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1925….पराधीन भारत माता को गुलामी की बेडि़यों से मुक्त कराने को उद्वेलित भारत का नागपुर शहर। शहर में घनी बस्ती के बीच मोहिते का बाड़ा। एक विस्तृत, मिट्टी के टीलों से पटा उपेक्षित मैदान। 'महल' के पास शिर्के गली में एक दुतल्ला मकान। सामने के कमरे में छत्रपति शिवाजी का प्रेरक चित्र। घर में अत्यंत सादा-सहज वातावरण। पंत परिवार के पुत्र केशव बलिराम से मिलने के लिए विद्वतजन का तांता लगा रहता था। सबकी चिंता एक, उत्कंठा एक-भारत को अंग्रेजों के शासन से मुक्त कराना।
डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार बालपन से ही स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ होम करने को लालायित रहते थे। 'स्वतंत्रता से कम कुछ भी स्वीकार नहीं' की सिंह-गर्जना करने वाले डॉ. हेडगेवार बाकी स्वतंत्रता सेनानियों से कुछ अलग थे। जहां एक ओर उस दौर के क्रांतिकारी, स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेता सिर्फ भारत की आजादी को लेकर संघर्षरत थे, वहीं डॉक्टर साहब स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय सहभागिता के साथ ही, दिन-रात अनेक प्रश्नों के समाधान खोजने में जुटे थे। जैसे, आखिर आज हम गुलाम बने तो क्यों? हम पर बाहर से आए मुगलों और अंग्रेजों ने अपना राज कायम किया तो क्यों? हिन्दू समाज में यह दीनता क्यों? वह इतना निस्तेज क्यों? वह अपने गौरवपूर्ण इतिहास के प्रति इतना उदासीन क्यों? उसमें अपने ओजस्वी-तेजस्वी ऋषि-मुनियों, संतों के प्रति अनासक्त भाव क्यों? राष्ट्र की महान विभूतियों के लिए श्रद्धा की कमी क्यों? अपने राष्ट्र की अति प्राचीन संस्कृति, समृद्ध परंपरा की अनदेखी क्यों? अपने स्व की विस्मृति क्यों? अपने मूल स्वभाव का विस्मरण क्यों? संगठित समाज के बजाय वर्गों-खण्डों में बंटे जन-समूह क्यों? भाई-बंधुत्व के भाव की जगह आपस में वितृष्णा क्यों?
ऐसे अनेक प्रश्न दिन-रात डॉक्टर साहब के हृदय को मथते रहते। उस कालखण्ड के विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक नेताओं से इन प्रश्नों पर गहन विचार किया, लेकिन ठोस समाधान नहीं मिला। आखिर में विप्लवियों की भूमि कलकत्ता से डॉक्टरी की पढ़ाई करके नागपुर लौटे डॉक्टर साहब ने निष्कर्ष निकाला कि देश यानी समाज और समाज यानी उसका सबसे महत्वपूर्ण घटक यानी व्यक्ति। तो व्यक्ति का संस्कार ही समाज और फिर देश को उसके असली स्वरूप का न केवल भान कराएगा बल्कि धर्म और संस्कृति के पथ पर चलते हुए वैभवशाली और स्वाभिमानी भी बनाएगा। ऐसे जाग्रत राष्ट्र पर कोई आततायी या विधर्मी राज नहीं कर पाएगा।
दिशा की ठीक-ठीक पहचान और पथ के स्पष्ट निर्धारण के बाद नींव पड़ी विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की। 1925 की विजयादशमी के दिन कुछ राष्ट्रभक्तों को साथ लेकर संघ की आधारशिला पड़ी । धीरे-धीरे वह विचार देशभक्ति से सिंचित-संस्कारित होते-होते पूरे नागपुर और फिर आस-पास के क्षेत्रों में शाखा के रूप में बढ़ता गया।
शाखा यानी व्यक्ति निर्माण की व्यावहारिक कार्यशाला, जहां न कोई छोटा होता है न कोई बड़ा, न धनी-न निर्धन, न ऊंचा-न नीचा। सब समरस, सब एकाकार। संघ का सर्वोच्च संस्कार। हिन्दू समाज को संगठित करने हेतु डॉक्टर साहब द्वारा आरम्भ किया गया वह मिशन सिर्फ भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में ही नहीं जुटा अपितु उसके बाद से भारत को उसके उसी गौरवमय पद पर ले जाने को सतत् सन्नद्ध है। डॉ. हेडगेवार-मंत्र से अभिमंत्रित और ऐसे संस्कारों से संस्कारित स्वयंसेवक आज समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी विशिष्ट छवि अंकित कर चुके हैं। देश को आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से उन्नत बनाने के साथ ही समाज के हर वर्ग के उत्थान में जुटे हैं। स्वामी विवेकानंद के उद्घोष, नर सेवा-नारायण सेवा को जीवन में उतारकर मानव मात्र के हर प्रकार के योगक्षेम् की चिंता कर रहे हैं। आज भारत ही नहीं, अन्य अनेक देशों में संघ का विस्तार हो चुका है। कार्यकर्ताओं ने वहां-वहां बसे हिन्दू समाज को संगठित करके उस धरा की संपन्नता के लिए पूरे मनोयोग से जुटने वाला एक विशिष्ट वर्ग तैयार किया है और इस बात पर वहां का शासन गौरव करता है। प्राकृतिक आपदा हो या अन्य कोई संकटकाल, स्वयंसेवकों ने हर प्रकार के भेद से परे, देश और देशवासियों के हित को सर्वोच्च माना है। जात-पात, मत-पंथ, गरीब-अमीर जैसे विषमतावाची शब्द संघ के शब्दकोष में कहीं हैं ही नहीं।
डॉक्टर हेडगेवार ने मात्र 51 वर्ष की आयु में इतना बड़ा और इतना विशिष्ट कार्य खड़ा कर दिखाया कि जिसकी कल्पना उस जमाने का बड़े से बड़ा नेता तक नहीं कर सकता था। गांधी जी से लेकर सुभाष बोस तक, कांग्रेस के बड़े नेता भी डॉक्टर साहब के प्रखर विचारों से अभिभूत थे, उनसे मिलने को आतुर रहते थे। गांधी जी स्वयं संघ शिक्षा वर्ग देखने आए थे। इस बार वर्ष प्रतिपदा का उत्सव कुछ विशेष है। इसलिए क्योंकि यह उन्हीं तेजपुंज डॉक्टर हेडगेवार की 125वीं जयंती का वर्ष है। संगठित और समरस समाज के माध्यम से राष्ट्र को सबसे आगे ले जाने का जो स्वप्न डॉ. साहब ने देखा था आज उनके द्वारा खड़े किए गए रा. स्व. संघ के स्वयंसेवक उसे पूरा करने को कटिबद्ध हैं।
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