आंकड़े शायद आपकी सोच बदल दें। विश्व में सर्वाधिक इंजीनियर पैदा करने वाले भारत की आबादी इस्रायल से 156 गुना अधिक है लेकिन सॉफ्टवेयर के विश्व व्यापार में भारत इस्रायल से सिर्फ 3 गुना ही अधिक है। हो सकता है कि हम इनमें से अनेक बातें जानते हों। परंतु सवाल यही खड़ा होता है, कि आखिर करें क्या ?
यह कोई दिन दो दिन में हल होने वाला अथवा कुछ एक लोगों के प्रयास से सुलझने वाला प्रश्न नहीं है। समाज, सरकार, शिक्षक, छात्र, अभिभावक सब इस श्रृंखला में शामिल हैं। सरकार और व्यक्ति दोनांे के लिए प्रचलित मान्यताओं से इतर जाना कठिन होता है। अभिभावक के रूप में निर्णय लेने वाले व्यक्ति के लिए विकल्पों की उपलब्धता का भी प्रश्न होता है, परंतु बदलाव मुक्त चिंतन से ही प्रारंभ होता है। बड़े सफर की शुरुआत छोटे कदम से ही होती है। हमें साहस दिखाना ही होगा। कुछ हौसले भरे पग भरने ही होंगे।
राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व कुलपति डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी कहते हैं, 'बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा नहीं देने से उन्हें अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। बच्चों को अन्य भाषाएं अवश्य सीखानी चाहिए, लेकिन सभी पुस्तकें उनकी मातृभाषा में ही होनी चाहिए। मातृभाषा में पढ़ने से नए मौलिक चिन्तक सामने आएंगे। आज भारत में मौलिक चिन्तकों का अभाव है, उसका एक मात्र कारण है पराई भाषा में शिक्षा देना। विदेशी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने से देश में नकली सोच विकसित हो रही है। हमें अमरीका या किसी और देश की नकल नहीं करनी चाहिए।'
भारतीय मन से उपनिवेशवादी मानसिकता को उखाड़ फेंकना जरूरी है। विदेशी भाषा की गुलामी से मुक्ति उसका एक महत्वपूर्ण चरण है। भारत की प्रतिभा को भाषायी गुलामी से मुक्त करना आवश्यक है। विडंबना है कि हमारे देश में गांधी जी के नाम पर सड़कें हैं, गांधी चौराहों पर हैं, भवनों की पट्टिकाओं पर हैं, मुद्रा पर हैं, जुबान पर हैं। बस विचार और व्यवहार में नहीं हैं। पर हम प्रयास करें तो गांधी जी के ये शब्द् समझ सकते हैं – 'केवल हम अंगे्रजी शिक्षित लोग ही यह समझने में असमर्थ हैं कि इसके कारण (अंग्रेजियत) कितना बड़ा नुकसान हुआ है। इस भारी हानि का हम अंदाजा लगा सकते थे, यदि हम समझ पाते कि हम अपने जनसामान्य को कितना कम स्पर्श कर पाये हैं।'
केवल हम अंगे्रजी शिक्षित लोग ही यह समझने में असमर्थ हैं कि इसके कारण (अंग्रेजियत) कितना बड़ा नुकसान हुआ है। इस भारी हानि का हम अंदाजा लगा सकते थे, यदि हम समझ पाते कि हम अपने जनसामान्य को कितना कम स्पर्श कर पाये हैं। -महात्मा गांधी
मातृभाषा में शिक्षा की धारा प्रशस्त न हो तो इस क्रियाहीन देश के मरुवासी मन का क्या होगा?
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हमारे यहां अंग्रेजी की अंधी नकल हो रही है। आज हमने दुनिया में जो स्थान बनाया है वह अंग्रेेजी के कारण नहीं, बल्कि अपनी प्रतिभा के कारण बनाया है।
-डॉ.प्रणव पण्ड्या
इन तथ्यों पर गौर करें
अंग्रेजी और विश्व व्यापार का संबंध जोड़ा जाता है। यह तर्क अगर सही होता तो अपनी भाषाओं में प्राथमिक तथा उच्च शिक्षा देने वाले जापान, चीन, ताईवान, दक्षिण कोरिया जैसे देश कहीं न खड़े होते। न ही होंडा, टोयोटा, सोनी और सैमसंग जैसी कंपनियों के हमने नाम ही
मातृभाषा में दी गई शिक्षा बच्चे की अंगे्रजी समेत दूसरी भाषाएं सीखने की क्षमता बढ़ाएगी ही। इसके लिए गणित, विज्ञान आदि की बलि चढ़ाने की आवश्यकता नहीं है।
विश्व में सर्वाधिक इंजीनियर पैदा करने वाले भारत की आबादी इस्रायल से 156 गुना अधिक है लेकिन सॉफ्टवेयर के विश्व व्यापार में भारत इस्रायल से सिर्फ 3 गुना ही अधिक है। सुने होते।
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