महिला दिवस विमर्श – मनहूस घोर घुटन

Published by
Archive Manager

दिंनाक: 09 Mar 2015 12:40:14

बुर्का, हिजाब, नकाब ये सारे अरबी मूल के शब्द हैं़ ये 1400 वर्ष पुरानी इस्लामी परंपरा है। इन्हीं का समानार्थक एक और शब्द पर्दा है। यह फारसी मूल का शब्द है और शब्दकोष में इसके अर्थ आड़, ओट, लज्जा, लाज, शर्म, संकोच, झिझक, हिचकिचाहट आदि हैं। सुनने में इन शब्दों से सामान्य लाज का भाव उभरता है मगर इन शब्दों के सही अर्थ समझने हों तो स्वयं को पूरे कद की एक बोरी में बंद कर लीजिये। इस बोरी के सर पर इस तरह गांठ लगी हुई होनी चाहिये कि गर्दन मोड़ना भी संभव न हो। कहीं दाएं-बाएं देखना हो तो गर्दन मोड़ने की जगह पूरा घूमना पड़े। केवल आंखों का हिस्सा खुला होना चाहिये बल्कि आँखों के आगे भी जाली लगी हो तो सबसे अच्छा रहेगा। बाहर की हवा आने-जाने का कोई रास्ता नहीं होना चाहिए बल्कि अपनी अंदर की हवा के भी बाहर आने-जाने का रास्ता नहीं होना चाहिए।

बिलकुल ऋतिक रौशन की फिल्म 'कोई मिल गया' के अंतरिक्ष से उतरे, बोरी में बंद प्राणी 'जादू' की तरह। फिर भर्रायी हुई आवाज में 'जादू' की तरह धूप-धूप पुकारिये। जब ऐसा कर चुकें तो धूप-धूप बोलना भी बंद कर दीजिये और केवल तरसी हुई निगाहों से जाली के पार की दुनिया को देखिये। हो गए न रोंगटे खड़े? सोचने भर से आप को सन्नाटा आ गया। अब उन औरतों की कल्पना कीजिये जिन्हें 10-12 बरस की आयु से इस घनघोर घुटन में फेंक दिया जाता है। इसका तर्क ये दिया जाता है कि किसी लड़की या औरत को देख कर पुरुष में कुत्सित भाव जागृत हो सकता है। काम भाव केवल स्त्री को देख कर पुरुष के मन में ही जागृत होता है ? अगर ऐसा है तो अभियुक्त पुरुष पर कार्यवाही की जानी चाहिये। ये तो अभियुक्त को सजा देने की जगह पीडि़त की दुर्गति करना है। फिर काम का भाव सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है। ये पुरुष को देख कर स्त्री के मन में भी जागृत हो सकता है। तो क्या पुरुष भी बुर्का, हिजाब, नकाब, पर्दा करें ?
कुछ ऐसे मदरसे भी मिल जाएंगे जहां का वातावरण देखेंगे तो पाएंगे कि वहां तो पुरुष को देख कर पुरुष के मन में जागृत होने का विचार भी चलता है। पाकिस्तान के कराची के मदरसे में एक बार आग लग गयी थी जिसमें किशोर आयु के बच्चे जल कर मर गए। कारण ये था कि उनको वरिष्ठ छात्रों से बचाव के लिए ताला-बंद करके रखा जाता था।
चिडि़याघर में भी जानवर पिंजरों में रखे जाते हैं मगर ऐसी मनहूस घोर-घुटन उनके नसीब में भी नहीं होती। फिर ये भी है कि उन जानवरों को उनके साथी जानवरों ने इस घुटन पर मजबूर नहीं किया। उस मानसिक दबाव की कल्पना कीजिये जहां औरतें अपने ही परिवार, समाज के पुरुषों के दबाव में इस वीभत्सता की स्थिति को स्वीकार कर लेती हैं और चलती-फिरती जेलों की सी हालत में जीती हैं।

Share
Leave a Comment
Published by
Archive Manager